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चुनावी लाभ के लिए मोदी सरकार के फैसले ?

केन्द्रीय मंत्रिमंडल की बुधवार को हुई बैठक में कुछ अहम फैसले लिए गए हैं, जिनका संबंध सत्तारुढ़ दल को चुनावी लाभ पहुंचाने से हो सकता है

 

केन्द्रीय मंत्रिमंडल की बुधवार को हुई बैठक में कुछ अहम फैसले लिए गए हैं, जिनका संबंध सत्तारुढ़ दल को चुनावी लाभ पहुंचाने से हो सकता है। इसके साथ ही निजीकरण की प्रक्रिया को तेज कर उद्योगपतियों को मुनाफा पहुंचाने का इरादा भी इन फैसलों में दिखता है। कैबिनेट ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना को 30 सितंबर के बाद भी लागू रखने का फैसला लिया है।

पाठकों को याद होगा कि 2 साल पहले कोरोना के कारण लगे लॉकडाउन में यह योजना पेश की गई थी ताकि रोजगार से वंचित लोगों को भुखमरी का शिकार होने से बचाया जा सके। उस वक्त इस योजना को अप्रैल, मई और जून 2020 यानी तीन महीने के लिए लाया गया था। इसके बाद इसे जुलाई से नवंबर 2020 तक बढ़ा दिया गया। वह बिहार चुनाव का वक्त था और भाजपा कोई जोखिम नहीं लेना चाहती थी। इसके बाद केंद्र ने अप्रैल 2021 में मई और जून 2021 की दो महीने की अवधि के लिए योजना को फिर से पेश किया और फिर इसे जुलाई से नवंबर 2021 तक और पांच महीने के लिए बढ़ा दिया। इसके बाद बंगाल, उत्तरप्रदेश समेत कई राज्यों के विधानसभा चुनाव हुए और यह योजना आगे बढ़ती रही।

पिछली इस योजना को छह महीने के लिए बढ़ाकर 30 सितंबर तक कर दिया गया था। यह मियाद कल खत्म हो रही है, लेकिन इस बीच गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव की सुगबुगाहट तेज हो गई है। दोनों ही राज्यों में इस बार भाजपा के लिए मुकाबला कठिन होता जा रहा है और ऐसे में एक लोककल्याणकारी योजना को बंद करने का जोखिम नहीं उठाया जा सकता। संभवत: इसलिए गेहूं और चावल का भंडारण कम होने के बावजूद गरीबों को मुफ्त अनाज की योजना बढ़ा दी गई है। गौरतलब है कि गेहूं की फसल इस बार कम हुई है और भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) का स्टॉक 2008 से भी निचले स्तर पर पहुंच गया है। एक रिपोर्ट के मुताबिक एफसीआई और राज्य की एजेंसियों के पास 25 लाख टन गेहूं कम पहुंचा है।

दूसरी तरफ धान की फसल छह प्रतिशत कम होने की आशंका है। ऐसे में जानकारों का मानना है कि अनाज का बफर स्टॉक न होने पर योजना को जारी रखना मुश्किल होगा। यह तथ्य है कि गरीबों को मुफ्त अनाज देने की इस योजना से दो साल तक 80 करोड़ लोगों के घरों में चूल्हा जला है, इस पर 2.6 लाख करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं और अब छह महीने और जारी रखने की सूरत में 80,000 करोड़ रुपये और खर्च होंगे। लोककल्याणकारी सरकार का दायित्व है कि वह जनता के हित में ऐसे खर्च करे, लेकिन इसके साथ ही सरकार का ये कर्तव्य भी है कि वह लोगों को अधिक से अधिक रोजगार उपलब्ध कराए ताकि उन्हें मुफ्त राशन का मोहताज न होना पड़े। वैसे भी प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना को फ्री फंड का खाना देने की बात कहकर जनता का अपमान संसद में किया जा चुका है।

