चमक खोते सुप्रीम कोर्ट की हीरक जयंती लोगों की चिंता का सबब ?
जनता की अपेक्षा के अनुरूप पर्याप्त एवं वक्त पर न्याय देने में असफल रहने के बावजूद लोगों की अंतिम आशा बने हुए भारत के शीर्ष न्यायालय ने रविवार को अपना हीरक जयंती समारोह मनाया
जनता की अपेक्षा के अनुरूप पर्याप्त एवं वक्त पर न्याय देने में असफल रहने के बावजूद लोगों की अंतिम आशा बने हुए भारत के शीर्ष न्यायालय ने रविवार को अपना हीरक जयंती समारोह मनाया जिसमें मुख्य अतिथि के रूप में आये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बताया कि ‘आज के कानून कल के मजबूत भारत का आधार हैं।’ सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कोर्ट की कार्रवाई के डिजिटलाइजेशन एवं न्यायदान सरल भाषा में करने जैसी उपलब्धियों पर संतोष जताया। जो बहुत सी बातें इस अवसर पर किसी भी जागरूक नागरिक के जेहन में उभरती हैं, वे वर्तमान परिस्थितियों में यह सवाल करने पर मजबूर करती हैं कि एक समर्थ, स्वतंत्र व निष्पक्ष न्यायपालिका के रूप में वह लोकतंत्र की सुरक्षा और नागरिक अधिकारों के संरक्षण के मामले में कितनी सफल हुई है। ईमानदारी से अगर इस बात की समीक्षा की जाये तो कह सकते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय को अभी लम्बा सफर तय करना है। ऐसे में यह भी सवाल उठता है कि इन मोर्चों पर जैसे भारत का लोकतंत्र आहत होता दिख रहा है, क्या सबसे बड़ी अदालत उसे बचाने में कामयाब हो रही है? ‘हां’ कहने में किसी को भी संकोच हो सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के कुछ गिने-चुने न्यायाधीश ही ऐसे हुए हैं जिन्होंने अपनी जिम्मेदारी को वाकई गम्भीरता से लिया है, साहस के साथ। शीर्ष कोर्ट कई मसलों पर जन आकांक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाया है, खासकर हाल के वर्षों में। और भी सटीक तौर पर वह कालखंड रेखांकित किया जाये तो वर्तमान दौर, जिसमें न्यायदान एवं न्याय प्रणाली दोनों की ही दुर्दशा सामने आई है। जो प्रधानमंत्री मोदी न्यायपालिका में अनेक सुधारों की बात करते थे, वे भी यथास्थिति कायम रखने में स्वहित मानने लगे हैं।
2014 में जब वे प्रधानमंत्री बने थे, उन्होंने राजनीति को अपराधमुक्त बनाने के लिये सर्वोच्च न्यायालय से उम्मीद की थी कि गम्भीर आरोपों के साथ विधायिका में पहुंचने वाले सदस्यों के बारे में फैसले एक वर्ष के भीतर सुना दिये जायें ताकि लोकतंत्र के मंदिरों को साफ किया जा सके। आशा अच्छी थी, लेकिन न्यायपालिका अपेक्षित व्यवस्था न कर सका और मोदी सरकार को भी इससे राहत ही मिली क्योंकि बाद में पाया गया कि अनेक आरोपी न केवल लोकप्रतिनिधि बनकर देश की विधान मंडलों एवं संसद के सदनों में पहुंचने लगे जिन्हें श्री मोदी बाहर ही रोकना चाहते थे।
