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मौजूदा सरकार के दबाव में क्या अधिकारी काम कर रहे हैं ?

आर्यन खान मामले की जांच करने वाले एनसीबी के अधिकारी समीर वानखेड़े का तबादला अब चेन्नई कर दिया गया है

आर्यन खान मामले की जांच करने वाले एनसीबी के अधिकारी समीर वानखेड़े का तबादला अब चेन्नई कर दिया गया है। गौरतलब है कि क्रूज ड्रग्स मामले में हिंदी फिल्मों के सुपरस्टार शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान को एनसीबी ने गिरफ्त में लिया था। आर्यन खान को हिरासत में रखा गया, उनकी जमानत मिलने में भी काफी बाधाएं आईं और एक लंबे वक्त के बाद आर्यन खान सलाखों से बाहर आए। अदालत से बाहर भी मीडिया का ट्रायल एक एजेंडे के तहत चलता रहा और आर्यन खान को एक अमीर बाप के बिगड़ैल बेटे की तरह दिखाने की सारी कोशिशें हुईं। जिस वक्त आर्यन खान की छवि खराब की गई, उसी वक्त लखीमपुर खीरी में किसानों को वाहन से कुचलने की घटना भी हुई, जिसमें केन्द्रीय गृहमंत्री के बेटे को आरोपी बनाया गया। और इसके बाद ही गुजरात में बंदरगाह पर करोड़ों का ड्रग्स बरामद हुआ।

लेकिन इन दोनों मामलों में मीडिया का रुख आर्यन खान मामले से अलग रहा। आर्यन खान से पहले सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के मामले में रिया चक्रवर्ती को दोषी ठहराने की पूरी कोशिश पत्रकारों ने की। अपने पेशे से बेईमानी करने वाले पत्रकारों के साथ क्या सलूक होना चाहिए, ये जनता को तय करना है। फिलहाल सवाल ये है कि आर्यन खान के साथ जो नाइंसाफी हुई, क्या समीर वानखेड़े के तबादले से उस गलती को सुधारा जा सकेगा।

गौरतलब है कि जब एनसीबी ने आर्यन खान पर कार्रवाई की थी, उस वक्त समीर वानखेड़े मुंबई में एनसीबी के जोनल डायरेक्टर थे। और जिस तरह से पूरी जांच प्रक्रिया चली, उसमें भेदभाव के आरोप एनसीबी पर लगे, समीर वानखेड़े पर उंगलियां उठीं कि उन्होंने दबाव में आकर इस तरह की कार्रवाई की। बताया गया कि समीर वानखेड़े ने आर्यन खान मामले की जांच के दौरान कई गलतियां की। जैसे उन्होंने सर्च ऑपरेशन के दौरान कोई वीडियोग्राफी नहीं कराई और ना आर्यन खान का कोई मेडिकल टेस्ट करवाया जिससे यह साबित हो सके कि उन्होंने ड्रग्स ली थी या नहीं। एक रिपोर्ट में बताया गया है कि ‘एसआईटी की आंतरिक रिपोर्ट में कहा गया है कि यह अजीब सी और हैरान करने वाली बात है कि ‘अरबाज मर्चेंट जिसके पास से बहुत ही मामूली मात्रा में चरस बरामद हुई थी, उसके साफ इनकार के बावजूद कि आर्यन खान का ड्रग से कोई लेना-देना नहीं है, पुलिस ने उसका मोबाइल फोन जब्त किए बिना ही उसके व्हाट्सऐप चैट को खंगाला।

ऐसा लगता है कि जांच अधिकारी किसी भी हालत में आर्यन खान को इस केस में फंसाना चाहता था।’ इन पंक्तियों को पढ़कर अनुमान लगाया जा सकता है कि किस तरह दुर्भावना के साथ आर्यन खान के खिलाफ काम किया गया। बहरहाल, पिछले दिनों आर्यन खान को पाक साफ घोषित कर दिया गया। आर्यन खान को क्लीन चिट मिलने के बाद एनसीबी के महानिदेशक ने कहा था कि आर्यन खान मामले की जांच में शामिल अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी। और शायद इसी का परिणाम है कि समीर वानखेड़े चेन्नई भेज दिए गए हैं।

आर्यन खान ने अपने परिजनों से दूर, जेल में, एक ना किए गए अपराध के आरोप में जिस तरह की जिल्लत झेली, उसकी भरपाई शायद ही कभी हो सकेगी। वैसे आर्यन खान सक्षम और संपन्न परिवार से आते हैं, इसलिए उन्हें इस त्रासदी में भी बहुतों का सहारा मिल गया और आगे भी मिल जाएगा। मगर आर्यन खान की तरह ही देश के बहुत से नौजवान अपनी जाति या धर्म की वजह से सरकारी प्रताड़ना का शिकार होते हैं, और निर्दोष होने के बावजूद या तो उनका जीवन जेल में गुजर जाता है या जेल से बाहर आ गए तो अघोषित सामाजिक बहिष्कार के बीच जीना पड़ता है। इसलिए जब इंसाफ की मांग हो तो आधी-अधूरी न हो, हर किसी के लिए, उसके धर्म, जाति, या ओहदे से परे न्याय की उपलब्धता हो, तभी न्याय व्यवस्था की सार्थकता है।

समीर वानखेड़े पर जिस तरह दबाव में आकर काम करने का आरोप लगा, उससे प्रशासनिक व्यवस्था की सार्थकता पर भी सवाल उठते हैं। अधिकारियों की जिम्मेदारी जनता की बेहतरी के लिए काम करने की है, लेकिन राजनैतिक दबाव में अधिकारी अक्सर सरकार की जी हुजूरी करते नजर आते हैं। मौजूदा सरकार पर ये आरोप है कि वह जांच एजेंसियों का इस्तेमाल अपने विरोधियों के दमन के लिए करती है। इस वक्त जिस तरह भाजपा विरोधी दलों के कुछ नेताओं पर ईडी, आयकर विभाग या सीबीआई की जांच चल रही है, उससे इन आरोपों में दम भी नजर आता है। मगर सवाल ये भी है कि अगर सरकार गलत नीयत से कोई काम करने का आदेश देती है, तो क्या अधिकारियों का यह फर्ज नहीं बनता कि वे सच का साथ दें। या फिर उन्हें जनता से कोई लेना-देना ही नहीं है। वे केवल अपनी नौकरी बचाने और अपने राजनैतिक आकाओं की आंखों में चढ़े रहने के लिए काम करते हैं, ताकि सेवानिवृत्त होते ही कोई अच्छा पद मिल जाए।

नौकरी के दौरान ही सेवानिवृत्ति लेकर या फिर सेवानिवृत्त होने के तुरंत बाद अगर अधिकारी किसी दल की सदस्यता लेते हैं और फिर उसकी टिकट पर चुनाव लड़ते हैं, तो फिर ये सवाल उठता है कि अपने पद पर होने के दौरान क्या उन्होंने वाकई निष्पक्षता के साथ काम किया होगा। अगर नहीं तो फिर उनकी इस बेईमानी का खामियाजा देश को कितना उठाना पड़ा होगा। बड़े अधिकारियों की तनख्वाह से लेकर उन्हें मिलने वाली सारी सुविधाओं की कीमत जनता के भरे गए टैक्स से ही होती है। लेकिन इसके बावजूद जनता के हित के लिए काम करने की जगह अधिकारी दबाव में काम कर रहे हैं, तो फिर इस समस्या के समाधान पर विचार करना होगा।

 

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