सरकार अगर बेरोजगारी के आंकड़े कम करे तो लोगों का जीवन स्तर सुधर जाए और इसके साथ ही कई बुनियादी समस्याएं भी दूर हो जाएं। लेकिन सरकार एक ओर मुफ्त योजनाओं को चलाकर चुनावी लाभ लेने की जुगत में दिख रही है, दूसरी ओर निजीकरण को बढ़ावा देकर सरकार की ओर से रोजगार की संभावनाओं को भी कम कर रही है। पिछले बरसों में देश के कई सार्वजनिक निकाय निजी हाथों के हवाले किए जा चुके हैं। इनमें लाखों लोगों को रोजगार देने की संभावनाएं बनी रहती थीं, जो एक झटके में खत्म हो गईं। अब रेलवे में निजीकरण की मुहिम तेज हो गई है।

बुधवार की बैठक में 10 हजार करोड़ रुपयों के निवेश से नई दिल्ली, मुंबई और अहमदाबाद रेलवे स्टेशनों के पुनर्विकास के प्रस्ताव को मंजूरी दी है। इसके अलावा देश के अन्य 199 प्लेटफार्म्स के कायाकल्प पर काम जारी है। रेलवे स्टेशनों की सूरत से लेकर सुविधाओं तक में आमूलचूल बदलाव का दावा किया जाएगा। विश्वस्तरीय सुविधाओं की बात होगी और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से यह सब निजी क्षेत्र की दखलंदाजी से ही संभव होगा। रेलवे के पास देश की संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा है और इसका अगर सोच समझ कर इस्तेमाल किया जाए तो यात्रियों के लिए सुविधाएं भी बढ़ाई जा सकती हैं और मुनाफा भी कमाया जा सकता है।

लेकिन फिलहाल ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यह फैसला निजी क्षेत्रों के मुनाफे के लिए किया जा रहा है। सरकार तो रेलवे में घाटे का रोना ही रोती है। लॉकडाउन के वक्त रेलवे के पहिए भी थम गए थे और इसकी वजह से बड़ा नुकसान बताया गया था। तब यात्रियों को मिलने वाली कई छूट बंद कर दी गई थी। मरीजों, छात्रों, विकलांगों और वरिष्ठ नागरिकों को मिलने वाली रियायतें रोकने से इन वर्गों को कई तकलीफों का सामना करना पड़ा, जिसके बाद सरकार ने धीरे-धीरे कुछ रियायतें फिर से बहाल की हैं। इसी क्रम में अब खबर है कि वरिष्ठ नागरिकों की छूट भी वापस शुरु हो सकती है। सरकार पर इससे 2 हजार करोड़ का बोझ बढ़ सकता है। लेकिन जब कई उद्योगपति हजारों करोड़ की ऋण माफी करवाते हैं या खुद को डिफाल्टर घोषित करवा देश की कमाई हड़प कर जाते हैं, तब क्या सरकार 2 हजार करोड़ के अतिरिक्त खर्च की व्यवस्था नहीं कर सकती। वैसे भी टिकिट बुकिंग से लेकर खाने-पीने की व्यवस्था तक निजी क्षेत्र किसी न किसी बहाने रेलवे में अपनी दखल बना चुके हैं।

रेलवे हो या दूरसंचार, पानी हो या बिजली, इन सबको सरकार ने व्यापारिक उद्यम की तरह मान लिया है, लेकिन इनका गणित लाभ-हानि से परे जाकर जनहित और जनसुविधा का भी है। इनमें हो रहे घाटे को रोकने के लिए सरकार कोशिश करती, लेकिन इसके साथ ही इन पर अपना नियंत्रण रखती और इन्हें जनता तक सहजता से उपलब्ध कराने के बारे में सोचती, तो अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करती। लेकिन अभी सरकार ने व्यापार को अपने कार्यक्षेत्र से बाहर मानते हुए निजीकरण को श्रेयस्कर माना है। नतीजा ये है कि ये सुविधाएं जनता के उसी वर्ग के लिए आसानी से उपलब्ध हो रही हैं, जो खर्च करने की हैसियत रखता है। जो खर्च नहीं कर पा रहा, वह या तो सुविधाओं से वंचित है या फिर सरकार से खैरात का मोहताज है। यह स्थिति ठीक नहीं है।

 

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