वक्फ़ कानून की विसंगतियां सामने आईं कया सुप्रीम कोर्ट का फैसला अल्पसंख्यकों की आजादी की रक्षा करेगा।

संसद द्वारा पिछले दिनों पारित किये गये वक्फ़ संशोधन अधिनियम के खिलाफ़ मिली लगभग 75 याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने दो दिनों तक सुनवाई की
संसद द्वारा पिछले दिनों पारित किये गये वक्फ़ संशोधन अधिनियम के खिलाफ़ मिली लगभग 75 याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने दो दिनों तक सुनवाई की। गुरुवार की सुनवाई के बाद अदालत ने सरकार से एक हफ्ते के भीतर जवाब मांगा है। वहीं अगली सुनवाई 5 मई को होगी। इस कानून के खिलाफ दायर याचिकाओं पर कपिल सिब्बल व अभिषेक मनु सिंघवी ने दलीलें पेश कीं तथा सरकार का प्रतिनिधित्व महाधिवक्ता तुषार मेहता ने अदालत में किया। दोनों पक्षों के बीच हुई बहस और न्यायाधीशों द्वारा पूछे गये सवालों एवं उनके हस्तक्षेप के माध्यम से जो मुद्दे उभरे हैं वे साफ बताते हैं कि यह कानून धार्मिक आजादी पर बड़ा हमला है, साथ ही संविधान के मूलभूत सिद्धांतों, खासकर समानता व नागरिक अधिकारों पर प्रहार है। इस बेहद विवादास्पद कानून की वैधता पर फैसला जो भी आये, जिरह से साफ है कि संशोधित वक्फ़ कानून लोकतंत्र व संवैधानिक व्यवस्था में आस्था रखने वालों को संतुष्ट करने वाला कतई नहीं है।
मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस केवी विश्वनाथन की बेंच ने जब बुधवार को सुनवाई प्रारम्भ की थी, तभी एडवोकेट सिब्बल ने इस कानून की अनेक विसंगतियों को सामने ला दिया। उन्होंने इसे 20 करोड़ लोगों की स्वतंत्रता एवं अधिकारों को हड़पने वाला कानून बताया और कहा कि यह धार्मिक आजादी तथा धार्मिक मामलों में प्रबंधन की स्वतंत्रता के विरूद्ध है। उन्होंने कानून की धारा 36 के हवाले से कहा कि सम्पत्ति न हो तो भी वक्फ़ बनाया जा सकता है और वह रजिस्टर्ड हो या न हो, यह वक्फ़ करने वाले पर निर्भर है। कानून में वक्फ़ को पंजीकृत करने की अनिवार्यता पर उन्होंने कहा कि वक्फ़ सैकड़ों साल पहले तब बनाये गये थे जब सम्पत्तियों का पंजीकरण नहीं होता था। स्वयं चीफ जस्टिस ने महाधिवक्ता के ध्यान में लाया कि बहुत सी मस्जिदें 13वीं से 15वीं शताब्दी के दौरान बनी हैं। अंग्रेजी शासनकाल के पहले पंजीकरण नहीं होता था तो उसका सेल डीड कैसे दिखाया जा सकता है। एक अन्य वकील हुफेजा अहमदी ने बतलाया कि सरकार ने धारा 3 के जरिये वक्फ़ की परिभाषा ही बदल दी है। सरकार द्वारा वक्फ़ के लिये इस्लाम में आस्था साबित करना भी अनिवार्य कहा गया है। उन्होंने सवाल किया- ‘जब कोई जन्म से ही मुस्लिम है तो उसे आस्था को साबित करने की ज़रूरत ही क्या है।’
स्वयं सीजेआई ने बुधवार को सुनवाई के दौरान पूछा कि क्या सरकार हिन्दू ट्रस्टों मे गैर मुसलमानों को रखेगी, जिसके जवाब में तुषार मेहता का जवाब हास्यास्पद व टालमटोल करने वाला था। उनके अनुसार किसी ट्रस्ट में गैर हिन्दू सदस्य हो भी सकते हैं और नहीं भी। इस मुद्दे पर तुषार मेहता की यह टिप्पणी अप्रिय रही जिसमें उन्होंने यह कहा कि इस हिसाब से तो इस मामले पर कोई गैर मुसलिम जस्टिस भी सुनवाई नहीं कर सकते। इस पर जस्टिस खन्ना ने कहा कि कोर्ट के जज जब कोई धार्मिक विवाद को सुनते हैं तो निजी आस्थाओं से ऊपर उठकर तथा कानून के अनुसार ही फैसले देते हैं। सॉलिसिटर जनरल की जस्टिसों पर हुई निजी टिप्पणी बतलाती है कि वे इस मामले के कमजोर जमीन पर खड़े होने से वाकिफ़ हैं।
