विलंब कर मोदी सरकार में अब की बार, बहानों की बयार

भाजपा शासन में 2018 में लाई गई चुनावी बॉंड योजना पर शुरुआत से सवाल उठे, इसे रिश्वतखोरी का नया तरीका बताया गया
भाजपा शासन में 2018 में लाई गई चुनावी बॉंड योजना पर शुरुआत से सवाल उठे, इसे रिश्वतखोरी का नया तरीका बताया गया, लेकिन भाजपा के पहले कार्यकाल में लायी गई यह योजना दूसरे कार्यकाल में बेधड़क चलती रही। इस पर कई याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल की गईं और चुनावों में धन के खर्च और पारदर्शिता का हवाला दिया गया। आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले महीने 15 फरवरी को चुनावी या इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को यह कहते हुए रद्द कर दिया था कि ये संविधान के तहत सूचना के अधिकार, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है।
चुनावी बॉन्ड के काम में संलग्न एकमात्र बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को अदालत ने निर्देश दिया था कि वह इलेक्टोरल बॉन्ड के बारे में सारी जानकारी 6 मार्च तक चुनाव आयोग के सामने पेश करे। इस आदेश का मकसद यह था कि आने वाले आम चुनावों के पहले जनता को यह पता चले कि किस राजनैतिक दल को कितना चंदा अब तक मिला है और किन लोगों या किन कारोबारी घराने ने कितने की रकम चुनावी बॉन्ड्स के जरिए राजनैतिक दलों को दी है। शीर्ष अदालत के इस आदेश को खास तौर पर भाजपा के लिए बड़ा झटका माना गया था, क्योंकि देश में इस वक्त सबसे अधिक धन भाजपा के ही पास है।
सत्तारुढ़ दल होने के कारण चंदे की रकम भी उसे ही सबसे ज्यादा मिली होगी, ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है। लेकिन चुनावी बॉंड में गोपनीयता के नियम के कारण अब तक यह खुलासा नहीं हो पाया था कि भाजपा को किन लोगों से कितना धन मिला और इस चंदे के एवज में सरकार से उन लोगों को कोई विशेष लाभ दिया गया या नहीं।
भाजपा सरकार ने 2018 में चुनावी बॉन्ड पर जो अधिसूचना जारी की थी, उसके क्लॉज़ 7 (4) में यह स्पष्ट रूप से कहा गया था कि अधिकृत बैंक हर सूरत में इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदार की जानकारी को गोपनीय रखे। सरकार का कहना था कि इस तरह चंदा देने वाले को राजनैतिक दलों के प्रतिशोध से बचाया जा सकेगा। यानी यह पहले ही मान लिया गया था कि किसी राजनैतिक दल की विचारधारा को बढ़ावा देने के लिए कोई चंदा नहीं देगा, बल्कि चंदे के बदले फायदा हासिल करने के लिए दिया जाएगा।
बहरहाल, शीर्ष अदालत के आदेश के बाद यह माना जा रहा था कि अब चुनाव से पहले ही चुनावी बॉन्ड खरीदारों की जानकारी सामने आ जाएगी और इस पर भाजपा ने चुनाव में पारदर्शिता या ईमानदारी के जितने भी तर्क दिए हैं, उनकी परख भी हो जाएगी। लेकिन एसबीआई ने छह तारीख की समय सीमा पूरी होने से पहले ही सर्वोच्च न्यायालय में अर्जी दाखिल कर कहा है कि चुनावी बॉन्ड के मामले में जानकारी देने के लिए 30 जून तक का वक्त दिया जाए।
