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सत्ता बचाये रखने के लिये अमृतकाल में विष-बेलों का सिंचन ?

आजादी की वर्षगांठ को देश के सबसे बड़े जश्न के साथ मनाया जाता है पर यही वह अवसर भी होता है जब हर स्वतंत्र चेता नागरिक को उन सभी पहलुओं पर गौर फरमाना चाहिये जो देश और उसकी स्वतंत्रता के लिये खतरा हों

आजादी की वर्षगांठ को देश के सबसे बड़े जश्न के साथ मनाया जाता है पर यही वह अवसर भी होता है जब हर स्वतंत्र चेता नागरिक को उन सभी पहलुओं पर गौर फरमाना चाहिये जो देश और उसकी स्वतंत्रता के लिये खतरा हों। अब वैसी अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां नहीं रहीं जिनसे किसी देश के बाहरी शक्तियों के हाथों फिर से गुलाम होने का खतरा हो।

जैसा कि पहले होता था। दो महायुद्धों के बाद तो यह और भी कठिन हो गया है- कुछ अपवादों को छोड़कर। अब असली खतरा अपनी ही सरकार द्वारा नागरिक आजादी के छिन जाने का है। इसे बचाये रखने के लिये स्वयं अवाम को सतर्क रहने की आवश्यकता है और ज़रूरी होने पर प्रतिरोध करने की उसकी तैयारी भी होनी चाहिये। वैसे तो यह बात सभी स्वतंत्र देशों के लिये लागू होती है लेकिन भारत के वर्तमान परिदृश्य के सन्दर्भ में और भी ज्यादा प्रासंगिक हो गई है क्योंकि जिस रास्ते चलकर देश ने आजादी हासिल की थी, अब नये निज़ाम को उस मार्ग पर चलना न सिर्फ नागवार गुजर रहा है वरन स्वतंत्रता की नयी परिभाषा भी गढ़ी जा रही है। यही असली खतरा है।

झूठ और सत्ता को पाने के लिये रचे गये षड्यंत्रों से प्रारम्भ हुए नये राजनैतिक विमर्श ने आजादी की लड़ाई के नायकों के प्रति अवहेलना, तिरस्कार और घृणा के जरिये ऐसा विष वमन किया है कि स्वतंत्रता का गौरव ही खण्डित हो गया है। उग्र राष्ट्रवाद ने देश का पिछला लगभग एक बहुमूल्य दशक इतिहास को कोसने तथा उसमें परिवर्तन की हास्यास्पद हसरतों में गंवा दिया। बीती अवधि की काल कोठरी में एक पूरी पीढ़ी को बन्द कर उसे निरे स्वप्न दिखलाये जा रहे हैं। बस.., नई गुलामी के खतरे यहीं से प्रारम्भ होते हैं। असली नायकों को पीछे ठेलकर छद्म नायकों की अगली कतारें तो तैयार कर ही दी गईं, उनमें भरोसा करने वाली पीढ़ी भी गढ़ी गई है जिसका विश्वास है कि देश वाकई में अब तक स्वतंत्र नहीं हुआ है बल्कि उसे अंग्रेजों ने 99 वर्षों की लीज़ पर दिया हुआ है। यह वह पीढ़ी है जो पूरी गम्भीरता से मानती है कि सारा विकास 2014 के बाद ही हुआ है। इन हैरत भरी जानकारियों पर लोग विश्वास करें, इसके लिये झूठ फैलाने वालों को देशभक्त साबित करने हेतु रचा गया राष्ट्रवाद पूंजीवाद से पोषित है। अब वह जनता से अपनी कीमत वसूल रहा है।

बड़ी संख्या में लोगों की आंखों पर बन्धी राष्ट्रवाद की पट्टी पेट्रोल, डीज़ल, रसोई गैस से लेकर टमाटरों के बढ़ते दामों को यह सोचकर नज़रंदाज़ करती है कि उनके पैसों से देश को विश्वगुरु बनने में मदद मिलेगी। पाकिस्तान व अफगानिस्तान को नेस्तनाबूद करने की उत्कंठा जगाकर केन्द्रीय सत्ता ने लोगों की जेब से पैसा उगाहने की कला में महारत हासिल कर ली है। देश के भीतर अल्पसंख्यकों, आंदोलनकारियों, संगठित समूहों, बदलाव में भरोसा रखने वाले युवाओं व छात्रों समेत सरकार से सवाल करने और उसकी कमियां गिनाने वाले पत्रकारों, लेखकों, बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं को देश का दुश्मन बतलाया जाता है।

सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी ने सरकार विरोधियों को देशद्रोही, हिन्दूविरोधी, पाकपरस्त जैसे तमगे देकर जनचेतना को कुन्द कर दिया है। सरकार पर लोग आंखें मूंदकर भरोसा करें, इसके लिये उन्हें विवेकहीन और अतार्किक बनाना ज़रूरी है, अत: देश में वैज्ञानिक चेतना समाप्त करने की प्रक्रिया को भी तेज किया गया। इसके तहत कोरोना जैसी महामारी का उन्मूलन थाली-ताली पीटकर और 80 करोड़ लोगों को 5 किलो मुफ्त राशन देकर देश को दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का विलक्षण अर्थशास्त्र लिखा गया है।

एक ओर तो लोगों की भावनाओं को बेवजह उत्तेजना दी गई, तो वहीं दूसरी तरफ संसद, कार्यपालिका, न्यायपालिका, मीडिया, सिविल सोसायटियों आदि को मसल कर रख दिया गया है। सत्ता ने सुनिश्चित कर दिया है कि उसका विरोध करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता हों या अधिकारी- जेल की सींखचों के पीछे होंगे और विपक्षी दलों के मुखर सांसदों को चुन-चुनकर संसद से बेदखल किया जाएगा। नागरिकों को ताकत प्रदान करने वाले नियम-कानून या तो कमजोर किये जा रहे हैं अथवा उनका इस्तेमाल चेहरे व राजनैतिक दल देखकर हो रहा है।

वैसे तो मौजूदा सरकार अपनी स्थापना काल से ही नागरिकों को कमजोर करने और उन पर राज्य का शिकंजा कसने के अनेकानेक उपाय करती आई है परन्तु इस एक साल का विशेष उल्लेख किया जाना चाहिये। किसी भी क्षेत्र या व्यक्ति से प्रतिरोध की कोई भी आवाज के न आने से आश्वस्त हो चुके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं भाजपा सरकार को बड़ी चुनौती राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा (सितम्बर, 2023 में कन्याकुमारी से कश्मीर तक- 4000 किलोमीटर) ने दी है। उनका यह पैदल सफर देश में बढ़ रहे नफरत के खिलाफ प्रेम का संदेश लेकर था।

चूंकि भाजपा व उसकी मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पूरी विचार प्रणाली परस्पर घृणा पर आधारित है, उसका खौफ खाना लाजिमी था। यात्रा के दौरान राहुल ने जिस प्रकार से देश की समस्याओं के साथ सरकार के भ्रष्टाचार और विशेषकर मोदी व कारोबारी गौतम अदानी के साथ सम्बन्धों की बात उठाई, उन्हें संसद से एक अवमानना मामले को लेकर निकाल दिया गया।

सदस्यता बहाली के बाद भी राहुल का स्वर मंद नहीं हुआ है और आज उनके साथ 26 दलों का गठबन्धन लामबन्द है। इससे हताश मोदी मणिपुर, मेवात, ट्रेन में गोलीबारी जैसे मामलों को लेकर भी कठघरे में हैं। मोदी की बौखलाहट का खामियाज़ा जनता को भुगतना पड़ सकता है- उसके अधिकारों में कटौती के रूप में।

अपनी सत्ता बचाये रखने के लिये भाजपा ने सारे साल नये सिरे से विष-बेलों को पानी सींचा है, जिसे अमृतकाल कहा जाता है। इसवर्ष के जश्न-ए-आज़ादी के मौके पर इन विष -बेलों को समूल नष्ट करना उन सबका उद्देश्य हो जिनका विश्वास स्वतंत्रता, समानता, धर्मनिरपेक्षता एवं बन्धुत्व जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों में है।

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