‘कैदियों की समय से पहले रिहाई सिर्फ सरकार तय करेगी, अदालत नहीं’,: मद्रास हाईकोर्ट

मद्रास हाईकोर्ट ने कहा कि कैदियों की समयपूर्व रिहाई पर फैसला सरकार ही करेगी और इसे कोर्ट में अधिकार के रूप में नहीं मांगा जा सकता। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि सजा सुनाए जाने के बाद आरोपी कोर्ट की कस्टडी में नहीं रहता, इसलिए हाईकोर्ट अंतरिम जमानत नहीं दे सकता।
चेन्नई
मद्रास हाईकोर्ट ने कारावास की सजा काट रहे कैदियों की समयपूर्व रिहाई और अंतरिम जमानत को लेकर महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। अदालत ने स्पष्ट कर दिया कि सजायाफ्ता कैदी की समयपूर्व रिहाई पर फैसला लेना सिर्फ सरकार का अधिकार है और इसे कोर्ट में अधिकार के रूप में नहीं मांगा जा सकता। अदालत ने कहा कि सजा सुनाए जाने के बाद आरोपी कोर्ट की कस्टडी में नहीं रहता, इसलिए कोर्ट से जमानत या अंतरिम जमानत की मांग करना न्यायिक प्रक्रिया के अनुरूप नहीं है।
न्यायमूर्ति एन सतीश कुमार और न्यायमूर्ति एम ज्योति रामन की खंडपीठ ने यह टिप्पणी 19 नवंबर को जुबैथा बेगम और अन्य 12 याचिकाकर्ताओं की याचिकाओं को खारिज करते हुए की। इन याचिकाओं में कैदियों को अंतरिम जमानत देने की मांग की गई थी, जबकि उनकी समयपूर्व रिहाई की अर्जी अभी सरकार के पास लंबित थी। कोर्ट ने साफ कहा कि चूंकि सजा सुनाए जाने के बाद कैदी जेल विभाग की कस्टडी में होता है, इसलिए कोर्ट उसके लिए अंतरिम जमानत के आदेश जारी नहीं कर सकता।
सजा के बाद कोर्ट की कस्टडी खत्म- हाईकोर्ट
अदालत ने कहा कि जब आरोपी को सजा सुना दी जाती है, तो कोर्ट की कस्टडी खत्म हो जाती है और वह सरकार या जेल प्राधिकरण के अधीन हो जाता है। इसलिए समयपूर्व रिहाई का मुद्दा भी सरकार के पास ही विचार के लिए जाता है। अदालत ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट अंतरिम जमानत नहीं दे सकता, क्योंकि इस स्थिति में कोर्ट के पास ऐसा करने का कानूनी अधिकार नहीं होता। कैदियों को केवल तमिलनाडु सस्पेंशन ऑफ सेंटेस रूल्स के तहत ‘सजा निलंबन’ का विकल्प मिलता है।
याचिकाकर्ताओं की मांग पर सख्त टिप्पणी
अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ताओं द्वारा दायर सभी याचिकाएं इस आधार पर टिक नहीं सकतीं कि सरकार में लंबित प्रकरण के चलते कैदियों को अंतरिम राहत मिलनी चाहिए। कोर्ट ने कहा कि सरकार को कई कारकों को ध्यान में रखते हुए समयपूर्व रिहाई पर फैसला करना होता है। इसलिए इसे अधिकार मानकर कोर्ट में मांग करना गलत है। अदालत ने साफ किया कि अंतरिम जमानत, जब सजा पूरी सुनाई जा चुकी हो, कोर्ट द्वारा नहीं दी जा सकती।
जरूरतमंद मामलों में सरकार खुद फैसला करे- हाईकोर्ट
खंडपीठ ने यसु मामले का हवाला देते हुए कहा कि सस्पेंशन ऑफ सेंटेस रूल्स के नियम 40 के तहत सरकार के पास यह विवेकाधिकार है कि वह किसी भी कैदी को अस्थायी रिहाई का लाभ दे सकती है। कोर्ट ने कहा कि सरकार को ऐसे मामलों में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए और जरूरतमंद कैदी को राहत देनी चाहिए, ताकि अनावश्यक रूप से अदालतों में अंतरिम जमानत की याचिकाएं दाखिल न हों।
ये याचिकाएं अब कोर्ट में स्वीकार नहीं होंगी
अदालत ने स्पष्ट किया कि जब कैदी की समयपूर्व रिहाई की अर्जी सरकार के पास लंबित हो, तब हाईकोर्ट में अंतरिम जमानत, अंतरिम छुट्टी या उसकी अवधि बढ़ाने संबंधी याचिकाएँ स्वीकार नहीं की जाएंगी। इस फैसले के साथ अदालत ने भविष्य में ऐसी सभी याचिकाओं के लिए रास्ता बंद कर दिया। कोर्ट का मानना है कि यह अधिकार पूरी तरह सरकार के पास है और न्यायपालिका इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती।