विरोधाभास व विडम्बना यह रही कि भाजपा ने ही ऐसे अनेक लोगों को टिकटें दीं और उन्हें भीतर बिठाया। और तो और, सदन की सदस्यता के दौरान लगे आरोपों में उनके खिलाफ कार्रवाई करना तो दूर, उनका पुरजोर बचाव किया। फिर ऐसे लोगों में महिलाओं का उत्पीड़न करने वाले हों या दुष्कर्म अथवा निर्दोषों को अपने वाहनों से जानबूझकर कुचलने वाले मंत्री पुत्र ही क्यों न हों। करोड़ों रुपयों की डील करने वाले केन्द्रीय मंत्री के पुत्र भी सरकार का संरक्षण पाकर बचे रहे। केन्द्रीय जांच एजेंसियों की एकतरफा कार्रवाइयों को कोर्ट महसूस तो करता है परन्तु सरकार से जवाब तलब नहीं कर पाया।
इसी कालखंड में अनेक आपराधिक कृत्य सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी के लोगों की ओर से किये जाते रहे परन्तु न उन्हें सजा मिल सकी और न ही पीड़ित पक्षों को न्याय मिला। सामान्य सिविल व क्रिमिनल केसों का बात क्या की जाये, अधिक गम्भीर तथ्य तो यह है कि भारत में अब दो तरह के कानून जारी हैं- एक भाजपा के लिये, शेष सरकार विरोधी व्यक्तियों या संगठनों के लिये। इसी न्यायपालिका ने सत्ता दल के एक मंत्री व एक सांसद को यह कहकर छोड़ दिया था कि उन्होंने हेट स्पीच मुस्कुरा कर दी थी इसलिये वह अपराध नहीं है। अपने कई आदेशों को शब्दों व भावना के अनुरूप अनुपालन कराने में सुप्रीम कोर्ट नाकाम रहा है। यहां मामला पहुंचने का अर्थ ही मान लिया जाता है कि फैसला सरकार के और भाजपा के पक्ष में होगा। इक्के-दुक्के निर्णयों को छोड़ दें तो जनता की भी यही राय है; और उसकी वजहें ठोस हैं- उदाहरणों सहित वे उद्धृत किये जा सकते हैं। किसान आंदोलन से लेकर शाहीन बाग आंदोलन, नोटबन्दी, जीएसटी और यहां तक कि धार्मिक मुद्दों पर आधारित मसले भी सरकार के पक्ष में छूटे हैं।
जिस प्रकार से न्यायाधीशों को रिटायर होने के बाद महत्वपूर्ण जगहों पर बिठाया गया, वह लोगों को उंगली उठाने का मौका तो देता ही है, यह भी बतलाता है कि देश की नियति तय करने वाले फैसले गुण-दोषों के आधार पर नहीं वरन रिटायर्ड होने पर अपनी पुनर्वास योजना के अंतर्गत सुनाये जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट को इस बाबत कोई आचार संहिता लागू की जानी चाहिये- वह भी इतने कड़े प्रावधानों के साथ कि कोई भी जज सेवानिवृत्त होने के बाद किसी पद पर कानूनन ही न बैठ सके ताकि कोई सरकार या व्यक्ति उसके लिये ऐसी व्यवस्था ही न कर पाये। इस दौरान कार्यपालिका द्वारा न्यायपालिका के अधिकार को छीनते हुए भी देखा गया है (बुलडोज़र संस्कृति) या उसे यह बतलाया जाता है कि कैसे फैसले लेने चाहिये। पिछले दिनों उस पर सत्ताधारी पार्टी से जुड़े लोगों द्वारा जो हमले किये गये हैं वे बेहद चिंताजनक हैं।
सुप्रीम कोर्ट अपनी स्वत: संज्ञान लेने की ताकत का इस्तेमाल करने से जिस प्रकार इन दिनों कतराने लगा है, वह भी लोगों की चिंता का सबब है। सरकार ने विरोध का स्वर बुलन्द करने वाले अनेक लोगों को जबरिया जेलों में बन्द कर रखा है। सुप्रीम कोर्ट उस पर मुहर लगाने का काम मात्र कर रही है या फिर तारीखें आगे बढ़ाने में मशगूल है। आजाद खयाल जनता की अपेक्षा तो सर्वोच्च न्यायालय से इन सबसे बढ़कर है। वह देखे कि लोगों के अधिकार सुरक्षित रहें और वे सरकार की भी निर्भीक आलोचना कर सकें।