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मोदीजी 11 सालों के शासन का सर्वे से मोदी क्या केवल प्रधानमंत्री की कुर्सी चाहते हैं ?

नरेन्द्र मोदी समेत पूरी भाजपा इस समय मोदी सरकार के 11 साल पूरा होने की खुशियां मना रही है

 

नरेन्द्र मोदी समेत पूरी भाजपा इस समय मोदी सरकार के 11 साल पूरा होने की खुशियां मना रही है। इस मौके पर नरेन्द्र मोदी एक बार फिर नमो ऐप को सामने ले आए हैं, इस ऐप के जरिए वे जन मन सर्वे कर रहे हैं। अपने सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर इसकी जानकारी देते हुए श्री मोदी ने कहा कि लोग इस पर स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर के मुद्दों पर अपनी राय सामने रखें और बताएं कि पिछले 11 बरसों में भारत के विकास पर उनकी क्या राय है।

अक्सर सर्वे एजेंसियां चुनाव से पहले अलग-अलग मुद्दों पर इसी तरह सर्वे कराती हैं, जिनमें लोगों से शीर्ष पद के लिए उनकी पसंद से लेकर किन मुद्दों पर वोट करेंगे जैसे सवाल किए जाते हैं। पूछा जाता है कि मौजूदा सरकार को वे कितने अंक देंगे, दोबारा मौका देंगे या नहीं, विपक्ष के लिए क्या संभावनाएं हैं। फिर सर्वे से हासिल आंकड़ों के आधार पर दल चुनावों को लेकर अपनी रणनीति बनाते हैं। जनता के जवाब से उन्हें अपनी गलतियों का पता चल जाता है और गलती सुधारने का मौका भी रहता है।

लेकिन आजकल इसमें भी गफलत होने लगी है। अब राजनैतिक दल जनता पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए भी सर्वे कराते हैं। जैसे किसी व्यक्ति विशेष को ही शीर्ष पद के योग्य दिखाकर उसे पक्ष में माहौल बनाया जाता है। या चुनावों में नैरेटिव तय करने में इन सर्वेक्षणों को जरिया बनाया जाता है। चुनावों के वक्त जो ओपिनियन पोल होते हैं, यह भी इसी खेल का हिस्सा है। अर्थात निष्पक्ष सर्वे करवाकर वास्तव में जनता की राय जानने की जगह राजनैतिक दल जनता को मानसिक तौर पर प्रभावित करते हैं कि वह वही सोचे और कहे, जो ये चाहते हैं। आजकल ऐसे सर्वे में मीडिया की भी बड़ी भूमिका हो चुकी है।

इस पृष्ठभूमि में देखें तो नमो ऐप के जरिए श्री मोदी जनता की जो राय लेना चाहते हैं, उसकी सार्थकता और सत्यता दोनों पर सवाल उठते हैं। पहली बात तो यही अजीब लगती है कि देश के प्रधानमंत्री को जनता की राय जानने के लिए अपने ही नामाक्षर के ऐप पर निर्भर होना पड़ता है। एक-दो साल नहीं पूरे 11 बरस से नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे हैं और देश-विदेश में वे लगातार घूमते हैं। खास कर चुनाव प्रचार के क्क्त वे दिल्ली में कम और चुनावी राज्य में अधिक दिखाई पड़ते हैं।

लेकिन वे चाहते हैं कि जनता उनके फैसलों का मूल्यांकन करे। दूसरी बात अपने काम पर प्रधानमंत्री जनता की मुहर लगवाना चाहते हैं, यह अच्छी बात है, लेकिन क्या उन्हें विपक्ष की आलोचना को सुनने की हिम्मत नहीं दिखाना चाहिए। हाल ही में पहलगाम हमले से लेकर ऑपरेशन सिंदूर तक विपक्ष बार-बार संसद का विशेष सत्र बुलाने की मांग कर चुका है। दो-दो सर्वदलीय बैठकें हो गई हैं, लेकिन श्री मोदी एक भी बैठक में नहीं गए, न उन्होंने संसद का विशेष सत्र आयोजित किया। बल्कि अभी से मानसून सत्र की तारीख बता दी। जबकि संसद सत्र की तारीखें अमूमन हफ्ते भर पहले आती हैं, जो इस बार डेढ़ महीना पहले घोषित हो गईं। संसद में प्रधानमंत्री अपनी पूरी सरकार के साथ बैठें और विभिन्न फैसलों पर विपक्ष की राय सुनें तो उसी से 11 सालों का मूल्यांकन हो जाएगा। लेकिन ये रास्ता भी श्री मोदी ने नहीं चुना।

