गरीबों को इलाज मोदीजी आपके शाशन मे आजभी क्यों नहीं मील रहा
किसी भी देश का स्वास्थ्य सिस्टम तभी मजबूत होता है, जब वो हर तरह से समाधान दे, कदम-कदम पर मरीजों का साथ दे
किसी भी देश का स्वास्थ्य सिस्टम तभी मजबूत होता है, जब वो हर तरह से समाधान दे, कदम-कदम पर मरीजों का साथ दे और इसलिए पिछले आठ वर्षों में देश में संपूर्ण स्वास्थ्य देखभाल को सर्वोच्च प्राथमिकताओं में रखा गया है।’ ये उद्गार हैं भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के, जो उन्होंने 24 अगस्त को मोहाली में होमी भाभा कैंसर अस्पताल एवं अनुसंधान केंद्र के उद्घाटन भाषण में व्यक्त किए थे। श्री मोदी ने कहा था कि अस्पताल बनाना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी पर्याप्त संख्या में अच्छे चिकित्सकों और अन्य स्वास्थ्यकर्मियों का उपलब्ध होना भी है।
उन्होंने कहा, ‘इसके लिए भी आज देश में मिशन मोड में काम किया जा रहा है। साल 2014 से पहले देश में 400 से भी कम चिकित्सा कॉलेज थे। यानी 70 साल में 400 से भी कम चिकित्सा कॉलेज। वहीं पिछले आठ साल में 200 से ज्यादा नए चिकित्सा कॉलेज देश में बनाए गए हैं।’ प्रधानमंत्री मोदी का दावा है कि देश में 70 सालों में स्वास्थ्य के क्षेत्र में जितना काम नहीं हुआ, उससे अधिक आठ सालों में हो गया। उनका दावा है कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में आधुनिक प्रौद्योगिकी का भी पहली बार इतने व्यापक स्तर पर समावेश किया जा रहा है और आयुष्मान भारत डिजिटल हेल्थ मिशन यह सुनिश्चित कर रहा है कि हर मरीज़ को गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सुविधाएं मिले।
70 साल बनाम 8 साल, ये तुलना केवल कुछ दावों के जरिए नहीं हो सकती। और न ही इस तुलना का कोई अर्थ है, क्योंकि दो सदियों की गुलामी के बाद जब भारत ने आजादी की ओर पैर बढ़ाए और उसके बाद एक संप्रभु देश की तरह फैसले लेने शुरु किए, तो उस वक्त की बाधाएं और चुनौतियां अलग थीं। लेकिन इतना तो तय है कि तब एक मजबूत नींव डाली गई, जिस पर सशक्त भारत की इमारत खड़ी करने की कोशिशें हुईं। इस दौरान कोई एक शासक ही नहीं रहा, जिसके 70 सालों के शासन की तुलना मौजूदा आठ सालों के शासन से की जाएं। इस दौरान भारत ने प्राकृतिक, आर्थिक, राजनैतिक कई तरह की आपदाओं का सामना किया, जिनसे विकास की प्रक्रिया बार-बार बाधित हुई। अलग-अलग दौर के अलग-अलग प्रधानमंत्रियों ने अपने विवेक के मुताबिक फैसले लिए। आज हम जो भारत देख रहे हैं, वह इन सारे फैसलों का निचोड़ ही है। इसलिए केवल अपने शासन को श्रेष्ठ बताना सही नहीं है। और जहां तक सवाल कदम-कदम पर मरीजों का साथ देने का है, तो उसकी मिसाल महामारी के दो भयावह कालखंडों में देश देख चुका है। आक्सीजन की कमी से मरीजों का घुटता दम और उसके बाद लाशों को नदी किनारे की रेत में गड़ाना, नारकीय माहौल की याद दिलाता है। उस वक्त महामारी से निपटने के लिए वक्त और तैयारी के अभाव की दलील दी जा सकती है। लेकिन संसाधनों औऱ चिकित्सकों के अभाव में गरीब अब भी अकाल मौत मर रहे हैं, इसके उदाहरण हर आए दिन देखने मिल जाते हैं।
