कलकत्ता हाईकोर्ट ने चुनाव आयोग पर एक सख्त टिप्पणी से चुनाव आयोग की साख का सवाल ?

18वीं लोकसभा के लिए हो रहे आम चुनावों के बीच कलकत्ता हाईकोर्ट ने चुनाव आयोग पर एक सख्त टिप्पणी की है
18वीं लोकसभा के लिए हो रहे आम चुनावों के बीच कलकत्ता हाईकोर्ट ने चुनाव आयोग पर एक सख्त टिप्पणी की है। भाजपा के खिलाफ तृणमूल कांग्रेस की शिकायत पर समय रहते हुए कार्रवाई न करने को लेकर हाईकोर्ट के जस्टिस सब्यसाची भट्टाचार्य ने कहा है कि यह अदालत आश्चर्यचकित है कि चुनाव खत्म होने के बाद शिकायतों का समाधान तय समय में करने में भारत का चुनाव आयोग विफल हुआ है। यह अदालत निषेधाज्ञा आदेश (स्टे) पारित करने के लिए बाध्य है। गौरतलब है कि भाजपा ने बंगाल के कुछ क्षेत्रीय समाचार पत्रों में विज्ञापन दिया था, जिनमें एक में तृणमूल कांग्रेस को भ्रष्टाचार की जननी और दूसरे में सनातन विरोधी कहा गया था। टीएमसी ने इस पर चुनाव आयोग में शिकायत दर्ज करते हुए कहा था कि ये विज्ञापन अपमानजनक, झूठे थे और मतदाताओं से धार्मिक आधार पर वोट करने की अपील करते थे।
भाजपा के आपत्तिजनक विज्ञापनों को लेकर टीएमसी ने 4 मई को केंद्रीय चुनाव आयोग से शिकायत की थी। लेकिन जब चुनाव आयोग से समय रहते कोई कार्रवाई नहीं की गई तो फिर टीएमसी इस मामले को लेकर अदालत में गई, जहां आदेश में कोर्ट ने कहा कि ‘साइलेंस पीरियड’ (चुनाव से एक दिन पहले और मतदान के दिन) के दौरान भाजपा के विज्ञापन आदर्श आचार संहिता और टीएमसी के अधिकारों और नागरिकों के निष्पक्ष चुनाव के अधिकार का भी उल्लंघन थे। अदालत ने आदेश जारी करते हुए कहा- टीएमसी के खिलाफ लगाए गए आरोप और प्रकाशन पूरी तरह से अपमानजनक हैं और निश्चित रूप से इसका उद्देश्य प्रतिद्वंद्वियों का अपमान करना और व्यक्तिगत हमले करना है। स्वतंत्र, निष्पक्ष और बेदाग चुनाव प्रक्रिया के लिए, भाजपा को अगले आदेश तक ऐसे विज्ञापन प्रकाशित करने से रोका जाना चाहिए।
आश्चर्य की बात है कि स्वतंत्र और पारदर्शी चुनाव कराने का दायित्व चुनाव आयोग का है, लेकिन उसकी निष्क्रियता के कारण अदालत को यह बीड़ा भी उठाना पड़ रहा है। टीएमसी का मामला जब अदालत में चला गया, तब जाकर आयोग शनिवार 18 मई को सक्रिय हुआ। इसके बाद पश्चिम बंगाल भाजपा अध्यक्ष सुकांत मजूमदार को उनकी पार्टी द्वारा कथित तौर पर टीएमसी को निशाना बनाने वाले विज्ञापनों पर दो अलग-अलग कारण बताओ नोटिस जारी किए। आयोग ने भाजपा नेता को मंगलवार शाम 5 बजे तक अपना जवाब देने को कहा है। हालांकि अब इस कार्रवाई का कोई अर्थ नहीं रह जाता है।