तीसरी बात मीडिया के जरिए 11 बरसों का लेखा-जोखा हो सकता था। श्री मोदी ने अपने कार्यकाल के पहले साल से लेकर अब तक एक भी खुली प्रेस कांफ्रेंस नहीं की, यह अपने आप में एक शर्मनाक रिकार्ड है। लोकतंत्र में खुले संवाद में मीडिया की अहम भूमिका रहती है। लेकिन अभी भारतीय मीडिया की साख किस तरह दांव पर लगी है, इसका एक उदाहरण वाशिंगटन पोस्ट में छपे लेख से सामने आया है। जिसमें यह उजागर किया गया है कि भारत के प्रमुख न्यूज़ चैनलों ने 9 मई की रात पाकिस्तान में तख्तापलट और युद्ध जैसी मनगढ़ंत खबरें फैलाईं, जो पूरी तरह झूठी साबित हुईं। रिपोर्ट में बताया गया है कि किस तरह व्हाट्सएप संदेशों, अज्ञात सूत्रों और सोशल मीडिया अफवाहों के आधार पर भारतीय मीडिया ने एक काल्पनिक युद्ध का ताना-बाना बुना, जिसे न तो सेना ने पुष्टि की और न ही सरकार ने। वॉशिंगटन पोस्ट ने यह जानने के लिए कि देश की सूचना प्रणाली कैसे झूठ और भ्रम से भर गई—और कैसे इसने एक निर्णायक क्षण के बारे में जनता की समझ को विकृत कर दिया, भारत के कुछ सबसे प्रभावशाली समाचार नेटवर्कों से जुड़े दो दर्जन से अधिक पत्रकारों और वर्तमान व पूर्व भारतीय अधिकारियों से बात की है, जिसका ब्यौरा इस लेख में दिया है।

ऐसा नहीं है कि जिन पत्रकारों ने पाकिस्तान के शहरों को तबाह करने या तख्तापलट जैसी खबरें चलाईं, वो अनजाने में हुआ है। बल्कि यह सब मोदी सरकार को अपराजेय दिखाने के लिए किया गया। जबकि चैनलों के पत्रकार यह बेईमानी नहीं करते, तब भी भारत विजेता ही रहता, क्योंकि हमारी सेनाओं ने अद्भुत पराक्रम दिखाया। लेकिन देश से बड़ा सरकार को दिखाने में पत्रकारों ने अपने पेशे को भी दगा दे दिया। 11 सालों के शासन का एक शर्मनाक और शोचनीय पहलू यह भी है कि स्वतंत्र मीडिया सहर्ष गुलाम बनने तैयार हो गया है। श्री मोदी ऐसे गुलाम मीडिया के कुछ पत्रकारों को भले बिठाकर पहले से तैयार जवाब दे दें, लेकिन उनसे हकीकत सामने नहीं आएगी। सच्चाई का पता तो तभी लगेगा जब स्वतंत्र प्रेसवार्ता हो और उसमें सरकार के फैसलों पर, कामयाबियों और नाकामियों पर खुलकर सवाल पूछने दिए जाएं और श्री मोदी खुद उनका जवाब देने के लिए वहां बैठे।

श्री मोदी अभी 11 सालों की खुशियां मना रहे हैं, जबकि तीसरा कार्यकाल पूरा होने में 4 साल और बाकी हैं। वैसे भारत में जनता की मर्जी हो तो श्री मोदी कितनी भी बार प्रधानमंत्री बन सकते हैं, उसमें कोई मनाही नहीं है। हमारा लोकतंत्र और संविधान इसकी इजाज़त देता है, लेकिन श्री मोदी क्या केवल प्रधानमंत्री की कुर्सी चाहते हैं, या इस देश के लोकतंत्र को अपने पद से भी ऊपर रखना चाहते हैं, 11वें साल में यह मंथन भी वे कर लें।

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