ऐसे ही, शीर्ष कोर्ट की बेंच ने कहा कि कोई सम्पत्ति वक्फ़ की है या नही, यह सिविल कोर्ट को ही तय करने दिया जाये तो बेहतर। नये कानून में यह अधिकार कलेक्टर के पास चला गया है। जब एड. मेहता ने कहा कि उपयोगकर्ता द्वारा 1925 के पहले भी वक्फ़ स्वीकार किया जाता था, तो बेंच ने पूछा कि नये कानून में उसे अपंजीकृत किया जायेगा या शून्य माना जायेगा। इसका भी संतोषजनक जवाब मेहता के पास न होना बताता है कि सरकार यह बिल पर्याप्त तैयारियों के बिना ही लायी है और जैसे कि सरकार संसद में दावा करती रही है कि इसका उद्देश्य वक्फ़ का फायदा मुस्लिमों को दिलाना है, कहीं परिलक्षित नहीं होता। रेलवे व सेना के बाद वक्फ़ के पास सबसे ज्यादा जमीनें होने पर भी जिस तरह से सरकार व भारतीय जनता पार्टी जोर देती रही है, वह यह दर्शाता है कि उनकी निगाहें वक्फ़ की जमीनों को हथियाना है। वक्फ़ बाय यूज़र इस कानून का सबसे नाज़ुक बिन्दु है। जो सम्पत्ति धार्मिक कामों के लिये इस्तेमाल में लाई जा रही है परन्तु रजिस्टर्ड नहीं है, वह वक्फ़ बाय यूज़र कहलाती है। नये कानून में सरकार उसे ले सकती है। हालांकि यह सभी धर्मों की सम्पत्तियों के मामले में है (हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध) लेकिन सरकार ने यह प्रावधान मुसलमानों के धार्मिक न्यासों के लिये लाकर बता दिया है कि इस कानून का उद्देश्य साम्प्रदायिक धु्रवीकरण भी है।
वक्फ़ कानून पर सुनवाई की अगली तारीख देते हुए मुख्य न्यायाधीश ने निर्देश दिये कि इस बीच केन्द्रीय वक्फ़ परिषद तथा बोर्डों में कोई नियुक्तियां नहीं होनी चाहिये। बेंच ने यह भी कहा कि इतनी सारी याचिकाओं पर सुनवाई सम्भव नहीं है, इसलिये कोर्ट केवल 5 याचिकाओं को सुनेगा। उल्लेखनीय है कि पिछले वर्ष 8 अगस्त को केन्द्र सरकार ने लोकसभा में वक्फ़ संशोधन विधेयक, 2024 पेश किया था जिसका उद्देश्य वक्फ़ अधिनियम, 1995 में संशोधन कर वक्फ़ की सम्पत्तियों में पारदर्शिता तथा सुप्रबन्धन लाना बतलाया गया था। इसमें वक्फ़ कानून 1923 को रद्द करने का भी प्रस्ताव है। इस कानून का संसद के भीतर और बाहर तत्काल कड़ा प्रतिरोध हुआ था।
अगले दिन इसे संयुक्त संसदीय समिति को भेजा गया था लेकिन इसमें सरकार का बहुमत होने तथा उसके अड़ियलपन के कारण विपक्ष की सिफारिशें अनसुनी कर दी गयीं। कुल 44 संशोधनों की सिफारिश की गयी थी परन्तु समिति ने 14 ही स्वीकृत किये। इसी माह की 3 व 4 को क्रमश: लोकसभा तथा राज्यसभा में इस कानून को पारित कर दिया गया। इसके खिलाफ़ मुस्लिमों के संगठनों ने प्रदर्शन भी किये। उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला अल्पसंख्यकों की आजादी की रक्षा करेगा।