क्या है ‘टैलेंट पॉलिटिक्स’, जिसमें कूद पड़े हैं बड़े देश

अमेरिका में रिसर्च फंडिंग कटौती के बीच वैज्ञानिकों का भविष्य अनिश्चित हो गया है. इसी मौके को भुनाने कनाडा, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया टैलेंट को लुभा रहे हैं. सिर्फ पैसों से नहीं, रिसर्च की आजादी से भी.
अमेरिका में डॉनल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद विज्ञान के क्षेत्र में एक बड़ा मोड़ देखने को मिला. ट्रंप सरकार ने वैज्ञानिक रिसर्च को मिलने वाले फेडरल फंड्स में अरबों डॉलर की कटौती कर दी. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (एनआईएच), अंतरिक्ष एजेंसी नासा, नेशनल साइंस फाउंडेशन (एनएसएफ) और कई अन्य प्रमुख एजेंसियों के बजट में बड़ी कटौती की गई. केवल एनआईएच के बजट में 40 फीसदी और एनएसएफ के बजट में 55 प्रतिशत तक की कटौती प्रस्तावित है.
व्हाइट हाउस का तर्क है कि पिछली सरकार के प्रोजेक्ट्स में बहुत ‘बर्बादी’ हो रही थी और अब अमेरिका की प्राथमिकताओं के मुताबिक फंडिंग को “रीअलाइन” किया जा रहा है. इस नीति के कारण कई विश्वविद्यालयों ने नई भर्तियां बंद कर दी हैं, स्टाफ की छंटनी हुई है और कुछ संस्थानों ने रिसर्च स्कॉलर के दाखिले तक रोक दिए हैं.
इस सबका असर अमेरिका के रिसर्च इकोसिस्टम पर साफ दिख रहा है. दशकों तक अमेरिका विज्ञान और तकनीक का वैश्विक अगुआ रहा है. इंटरनेट, मोबाइल फोन, कैंसर और दिल की बीमारियों के इलाज जैसी कई क्रांतिकारी खोजें अमेरिका की यूनिवर्सिटियों और रिसर्च एजेंसियों की देन रही हैं. लेकिन अब पहली बार वैज्ञानिक समुदाय के बीच एक असुरक्षा की भावना फैल रही है, खासकर युवा शोधकर्ताओं और पोस्टडॉक्टरल शोधार्थियों के बीच, जिनका करियर फंडिंग पर टिका होता है.
‘टैलेंट पॉलिटिक्स’ का नया दौर
जहां अमेरिका में वैज्ञानिकों को अनिश्चितता का सामना करना पड़ रहा है, वहीं कई विदेशी संस्थान इसे एक मौके के तौर पर देख रहे हैं. कनाडा ने ‘कनाडा लीड्स’ नाम से एक भर्ती अभियान शुरू किया है, जिसका मकसद अमेरिका से युवा बायोमेडिकल वैज्ञानिकों को बुलाना है. इसी तरह फ्रांस की एक्स-मार्से यूनिवर्सिटी ने ‘सेफ प्लेस फॉर साइंस’ कार्यक्रम चलाया है, जो खुलकर उन वैज्ञानिकों को आमंत्रित कर रहा है जो अमेरिका में “दबाव” महसूस कर रहे हैं. ऑस्ट्रेलिया ने भी ‘ग्लोबल टैलेंट अट्रैक्शन प्रोग्राम’ की घोषणा की है, जिसमें आकर्षक वेतन और स्थानांतरण पैकेज दिए जा रहे हैं.
इन पहलों में सिर्फ पैसे का लालच नहीं है, बल्कि एक और चीज जो सामने आई है, वह है “अकादमिक स्वतंत्रता”. जैसे, ट्रंप ने हार्वर्ड जैसी प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी की आजादी में कटौती की कोशिश की. यूरोपीय यूनियन की प्रमुख उर्सुला वॉन डेर लायन ने हाल ही में कहा कि यूरोप अब वैज्ञानिक शोध की स्वतंत्रता को कानून में दर्ज करेगा. इसी भावना को लेकर फ्रांस, जर्मनी और अन्य देश अमेरिकी वैज्ञानिकों को यह भरोसा दिला रहे हैं कि उनके शोध पर कोई राजनीतिक या वैचारिक सेंसरशिप नहीं होगी.
दिलचस्प बात यह है कि इन योजनाओं में अमेरिकी वैज्ञानिकों की दिलचस्पी भी बढ़ी है. एक्स मार्से यूनिवर्सिटी के अनुसार, उनके प्रोग्राम को अब तक आए 300 आवेदनों में से 139 अकेले अमेरिका से हैं. जर्मनी की माक्स प्लांक सोसाइटी के लीजे माइटनर प्रोग्राम को इस साल अमेरिका से तीन गुना ज्यादा आवेदन मिले हैं. फ्रांस के इंस्टिट्यूट ऑफ जेनेटिक्स, मॉलिक्यूलर एंड सेल्युलर बायोलॉजी में भी अमेरिकी वैज्ञानिकों के आवेदन पिछले साल की तुलना में दोगुने हो गए हैं.
अमेरिका से ब्रेन ड्रेन की शुरुआत?
हालांकि अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि अमेरिका से बड़े पैमाने पर “ब्रेन ड्रेन” हो रहा है. वैज्ञानिकों को नई जगह बसने में सिर्फ नौकरी नहीं, बल्कि परिवार, भाषा, पेंशन जैसी ढेरों चीजें भी देखनी होती हैं. लेकिन फिर भी आंकड़े संकेत दे रहे हैं कि माहौल बदल रहा है. यूके स्थित एक ग्लोबल रिक्रूटमेंट फर्म के अनुसार, अमेरिका से आने वाले “कोल्ड कॉल”, यानी खुद से नौकरी की पूछताछ में 25 से 35 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है.
इसके साथ ही कुछ वैज्ञानिकों की निजी कहानियां भी इस बदलाव को रेखांकित करती हैं. जैसे ब्रैंडन कोवेंट्री, जो विस्कॉन्सिन यूनिवर्सिटी में न्यूरल इम्प्लांट्स पर शोध कर रहे हैं, अब कनाडा और फ्रांस में आवेदन कर चुके हैं. मेरीआना जांग का न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में बच्चों की सोच पर चल रहा एनएसएफ ग्रांट अचानक बंद हो गया. उन्हें लगा जैसे “अमेरिका अब मेरे रिसर्च टॉपिक में दिलचस्पी नहीं रखता.”
लेकिन वैश्विक वैज्ञानिक समुदाय इस बदलाव को सिर्फ अवसर की तरह नहीं देख रहा. माक्स प्लांक सोसाइटी के प्रमुख पैट्रिक क्रैमर का कहना है कि “साइंस एक वैश्विक प्रक्रिया है.” अमेरिका से रिसर्च नेटवर्क टूटने का असर पूरी दुनिया की वैज्ञानिक साझेदारी पर पड़ेगा. डेटा शेयरिंग, ओपन एक्सेस रिसर्च और संयुक्त परियोजनाएं इससे कमजोर हो सकती हैं.
ट्रंप सरकार की वैज्ञानिक फंडिंग में कटौती ने अमेरिका की लीडरशिप को हिला तो दिया है, लेकिन इसने दुनियाभर में विज्ञान को लेकर एक नई बहस भी छेड़ दी है कि वैज्ञानिक स्वतंत्रता और स्थायित्व अब सिर्फ पैसा नहीं, बल्कि पॉलिसी और विजन का मामला बन चुके हैं.