कुछ वक्त पहले मध्यप्रदेश से एक हृदयविदारक तस्वीर सामने आई थी, जिसमें एक अबोध बच्चा अपने दो साल के भाई की लाश गोद में लिए बैठा था और उसके गरीब पिता तब किसी तरह एंबुलेंस के इंतजाम में लगे थे। कभी बीमार परिजन को कंधे पर ढोकर इलाज के लिए लाना पड़ा या किसी अपने की लाश को साइकिल पर ढोना पड़ा, ऐसी तस्वीरें भी सामने आई हैं। अब एक बार फिर एक ऐसी ही दुखद घटना घटी है। मध्यप्रदेश के बरगी स्वास्थ्य आरोग्यम केंद्र में एक पांच साल के बच्चे को लेकर उसके मां-बाप पहुंचे ताकि उसे समय पर इलाज मिल सके। लेकिन अस्पताल में न तो कोई जिम्मेदार अधिकारी थे और न ही डॉक्टर। कई घंटों तक जब डॉक्टर नहीं पहुंचा तो उस बीमार बालक ने अस्पताल की दहलीज पर ही दम तोड़ दिया। विडंबना ये कि उसकी मौत के काफी समय बाद तक अस्पताल में कोई डॉक्टर नहीं पहुंचा था। जरा सोचिए, उन मां-बाप पर क्या बीती होगी, जब उन्होंने बच्चे को तड़प-तड़प कर मरते देखा होगा।
अमीरों के पास ये सुविधा होती है कि वे एक जगह के इलाज से संतुष्ट नहीं हैं, तो दूसरे अस्पताल चले जाते हैं। दवाई के लिए एक बार में हज़ारों खर्च कर सकते हैं। लेकिन गरीबों के पास सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों के अलावा इलाज की कोई दूसरी व्यवस्था है ही नहीं, गरीब मरीजों को सात सितारा अस्पताल के दरवाजे के पास भी फटकने नहीं दिया जाएगा, इलाज तो दूर की बात है। सरकार का दावा है कि आयुष्मान योजना से हर किसी को गुणवत्तापूर्ण इलाज मिलेगा। लेकिन अभी तो हालत ये है कि सरकारी योजनाओं को गरीबों की चौखट तक पहुंचने ही नहीं दिया जाता। इसलिए गरीब बेमौत मर रहे हैं और इससे बड़े दुख की बात ये है कि स्वास्थ्य ढांचे की कमजोरी को स्वीकार करने या किसी स्तर पर जिम्मेदारी लेने की कोई पहल भी होती नहीं दिख रही है। सब कुछ बढ़िया है, ऐसा कहकर हम केवल रेत में सिर गड़ा रहे हैं।
गरीबों और देश के हरेक नागरिक को बिना किसी भेदभाव के इलाज की सारी सुविधाएं मिलें, यह सुनिश्चित करना सरकार का काम है। सरकार ऐसा करती है, तो उसकी तारीफ जनता अपने आप करेगी, इसके लिए खुद की पीठ ठोंकने की जरूरत नहीं होगी। और अगर सरकार ऐसा नहीं करती है, तो फिर उसे नैतिकता के आधार पर अपनी कमजोरी स्वीकार करना चाहिए। इस मामले में पुर्तगाल ने एक मिसाल पेश की है। जहां की स्वास्थ्य मंत्री मार्टा टेमिडो ने इस्तीफा दे दिया, क्योंकि आपातकालीन प्रसूति सेवाओं को अस्थायी रूप से बंद करने के उनके फैसले के कारण एक भारतीय गर्भवती महिला की मौत हो गई। इस फैसले की वजह से एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल के बीच गर्भवती महिलाओं को जोखिम भरे स्थानांतरण के लिए मजबूर होना पड़ता है। बीते महीनों में पुर्तगाल में इसी तरह की कई अन्य घटनाएं हुई हैं, जिन्हें देखते हुए मार्टा टेमिडो ने अपना पद छोड़ दिया, क्योंकि उन्होंने यह महसूस किया कि उनके पास अब पद पर बने रहने की कोई तुक नहीं है।
भारत में इस तरह के इस्तीफों की उम्मीद नहीं की जा सकती, क्योंकि फिर तो हर दिन किसी न किसी मंत्री या अधिकारी को पद छोड़ना पड़ेगा। कोई अपना पद न छोड़े, लेकिन उस पद के जो कर्तव्य हैं, कम से कम उनका पालन तो ईमानदारी से करे।