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मंजूरी बगैर आरोपपत्र दाखिल होना जमानत का आधार नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने किया स्पष्ट

नई दिल्ली

शीर्ष अदालत का यह फैसला धारा 120बी (आपराधिक साजिश), गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) की विभिन्न धाराओं और विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 3 और 5 के तहत आरोपित पांच आरोपियों की अपील पर आया।

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि सक्षम अधिकारियों से अभियोजन के लिए मंजूरी प्राप्त करना जांच का हिस्सा नहीं है। अगर निर्धारित अवधि के भीतर आरोपपत्र दाखिल किया गया है तो एक आरोपी इस तरह की मंजूरी के अभाव को आधार बताकर डिफॉल्ट जमानत पर रिहाई के अपरिहार्य अधिकार का दावा नहीं कर सकता है।

शीर्ष अदालत का यह फैसला धारा 120बी (आपराधिक साजिश), गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) की विभिन्न धाराओं और विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 3 और 5 के तहत आरोपित पांच आरोपियों की अपील पर आया।

सीजेआई जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस जेबी पारदीवाला की पीठ ने कहा, कानून के तहत मंजूरी की आवश्यकता है या नहीं, यह एक ऐसा प्रश्न है जिस पर अपराध का संज्ञान लेते समय विचार किया जाना चाहिए न कि जांच या जांच के दौरान। अगर सक्षम अधिकारी को मंजूरी देने में कुछ समय लगता है, तो इससे जांच एजेंसी की ओर से कोर्ट में दायर अंतिम रिपोर्ट गलत नहीं साबित हो सकती। यह नहीं कहा जा सकता कि सक्षम अधिकारियों से मंजूरी लेना जांच का हिस्सा है।

हम अपीलकर्ताओं की ओर से दिए गए मुख्य तर्क में कोई योग्यता नहीं पाते हैं कि मंजूरी के बिना दायर की गई चार्जशीट एक अधूरी चार्जशीट है। एक बार निर्धारित समय के भीतर चार्जशीट दाखिल हो जाने के बाद वैधानिक/डिफॉल्ट जमानत देने का सवाल ही नहीं उठता। सीआरपीसी की धारा 167 के अनुपालन के उद्देश्य से संज्ञान लिया गया है या नहीं लिया गया है, यह प्रासंगिक नहीं है। पीठ ने कहा, सिर्फ आरोप पत्र दायर करना ही काफी है।

धारा 167 के तहत 60, 90 दिन में आरोपपत्र

दाखिल नहीं होने पर मिलती है डिफॉल्ट जमानत
सीआरपीसी की धारा 167 के तहत यदि जांच एजेंसी रिमांड की तारीख से 60 दिनों के भीतर आरोपपत्र दाखिल नहीं कर पाती तो आरोपी डिफॉल्ट जमानत का हकदार होगा। कुछ श्रेणियों के अपराधों के लिए, निर्धारित अवधि को 90 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है। आरोपियों ने पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती दी थी। हाईकोर्ट ने उन्हें सीआरपीसी की धारा 167 (2) के तहत डिफॉल्ट जमानत पर रिहा करने से इन्कार कर दिया था। याचिकाकर्ताओं के वकील कॉलिन गोंजाल्विस ने तर्क दिया था कि बिना मंजूरी के दायर आरोपपत्र अधूरा है और इस तरह की अपूर्णता के आधार पर कोई संज्ञान नहीं लिया जा सकता है।

केंद्र की डिफॉल्ट जमानत पर हालिया फैसले को वापस लेने की मांग
सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार ने आवेदन दाखिल कर उसके डिफॉल्ट जमानत पर दो जजों की पीठ के 26 अप्रैल के फैसले को वापस लेने की मांग की है। सीजेआई की पीठ ने केंद्र के आवेदन पर विचार के लिए बृहस्पतिवार को तीन सदस्यीय पीठ के गठन पर सहमति जताई।

साथ ही 26 अप्रैल को रितु छबड़िया मामले में दिए फैसले के आधार पर डिफॉल्ट जमानत की मांग वाले आवेदन को चार मई के बाद सूचीबद्ध करने का निर्देश दिया। जस्टिस जस्टिस कृष्ण मुरारी और जस्टिस सी टी रविकुमार की पीठ ने रितु छबड़िया के फैसले में कहा था कि जांच एजेंसी आरोपी को डिफॉल्ट जमानत के मौकों को कम करने के लिए अधूरा आरोपपत्र दाखिल नहीं कर सकते।

क्योंकि वह न केवल एक वैधानिक बल्कि आरोपी का मौलिक अधिकार है। पीठ ने यह भी कहा था कि आरोपी को डिफॉल्ट जमानत के अधिकार से वंचित करने के लिए जांच एजेंसी बिना जांच पूरी किए आरोपपत्र दाखिल नहीं कर सकतीं।

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