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किसानों को मोदी सरकार द्वारा रास्ते से हटाने की कोशिश ?

दिल्ली की तीन सीमाओं पर चल रहे किसान आंदोलन को अगले पांच दिनों में 11 महीने पूरे हो जाएंगे

दिल्ली की तीन सीमाओं पर चल रहे किसान आंदोलन को अगले पांच दिनों में 11 महीने पूरे हो जाएंगे। कृषि प्रधान और जय जवान, जय किसान के नारे पर यकीन करने वाले भारत में सत्तारुढ़ पार्टी यानी भाजपा के लिए यह बड़ी शर्मिंदगी का सबब होना चाहिए कि उसके शासनकाल में किसान खेतों में कम और सड़कों पर अधिक दिख रहे हैं। अपने हक के लिए साल भर से वो आंदोलन कर रहे हैं और अगले चुनावों तक आंदोलन को चलाने का इरादा जतला रहे हैं। ऐसा नहीं है कि किसान यह सब किसी अहं के टकराव या राजनैतिक फायदे के लिए कर रहे हैं। बल्कि इस आंदोलन की सफलता या असफलता ही उनके भावी जीवन की दिशा तय करेगी, इसलिए किसान सारे कष्ट सहते हुए आंदोलन कर रहे हैं।

किसान जानते हैं कि इस समय अगर तकलीफों की परवाह उन्होंने की तो फिर भविष्य में उन्हें और आने वाली पीढ़ियों को तकलीफ के अलावा कुछ नहीं मिलेगा। क्योंकि तब न अपने खेत पर, न उपज पर, न फसल के दाम पर उनका कोई अधिकार रह जाएगा।
बहुत साल पहले जब सार्वजनिक नल और प्याऊ बंद होने लगे थे, कुएं-बावड़ियां गुजरे जमाने की बात हो गए थे और बोतल में पानी बिकने लगा था, तब इस बात पर चिंता जतलाई जाने लगी थी कि आज पानी बिक रहा है, कल को हवा भी बेची जाएगी। और कुछ दशकों में ये चिंता सही साबित हो गई। अब प्रदूषण से बचाव के नाम पर एयर प्यूरीफायर मिलने लगे हैं और आक्सीजन पार्लर खुल चुके हैं।

निजीकरण और उदारीकरण के नाम पर पूंजी कितने क्रूर खेल आम इंसानों के जीवन के साथ खेल सकती है, इसके उदाहरण सामने देखने के बावजूद अब भी समाज जागरुक नहीं हो रहा है। किसान समझ रहे हैं कि आज उनसे बिना पूछे, उनकी बेहतरी के नाम पर जो तीन कानून बना दिए गए हैं, उसका असर आने वाले समय में सभी के लिए कितना भयावह साबित हो सकता है। इसलिए किसान शारीरिक, मानसिक और आर्थिक सारी तकलीफें झेलकर भी आंदोलन जारी रखे हैं।

दिल्ली पुलिस ने किसानों को रोकने के लिए सड़क पर गड्ढे खोदने, कील लगाने से लेकर बैरिकेडिंग करने जैसा सारे उपाय कर लिए। पिछले साल नवंबर से लेकर जनवरी के बीच सरकार और किसानों के बीच 11 दौर की बातचीत भी हुई। लेकिन इस आंदोलन को सरकार खत्म नहीं करवा पाई, क्योंकि सरकार का कोई इरादा उद्योगपतियों को नुकसान पहुंचाने का नहीं है। कृषि कानून वापस हो जाएंगे, तो मनचाही फसल, मनचाहे दामों पर खरीदने से लेकर मनचाही जमाखोरी की छूट उद्योगपतियों को नहीं मिल पाएगी। और इस वक्त लोककल्याणकारी कहलाने वाली सरकार की प्रतिबद्धता उद्योगपतियों के लिए अधिक दिख रही है। इसलिए अब न कानून वापस हो रहे हैं, न बातचीत के लिए एक फोन कॉल की दूरी को प्रधानमंत्री मिटा पा रहे हैं। अलबत्ता इस वक्त ये कोशिश जरूर की जा रही है कि किसान सड़कों से हट जाएं।

