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मोदी शाशन में अब जो भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं !

भारत अपनी आजादी के 76 वर्ष पूरे कर रहा है। इस अवसर पर स्वाभाविकत: देश भर में जश्न का माहौल ……….

 

भारत अपनी आजादी के 76 वर्ष पूरे कर रहा है। इस अवसर पर स्वाभाविकत: देश भर में जश्न का माहौल रहेगा। औपनिवेशिक पराधीनता की बेड़ियां काटकर आजाद होने के लिये भारत ने जिस सत्य और अहिंसा का सहारा लिया, वह अब भी भारतीयों के लिये महान स्वतंत्रता संग्राम की अमूल्य विरासत है। वह एक कोरा संघर्ष नहीं था बल्कि उसमें इस महान देश के परम्परागत मूल्यों और आदर्शों को पिरोया गया था। अपने सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों को क्षरित किये बगैर हासिल की गयी लड़ाई को दुनिया ने अचरज के साथ प्रशंसा की निगाहों से देखा। इतना ही नहीं, भारत की स्वाधीनता की लड़ाई ने अनेक देशों को प्रेरित किया और हमारे पीछे-पीछे वे भी सम्प्रभु राष्ट्र बनते चले गये।

यही कारण है कि हमारे राष्ट्रनायक विश्वनायक बने। कई देशों में इन नेताओं की मूर्तियां हैं, उनके नाम पर चौराहे और मार्ग हैं। पिछले 77 वर्षों में अनेक पार्टियों की सरकारें बनीं, अलग-अलग तरह के लोगों ने प्रधानमंत्री का पद सम्हाला। उन सभी की विचारधारा चाहे एक दूसरे से जुदा थी, काम-काज का ढंग पृथक था, लेकिन जो सभी को जोड़े रखती थी और उसे किसी ने तोड़ने की कोशिश नहीं की, वह है हमारी यही महान उपलब्धि और विरासत जिसे पहली बार बहुत शिद्दत और सायास झुठलाने, नकारने और लांछित करने का दौर जारी है। भारतीय जनता पार्टी जिस संगठन की कोख से निकली है, वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आजादी के आंदोलन से अलग रहा। बल्कि वह न स्वतंत्रता चाहता था और न ही उसके ज़रिये जैसा समाज बना वैसी व्यवस्था चाहता थी। बहुत हाथ-पांव मारने के बावजूद यह विचारधारा और संगठन भारत की राजनीतिक प्रणाली में हमेशा हाशिये पर रहा। स्वतंत्रता संग्राम में उसकी निभाई नकारात्मक भूमिका ने उसके लिये इस देश की वैचारिकी और कार्य संस्कृति में कोई जगह नहीं छोड़ी। इसलिये भारत महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और डॉ. बीआर अंबेडकर के सपनों के अनुकूल बन सका। स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व के सिद्धांतों पर निर्मित देश को इसलिये आधुनिक राष्ट्रों की पंक्ति में सम्मानजनक स्थान मिल सका।

