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रूस और यूक्रेन के बीच जंग में मोदी सरकार से उम्मीद बेमानी ?

सैकड़ों मौतों और भारी तबाही के बीच अब थोड़ी राहत की खबर ये है कि बेलारूस की सीमा पर यूक्रेन और रूस के प्रतिनिधिमंडल के बीच शांति वार्ता का पहला दौर शुरु हो गया है।

रूस और यूक्रेन के बीच जंग का आज पांचवां दिन है। सैकड़ों मौतों और भारी तबाही के बीच अब थोड़ी राहत की खबर ये है कि बेलारूस की सीमा पर यूक्रेन और रूस के प्रतिनिधिमंडल के बीच शांति वार्ता का पहला दौर शुरु हो गया है। बुद्धिमानों की हमेशा यही सलाह रहती है कि किसी भी मसले को बातचीत से ही सुलझाने की कोशिश करना चाहिए, क्योंकि युद्ध किसी भी मसले को सुलझा नहीं सकता। युद्ध दोनों पक्षों के लिए केवल बर्बादी लाता है। लेकिन सत्ता की हनक औऱ राष्ट्रवाद के उन्माद में इस सलाह की उपेक्षा शासक करते हैं। रूस और यूक्रेन में सीमा के आर-पार युद्ध की बर्बादी के सबूत इक_ा होना शुरु हो चुके हैं। खतरा परमाणु और रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल की धमकी तक जा पहुंचा है, और दुनिया के शक्तिशाली देश शांति बहाली की जगह एक या दूसरे पक्ष को भड़काते, उकसाते ही नजर आ रहे हैं।

जब पूंजीवादी सरकारें हथियारों के सौदागरों के हाथ की कठपुतली बन जाएं, और निरस्त्रीकरण जैसे शब्द अनिवार्य जरूरत की जगह जुमलों की तरह इस्तेमाल होने लगें तो फिर दुनिया में अमन के ख्वाब देखना मुश्किल है। रूस और यूक्रेन संकट के बीच भारत की भूमिका शांतिदूत की हो सकती थी, अगर हमारा नेतृत्व दूरदर्शितापूर्ण नजरिया रखता। लेकिन भारत में फिलहाल घर में घुसकर मारने की धमकी देने वालों का बोलबाला है। उनके लिए भविष्य के भारत की जगह अभी के चुनाव जीतना अधिक महत्वपूर्ण है। इसलिए रूस और यूक्रेन के बीच का विवाद खत्म करना तो दूर की बात है, हमारी सरकार अपने नागरिकों की रक्षा करने में भी असमर्थ दिखाई दी।

सरकार की इस नाकामी को छिपाने के लिए सोशल मीडिया सेना ने फिर कमान संभाली और प्रचारित किया गया कि केवल तिरंगे को देखकर ही भारतीय नागरिकों को यूक्रेनी सेना या पुलिस सीमा तक पहुंचा रही है। मगर इसी सोशल मीडिया पर कई वीडियो और तस्वीरें ऐसी भी आई हैं, जो भारत सरकार की नाकामी और दूतावास के अधिकारियों की संवेदनहीनता को दिखला रही हैं।

विदेशी धरती पर अपने देश का दूतावास प्रवासियों के लिए घर के आंगन की तरह होना चाहिए, जहां वे खुद को सुरक्षित महसूस कर सकें। दूतावास के अधिकारियों का काम केवल दो देशों के बीच संबंधों को विकसित करने का ही नहीं होता, अपने नागरिकों के प्रति भी उनकी कुछ जिम्मेदारी होती है। लेकिन यूक्रेन में भारत का दूतावास इस जिम्मेदारी को निभाने में नाकाम रहा है, ये यूक्रेन में पढ़ने गए भारतीय छात्रों की दुर्दशा बतला रही है। जाहिर है कि दूतावास ने भारत सरकार के ही नक्शेकदमों पर चलने का फैसला किया, जो हर जरूरत के वक्त अपने लोगों से मुंह मोड़ लेती है। नोटबंदी के वक्त देश के करोड़ों लोग कतार में खड़े कर दिए गए थे और तब प्रधानमंत्री ने किसी भी चौराहे पर बुला लेने वाला ऐलान किया था।