कुछ समय पहले अदालत में इस शिकायत के साथ याचिका लगाई गई थी कि किसान आंदोलन के चलते रास्ते बाधित हो रहे हैं। जिस पर आज सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस एम एम सुंदरेश की बेंच ने मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि इस मामले में कानून पहले से तय है और रास्ता नहीं रोका जाना चाहिए। इस पर किसानों के वकील दुष्यंत दवे ने सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश का हवाला देते हुए कहा कि 2020 में सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने आदेश दिया था कि विरोध-प्रदर्शन को ना हटाया जाए। इस पर कोर्ट ने कहा, ‘लेकिन सड़क को ब्लॉक भी नहीं किया जा सकता है।’ अदालत ने कहा कि सड़कें साफ होनी चाहिए। हम बार-बार कानून तय करते नहीं रह सकते। आपको आंदोलन करने का अधिकार है लेकिन सड़क जाम नहीं कर सकते।

ये सही है कि किसी भी विरोध प्रदर्शन के कारण अगर सड़कें जाम हों या रेलवे ट्रैक बंद किया जाए, तो आम लोगों को तकलीफ उठानी पड़ती है। लेकिन अगर लोकतंत्र में जनता सड़क पर विरोध करने नहीं उतरे तो फिर कहां जाए। वैसे भी देश में असहमति के लिए वैचारिक स्तर पर जगह कम होती जा रही है और अब जमीन पर विरोध की गुंजाइश भी खत्म हो रही है। अदालत कानून के हिसाब से किसी मुद्दे की व्याख्या करती है। लेकिन जनता के द्वारा चुनी गई सरकार इस वक्त कहां है। क्या मोदीजी का काम केवल उद्घाटन करना या अब सरकार ने कौन सा नया रिकार्ड बनाया, या पिछली सरकारों को कोसना, यही रह गया है। क्यों देश के प्रधानमंत्री को इस बात की फिक्र नहीं है कि किसान 11 महीनों से सड़कों पर बैठे हैं। क्यों उन्हें इस बात की फिक्र नहीं है कि कड़ी मेहनत के बाद देश का पेट भरने वाले किसानों को कभी देशद्रोही बताया जाता है, कभी उनके साथ हिंसा की जाती है।

ये अपने आप में एक मिसाल है कि किसानों का ये आंदोलन अहिंसापूर्ण तरीके से आगे बढ़ रहा है। और देश में संवैधानिक पद पर बैठे लोग जैसे मनोहर लाल खट्टर या अजय मिश्र टेनी किसानों को सबक सिखाने के बयान दे रहे हैं। क्या शब्दों के जरिए हिंसा को उकसाने वाले इन लोगों पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं होनी चाहिए थी। इससे पहले शाहीन बाग के आंदोलन में भी सरकार समर्थक कुछ लोगों ने हिंसा भड़काने की कोशिश की थी। जनता को अब ये साजिशें आंखें खोलकर देखनी और समझनी चाहिए। किसानों पर आरोप लगाना आसान है कि उनके कारण रास्ते बाधित हो गए। लेकिन उनके कारण भविष्य की राहें जो आसान होंगी, उस पर भी विचार करना चाहिए। वैसे किसानों ने गाजीपुर सीमा से बैरिकेडिंग को हटाना शुरु कर दिया है। किसान नेता राकेश टिकैत ने साफ कहा है कि रास्ता पुलिस ने बंद किया था, हमने नहीं। श्री टिकैत ने ये ऐलान भी कर दिया कि अब किसान दिल्ली जाएंगे, संसद जाएंगे, जहां ये कानून बने हैं। यानी किसान अपने संघर्ष से अब भी पीछे नहीं हट रहे हैं। देखना होगा कि इस संघर्ष को कानून और समाज का साथ कितना मिल पाता है।

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