1991 के बाद परिस्थितियां बदलीं। 1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने से देश का वह वर्ग विचलित हो उठा जो सभी तरह की गैरबराबरी में यकीन करता है। इसलिये इस सोच का प्रतिनिधित्व करने वाले भाजपा के लालकृष्ण आडवाणी ने राममंदिर आंदोलन की रथयात्रा निकाली थी जो उनकी बिहार में गिरफ्तारी के साथ समाप्त तो हो गयी लेकिन इसका सियासी लाभ उसे मिला। भाजपा लगातार बलवती होती गयी। भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने परन्तु उनकी आर्थिक मोर्चे पर असफलताओं से देश फिर रोजी-रोटी पर लौट आया। 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबन्धन यूनाइटेड प्रोग्रेसिव एलायंस (यूपीए) की सरकार बनी। 2014 में भाजपा चोला बदलकर आई। गुजरात मॉडल का नाम जपते हुए नरेन्द्र मोदी पीएम बने। जल्दी ही साफ हो गया कि पूंजीवाद और साम्प्रदायिकता का संघ का एजेंडा ही वे लागू करने आये हैं। इसके पहले कि उनकी गति वाजपेयी की तरह की होती, 2019 का चुनाव भी वे राष्ट्रवाद का मुलम्मा चढ़ाकर जीत गये- पहले से अधिक सीटें लेकर। इसके बाद मोदी ने अपना असली मकसद दिखलाया। विपक्ष को नेस्तनाबूद करने, अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ देश में माहौल बनाने, जनविरोधी कानून लाने, खरीद-फरोख्त के जरिये या केन्द्रीय जांच एजेंसियों से डरा-धमकाकार निर्वाचित राज्य सरकारों को गिराने, संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर व असरहीन करने, विरोधी लोगों को जेल भेजने जैसे काम कर मोदी ने एक तरह से अप्रत्यक्ष तानाशाही ही लागू कर रखी है- 2024 में कमजोर होने के बावजूद। जनता तथा मीडिया से संवादहीनता रखते हुए मोदी ने संसद को तक जेब में डाल रखा है।

जनता को भ्रमित कर अपनी छवि चमकाने के लिये मोदी ने स्वतंत्रता संग्राम की विरासत को मिटाना चाहा। इसके दो कारण हैं, पहला तो विचारधारा का अलग होना और दूसरे, उनकी असफलताएं। एक दशक से सभी मोर्चों पर उनकी नाकामियों के किस्से मिल रहे हैं। हालांकि इस असफलता को भी वे, उनकी सरकार, पार्टी और समर्थक स्वीकारने के लिये तैयार नहीं हैं। यह भी सच है कि वे देश की जनता को जान-बूझकर लाचार और कंगाल बना रहे हैं ताकि कोई उनसे सवाल न कर सके। आखिर एक कमजोर नागरिक सत्ता से कैसे टकरा सकता है- यह मोदी सरकार जानती है। लोगों की आजादी को असली खतरा यहीं से शुरू होता है जो भारतीय नागरिकों पर छाया हुआ है। नोटबन्दी, जीएसटी, कोरोना कुप्रबंधन, बेरोजगारी और महंगाई से जर्जर हालात वाले अपनी स्थिति पर गौर न कर सकें, इसके लिये भाजपा सरकार के पास अमृतकाल, भारत विभाजन विभीषिका दिवस, संविधान हत्या दिवस, तिरंगा यात्रा जैसे इवेंट तो हैं, लेकिन लोगों के आर्थिक हालात सुधारने के लिये न कोई मंशा और योजना।

रोटी के जरिये जनसामान्य की स्वाधीनता छीनने को आतुर भाजपा सरकार को राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की उस चेतावनी को ध्यान में रखना होगा जो उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कविता ‘रोटी और स्वाधीनता’ में दी है-

आजादी तो मिल गई, मगर, यह गौरव कहां जुगाएगा?
मरभुखे! इसे घबराहट में तू बेच तो न खा जाएगा?
आजादी रोटी नहीं, मगर, दोनों में कोई वैर नहीं,
पर कहीं भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं।

हो रहे खड़े आजादी को हर ओर दगा देने वाले,
पशुओं को रोटी दिखा उन्हें फिर साथ लगा लेने वाले।
इनके जादू का जोर भला कब तक बुभुक्षु सह सकता है?
है कौन, पेट की ज्वाला में पड़कर मनुष्य रह सकता है?

झेलेगा यह बलिदान? भूख की घनी चोट सह पाएगा?
आ पड़ी विपद तो क्या प्रताप-सा घास चबा रह पाएगा?
है बड़ी बात आजादी का पाना ही नहीं, जुगाना भी,
बलि एक बार ही नहीं, उसे पड़ता फिर-फिर दुहराना भी।

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