इस पूरे प्रकरण से चुनाव आयोग की किरकिरी तो हुई ही है, लेकिन लोकतांत्रिक चुनावों को लेकर चिंताएं भी बढ़ गई हैं। इस पूरे चुनाव में शुरु से अब तक कई बार चुनाव आयोग की भूमिका को लेकर सवाल उठे हैं। हाल ही में उत्तरप्रदेश से एक प्रकरण सामने आया है, जिसमें एक लड़का ईवीएम पर आठ बार वोट देता नजर आ रहा है और सारे वोट भाजपा के लिए। यह वीडियो जब वायरल हुआ और विपक्ष के नेताओं ने इस पर कड़ी प्रतिक्रियाएं देते हुए चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाए, तब जाकर आयोग की ओर से कार्रवाई की पहल की गई। इसी तरह गुजरात से दाहोद का एक वीडियो सामने आया था, जिसमें भाजपा नेता के बेटे ने बूथ में जाकर ईवीएम को अपने कब्जे में ले लिया था और इस दुस्साहस को सोशल मीडिया पर प्रचारित भी किया था। इसके विरोध में जब आवाजें तेज हुईं तब जाकर चुनाव आयोग ने इस बूथ पर फिर से मतदान करवाया।
इसी तरह 13 मई को हुई चौथे चरण की वोटिंग के दौरान हैदराबाद में भाजपा प्रत्याशी माधवी लता ने एक बूथ पर मुस्लिम महिलाओं के बुर्के उठवाकर उनके पहचान पत्र की जांच की। उनका वीडियो भी वायरल हुआ और विपक्ष ने कार्रवाई की मांग की, तब जाकर उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई है। इन बड़ी घटनाओं के अलावा दसियों छिटपुट घटनाएं हुई हैं, जिनमें सारे कागजात सही होने के बावजूद किसी मतदाता को मतदान से वंचित कर दिया गया या उसका वोट किसी और पार्टी को दिलवाया गया। कहीं पुलिस अधिकारी तो कहीं पार्टियों के बूथ एजेंट मतदाताओं को धमकाते हुए भी नजर आए। ये सारी घटनाएं इसलिए हो रही हैं क्योंकि कहीं न कहीं चुनाव आयोग की कमजोरी सामने आ चुकी है। उसकी कार्यप्रणाली या पक्षपाती रवैये पर सवाल उठने लगे हैं। कलकत्ता हाईकोर्ट की सख्त टिप्पणी विपक्ष के इस आरोप को ही पुख्ता करती है कि चुनाव आयोग भाजपा के खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं दिखाता है।
जब आम चुनावों की घोषणा केन्द्रीय निर्वाचन आयोग ने की थी तो बड़े दम के साथ कहा था कि हम बेदाग चुनाव चाहते हैं। यह बात बोलने में आसान लगती है लेकिन क्रियान्वयन में काफी कठिन है। इसके लिए जिस दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है, उसके प्रदर्शन में चुनाव आयोग बार-बार चूका है। नरेन्द्र मोदी समेत सत्तारुढ़ दल के कई नेता लगातार धार्मिक, सांप्रदायिक आधार पर वोट मांग रहे हैं, लोगों को उकसाने वाले बयान दे रहे हैं। इनकी शिकायतें लेकर कई बार विपक्षी दल चुनाव आयोग तक गए, लेकिन आयोग की ओर से भाजपा अध्यक्ष को एक नोटिस जारी कर दिया गया, मानो औपचारिकता का निर्वाह हो रहा है। जबकि इन चुनावों में जब संविधान और लोकतंत्र के सवाल सबसे अहम बनकर उभरे हैं तो इसका साफ अर्थ है कि जनाधिकारों पर कहीं न कहीं कोई खतरा महसूस किया जा रहा है। जिस तरह से भाजपा ने चुनाव शुरु होने से पहले ही 4 सौ पार सीटों का दावा करते हुए फिर से सत्ता में लौटने का ऐलान किया था, वह भी लोकतांत्रिक प्रवृत्ति का परिचायक नहीं था। ऐसे में चुनाव आयोग की यह जिम्मेदारी है कि वह पूर्ण सजगता और निष्पक्षता के साथ काम करे। मगर वह दोनों जगह चूक रहा है। चुनाव आयोग को जगाने के लिए विपक्षी दल बार-बार उसका दरवाजा खटखटा रहे हैं और उसके निष्पक्ष न होने की शिकायतें भी कर रहे हैं।
चुनाव आयोग अपनी साख तभी बचा सकता है, जब लोकतंत्र और संविधान बचाने के सवाल को वह गंभीरता से सुने और उचित कार्रवाई करे।