अर्जी में कहा गया है कि 12 अप्रैल 2019 से लेकर 15 फरवरी 2024 के बीच 22,217 इलेक्टोरल बॉन्ड जारी किए गए हैं। यह बॉन्ड अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों को चंदे के लिए जारी हुए हैं। बैंक का यह भी कहना है कि देश की अलग-अलग 29 शाखाओं में बॉन्ड खरीदे और भुनाए गए हैं। ख़रीदार का नाम, बॉन्ड ख़रीदने की तारीख, जारी करने की शाखा, बॉन्ड की क़ीमत और बॉन्ड की संख्या, इन सबका आंकड़ा किसी सेंट्रल सिस्टम में नहीं हैं। गोपनीयता के कारण बॉन्ड जारी करने से संबंधित डेटा और बॉन्ड को भुनाने से संबंधित डेटा दोनों को दो अलग-अलग जगहों में रखा गया, इसका कोई सेंट्रल डेटाबेस नहीं रखा गया और अब ये सब मुंबई में बैंक की मुख्य शाखा में एक साथ स्टोर किया गया है।
बॉन्ड खरीद और भुनाने के डेटा के दो अलग-अलग सेट हैं, यानी 22 हजार 217 बॉन्ड की जानकारी के लिए 44,434 सेट डिकोड करने होंगे, फिर उन्हें आपस में मिलाना होगा, उनकी तुलना करनी होगी और तब जाकर पता चलेगा कि किसने किस दल को कितने का चंदा बॉन्ड खरीद कर दिया है।
गोपनीयता के नियम का हवाला देते हुए एसबीआई ने जो दलील अपने आवेदन में पेश की है, उसे देखकर एकबारगी यही लगेगा कि वाकई इस काम में काफी वक्त लगेगा। लेकिन डिजीटल इंडिया के इस दौर में यह बहानेबाजी के अलावा और कुछ दिखाई नहीं देता है। मान लिया कि बैंक ने बॉन्ड खरीदने वालों की जानकारी गोपनीयता के कारण सेंट्रल सिस्टम में नहीं चढ़ाई, लेकिन कहीं तो ये डेटा दर्ज है ही और और अपने ही सिस्टम में दर्ज डेटा निकालने के लिए बैंक को चार महीने का वक्त क्यों चाहिए। ये डेटा किसी विदेशी संस्था के पास नहीं है, जहां से जानकारी लेने में वक्त लगे। अभी तो कंप्यूटर की एक बटन दबाते ही सारी जानकारी सामने आ जाती है।
अगर एसबीआई चाहे, तो इसके लिए विशेषज्ञों की मदद ले सकता है। लेकिन वक्त लगने की दलील विशुद्ध बहाना ही है। दरअसल मौजूदा सरकार में बहानेबाजी की बयार है। पुलवामा में इतना सारा विस्फोटक कैसे पहुंचा और सैनिकों को एयरलिफ्ट क्यों नहीं किया गया, उसके जवाब में बहाना, चीन को जवाब क्यों नहीं दिया जा रहा, उसके लिए भी बहाना। कोरोना के वक्त आक्सीजन की आपूर्ति में कमी क्यों आई, तब बने पीएम केयर्स फंड में जो राशि आई, उसका क्या उपयोग हुआ, इसे सार्वजनिक क्यों नहीं किया गया. उसमें भी जवाब की जगह बहाना, नोटबंदी के बाद भी कालेधन पर रोक क्यों नहीं लगी, उस पर भी बहाना और किसान आंदोलन से लेकर अग्निवीर तक सरकार ने अपनी हर मनमानी के लिए नए-नए बहाने गढ़े हैं, ताकि कोई उससे न सवाल करे और सवाल करे तो जवाब की उम्मीद न करे।
अब देखना दिलचस्प होगा कि सर्वोच्च अदालत एसबीआई की इस अर्जी पर क्या निर्देश देता है। अगर अदालत 30 जून तक डेटा उपलब्ध कराने की बात को स्वीकार कर लेता है, तो यह मानना होगा कि नागरिकों को सूचना के अधिकार का उल्लंघन चार महीने और सहना होगा। 16 जून को मौजूदा लोकसभा समाप्त हो जाएगी, तब तक चुनाव भी हो जाएंगे और पारदर्शिता एवं ईमानदारी जैसे मूल्य अपने अर्थ तलाशने के लिए इंतजार को विवश होंगे।