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‘मीडिया देश के लोकतंत्र, संविधान एवं सच की रक्षा करने में पूर्णत: विफल रहा है =पूर्व जस्टिस जोसेफ कूरियन

-जस्टिस कूरियन ने कहा कि ‘किसी को भी तथ्यों की सच्ची व निडर जानकारी नहीं मिलती। लोकतंत्र के लिये सबसे बड़ा झटका यह है कि मीडिया ने देश को हताश किया है।’

मीडिया के आत्ममंथन का वक्त…

सुप्रीम कोर्ट के सबसे निष्पक्ष एवं बेदाग छवियों वाले न्यायाधीशों की जब भी बात चलती है तो उनमें पूर्व जस्टिस जोसेफ कूरियन का ज़िक्र हमेशा होता रहा है

सुप्रीम कोर्ट के सबसे निष्पक्ष एवं बेदाग छवियों वाले न्यायाधीशों की जब भी बात चलती है तो उनमें पूर्व जस्टिस जोसेफ कूरियन का ज़िक्र हमेशा होता रहा है। उन्होंने भारत के मीडिया के बारे में जो टिप्पणी की है, उस पर स्वयं देश के मीडिया से जुड़े लोगों द्वारा विचार करने की आवश्यकता है। उन्होंने साफ कहा कि ‘मीडिया देश के लोकतंत्र, संविधान एवं सच की रक्षा करने में पूर्णत: विफल रहा है।’ कैंपेन फॉर ज्युडिशियल एकाऊंटिबिलिटी एण्ड रिफॉर्म्स (सीजेएआर) की ओर से आयोजित एक परिचर्चा को संबोधित करते हुए जस्टिस कूरियन ने कहा कि ‘किसी को भी तथ्यों की सच्ची व निडर जानकारी नहीं मिलती। लोकतंत्र के लिये सबसे बड़ा झटका यह है कि मीडिया ने देश को हताश किया है।’

उनकी निराशा निर्मूल नहीं है। जो उनकी भावना है, लगभग वैसी ही देश के उन सभी लोगों की है जो संविधान में आस्था रखते हैं और लोकतंत्र को कायम रखना चाहते हैं। उन्होंने देश के लिये आशा की अंतिम किरण उन व्हिसलब्लोअरों को बताया जो अब भी लोगों को जाग्रत करने का काम कर रहे हैं और व्यवस्था की खामियों को उजागर कर रहे हैं। उन्होंने ऐसे लोगों के साथ खड़े होने की ज़रूरत बतलाई। देश की सबसे बड़ी अदालत में न्यायदान करने वाले एक जस्टिस का अगर ऐसा सोचना है तो यह मीडिया संस्थानों और उससे जुड़े सभी लोगों के लिये यह भी सोचने का अवसर है कि आखिर उन्हें (कूरियन को) ऐसा बयान क्यों देना पड़ा है।

दरअसल जस्टिस कूरियन की यह व्यथा पिछले करीब एक दशक के घटनाक्रमों का निचोड़ है जिसे हम मौजूदा शासकों की देन भी कह सकते हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले भारत में ऐसी परिस्थितियां पहले भी आई हैं। सबसे बड़ा उदाहरण है 1975 में लाया गया आपातकाल। देश के उस कालखंड में भी मीडिया का एक बड़ा हिस्सा उसके खिलाफ खड़ा रहा। उसने इंदिरा गांधी जैसी ताकतवर, लोकप्रिय और उस दौरान तानाशाह बन गयी इंदिरा गांधी का भी मुकाबला किया था। हालांकि खुद इंदिरा जान गयी थीं कि यह मुल्क निरंकुशता को बर्दाश्त करने वाला नहीं है।

उन्होंने अंतत: स्वत: ही आपातकाल हटाया लेकिन मीडिया के, जो उस दौरान प्रिंट तक ही सीमित था, किसी भी हिस्से ने उसे सराहा नहीं था। उनके निधन के चार दशकों के बाद भी दिवंगत प्रधानमंत्री को उस कलंक से छुटकारा नहीं मिल सका है। गाहे-बगाहे अब भी उस प्रसंग की याद आलोचना के स्वरों में ही होती है। यह अलग बात है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कार्यप्रणाली से तुलना करते हुए कुछ लोग दबी ज़ुबान में यह कहते सुनाई देते हैं कि ‘वर्तमान अघोषित आपातकाल से तब का घोषित आपातकाल बेहतर था जब सामान्यजनों को तो कोई तकलीफ नहीं थी।’ हालांकि लोकतंत्र के मानकों के अनुरूप किसी भी आपातकाल का समर्थन नहीं किया जा सकता। किया भी नहीं जाना चाहिये।