इसके बाद कोरोना की पहली लहर में अचानक लॉकडाउन कर दिया गया, तब भी लाखों लोग सड़क पर आ गए थे। तपती धूप में सड़क पर मीलों पैदल चलते लोगों से भी सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ा था, तब लोगों को गीता पढ़ने, ताली बजाने, दिए जलाने की सलाह दी गई थी। फिर कोरोना की दूसरी लहर औऱ अधिक तबाही लेकर आई, बीमार लोग आक्सीजन के इंतजार में घुट-घुट कर मर गए, उनकी लाशें जलाने के लिए श्मशान घाटों पर कतारें लगीं, लेकिन सरकार तब सेंट्रल विस्टा के निरीक्षण में मशगूल थी। इन त्रासदियों में ज्यादातर देश के गरीब लोग ही पिसे, जिनके जीने या मरने से यूं भी सुविधाभोगी भारत को कोई फर्क नहीं पड़ता।

इसलिए गरीबों के लिए प्राणघातक साबित हुए इन फैसलों के बीच भी चुनाव प्रचार चलते रहे और आएगा तो मोदी ही का उद्घोष होता रहा। अब यूक्रेन संकट सामने है, तब भी पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं, जिनके प्रचार में प्रधानमंत्री समेत सारी सरकार लगी हुई है। लेकिन यूक्रेन संकट की मार इस बार मध्यमवर्गीय लोगों पर अधिक पड़ी है, क्योंकि वहां पढ़ रहे अधिकतर छात्र इसी वर्ग से हैं। भारत में बैठे मां-बाप अब नाराज होकर सरकार से सवाल पूछ रहे हैं कि हमारे बच्चे कब वापस आएंगे, कौन उन्हें वापस लाएगा, कौन इसका जवाबदेह होगा। लेकिन इन सवालों के जवाब अतीत की घटनाओं में छिपे हुए हैं।

याद कीजिए कि जामिया मिलिया इस्मालिया विश्वविद्यालय या जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ सरकार का सलूक कैसा रहा। रोहित वेमुला से लेकर नजीब अहमद जैसे उदाहरण देश के सामने प्रस्तुत हो चुके हैं, जहां इंसाफ ने इंतजार करते-करते दम तोड़ दिया। देश के युवाओं के लिए सरकार का नजरिया तो पहले ही जाहिर हो चुका है। मगर फिर भी सरकार से उम्मीद लगाई जा रही है।

रूस और यूक्रेन के बीच एक दिन के मनमुटाव के बाद लड़ाई शुरु नहीं हुई, कई दिनों से तनाव की चिंगारी सुलग रही थी और अमेरिका समेत कई देश पहले ही अपने नागरिकों को वहां से निकलने कह चुके थे। लेकिन भारत सरकार ने आग लगने के बाद कुआं खोदने वाले अंदाज में काफी देर से निर्देश जारी किए। सरकार के पास अपनी कोई विमानसेवा भी नहीं है, जिसमें वह विद्यार्थियों को मुफ्त में ला सके, लिहाजा अभिभावकों को दोगुनी-तिगुनी कीमत देकर अपने बच्चों को बुलाना पड़ा। लेकिन हजारों विद्यार्थी अब भी वहां फंसे हुए हैं।

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रूस के खिलाफ निंदा प्रस्ताव से भारत की दूरी बनाने से नाराज यूक्रेन के सैनिक इन छात्रों के साथ अच्छा सलूक नहीं कर रहे हैं, यह कुछ वीडियो में नजर आया है। विद्यार्थियों को पोलैंड जैसे देशों की सीमा पर पहुंचने कहा जा रहा है, लेकिन युद्धग्रस्त देश में धमाकों के बीच सैकड़ों किमी का सफर क्या आसान होगा। सरकार ने अब चार मंत्रियों को यूक्रेन के पड़ोसी देशों में भेजने का फैसला लिया है। ये चारों मंत्री किस तरह विद्यार्थियों को सुरक्षित लेकर आते हैं, यह भी कुछ दिनों में पता चल ही जाएगा। क्योंकि इसके प्रचार की तैयारी भी हो चुकी होगी।

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