बहरहाल, जस्टिस कूरियन जब ऐसा कहते हैं तो दरअसल वे भारतीय मीडिया के इस दौरान के कायराना अंदाज़ और बिकाऊपन की ओर इशारा कर रहे हैं। जिस प्रकार से मीडिया का बड़ा हिस्सा मोदी, केन्द्र सरकार तथा भारतीय जनता पार्टी का अंध समर्थन कर रहा है, वही सारा कुछ पूर्व न्यायाधीश के जेहन में है। दशक भर से लोग देख रहे हैं कि मीडिया ने किस प्रकार से नरेन्द्र मोदी की महामानव की छवि गढ़ने में स्वयं को झोंक दिया है। सरकार की असफलताओं का लेशमात्र भी उल्लेख न कर हर काम को उनका ‘मास्टरस्ट्रोक’ बतलाने वाले मीडिया ने अपने आप को चारण परम्परा में ढाल दिया है।

नोटबन्दी से लेकर कोरोना काल और मणिपुर सम्बन्धी मसलों की पत्रकारिता को देखें तो हम पाते हैं कि अधिकांश मीडिया अपने बुनियादी उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने में असफल रहा है। इतना ही नहीं, उसे सरकार से जो सवाल करने थे, वे तो उसने किये ही नहीं, वह दिये जलाने और थाली-ताली पीटने में खुद ही शामिल हो गया। वह न प्रश्न करता है न किसी को करने देता है। यही मीडिया सवाल करने वालों को देशद्रोही बतलाता है। महिलाओं के अत्याचारों में वह पीड़िताओं के साथ नहीं वरन उत्पीड़कों के साथ था। शाहीन बाग हो या किसानों का आंदोलन, महिला पहलवानों का प्रदर्शन हो या ईवीएम हटाने के लिये चल रहा वकीलों-सिविल सोसायटियों का आंदोलन- उनमें मुख्य धारा का मीडिया सिरे से नदारद था। उसकी उपस्थिति होती भी है तो खामियां ढूंढने के मकसद से। ध्यान से देखें तो देश के नफरत व विभाजन के लिए भारतीय मीडिया भाजपा व केन्द्र सरकार की बराबरी के दोषी हैं।

ज्यादातर टीवी चैनल वाले मीडिया घराने चौबीसों घंटे सारा साल मोदी भक्ति में लीन रहते हैं और देश की वास्तविक परिस्थितियों का वे दर्शन नहीं कराते। उनका काम प्रधानमंत्री मोदी द्वारा परिभाषित व व्याख्यायित भारत की तस्वीर दिखलाना है। और तो और, श्री मोदी व सरकार के द्वारा बोले जाने वाले असत्यों को सच के रूप में पेश करने की भी उसने सहर्ष जिम्मेदारी ले रखी है।

शाम के प्राइम टाइम से लेकर तमाम छोटे-बड़े कार्यक्रमों के लिये स्टूडियो की चर्चाओं में भाजपा व सरकार के पक्ष में एंकर होते हैं। यहां तक कहा जाता हैं कि डिबेट के विषय तक सरकार के इशारों पर तय होते हैं। विपक्ष मुक्त भारत का एजेंडा ढोने वाला यही मीडिया है। यह प्रधानमंत्री मोदी व भाजपा की छोटी से छोटी रैलियों को तो दिखाता है पर राहुल गांधी की ऐतिहासिक भारत जोड़ो यात्राओं (पहली व दूसरी, जो जारी है) की तस्वीरें एवं विवरण प्रस्तुत करने में उसे परहेज है। सत्ता पक्ष के खाली शामियानों को ‘भारी भीड़ भरा’ और विपक्षी दलों की खचाखच सभाओं को ‘असफल’ बतलाने वाले भारतीय मीडिया के एक बड़े धड़े ने जस्टिस जोसेफ कूरियन को अगर यह कहने के लिये मजबूर किया है तो आश्चर्य नहीं।

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