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अतीत के आईने में मोदी व भाजपा सरकार ?

प्रधानमंत्री मोदी के सत्ता संभालने के बाद से देश में जो महत्वपूर्ण बदलाव या फैसले लिए गए, उनमें एक है 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के तौर पर मनाना

 

 

प्रधानमंत्री मोदी के सत्ता संभालने के बाद से देश में जो महत्वपूर्ण बदलाव या फैसले लिए गए, उनमें एक है 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के तौर पर मनाना। 18वीं सदी के कवि गिरिधर ने अपनी कुण्डलियों में समझाया है कि बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ। मतलब अतीत की बातों को पकड़ कर बैठने का कोई लाभ नहीं होता, उन्हें भूल कर या सबक लेकर आगे यानी वर्तमान और भविष्य की फिक्र करना चाहिए।

लेकिन मोदी सरकार के पास भारत के वर्तमान के लिए सांप्रदायिक, धर्मांध एजेंडे के अलावा कोई नजरिया नहीं दिखता और भविष्य के नाम पर वे सीधे 2047 की बात करते हैं। वर्तमान और भविष्य को लेकर सरकार में स्पष्ट सोच की कमी साफ झलकती है, इसलिए वे अतीत की बात करते रहते हैं। देश की समस्याओं पर बात करनी हो तो बिजली से तेज गति में चलकर नेहरू युग में पहुंच कर वहां की कमियां दिखाने लगते हैं। इससे भी काम न बने तो मुगल काल की तकलीफें याद आती हैं और फिर भी जनता का ध्यान न भटके तो सीधे त्रेतायुग, द्वापर युग की कहानियों से लोगों को बहलाने का काम शुरु हो जाता है। ध्यान देने वाली बात ये है कि मोदी सरकार जब अतीत में लौटती भी है तो बड़ी चालाकी से अपनी सुविधा के लिए ब्रिटिश शासनकाल को दरकिनार कर देती है। जैसे स्पीड ब्रेकर से बचने के लिए कई बार गाड़ी चालक उसके किनारे से गाड़ी निकालता है, वही काम मोदी सरकार कर रही है। विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस इसका एक बड़ा उदाहरण है।

 

18 जुलाई 1947 को ब्रिटिश संसद ने भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम पारित किया था जिसमें विभाजन की प्रक्रिया को अंतिम रूप दिया गया। भारत और पाकिस्तान के बीच की सीमा रेखा ब्रिटिश वकील सर सिरिल रैडक्लिफ ने तय की थी, जिसमें हिन्दू बहुमत वाले इलाके भारत में और मुस्लिम बहुमत वाले इलाके पाकिस्तान में शामिल किए गए। अतीत की बात करने वाली मोदी सरकार को अगर विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मनाना ही है तो उसके लिए 14 अगस्त से बेहतर 18 जुलाई की तारीख उपयुक्त होती। गौर करने वाली बात ये भी है कि मोदी सरकार विभाजन के लिए नेहरू पर तो ठीकरा फोड़ती है, लेकिन कभी भी ब्रिटिश राज को कभी दोषी नहीं ठहराती। इसी तरह द्विराष्ट्र का सिद्धांत देने वाले वी डी सावरकर का भी जिक्र इस संदर्भ में नहीं करती। अतीत प्रेमी भाजपा के लिए इतिहास के ही कुछ उदाहरण पेश किए जा सकते हैं।

हिन्दू महासभा के 1937 के अहमदाबाद में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन में अध्यक्ष की आसंदी से सावरकर ने कहा था कि भारत में मुख्यत: दो राष्ट्र बसे हैं : हिंदू और मुस्लिम। (समग्र सावरकर वाङ्गमय, हिन्दू राष्ट्र दर्शन, खंड 6, महाराष्ट्र प्रांतिक हिन्दू सभा पूना, 1963, पृष्ठ 296)। संघ परिवार से प्रशंसित इतिहासकार आर सी मजूमदार ने भी लिखा है कि – साम्प्रदायिक आधार पर बंटवारे के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार एक बड़ा कारक हिन्दू महासभा थी, जिसका नेतृत्व महान क्रांतिकारी नेता वी डी सावरकर कर रहे थे। (स्ट्रगल फ़ॉर फ्रीडम, भारतीय विद्या भवन, 1969, पृष्ठ 611)। डा. अंबेडकर ने भी अपनी पुस्तक पाकिस्तान ऑर द पार्टीशन ऑफ इंडिया(1946) में सावरकर के द्विराष्ट्र सिद्धांत और अखंड भारत की उनकी अवधारणा के छद्म को उजागर किया है।

अंबेडकर लिखते हैं- वे चाहते हैं कि हिन्दू राष्ट्र प्रधान राष्ट्र हो और मुस्लिम राष्ट्र इसके अधीन सेवक राष्ट्र हो। यह समझ पाना कठिन है कि हिन्दू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र के बीच शत्रुता का बीज बोने के बाद सावरकर यह इच्छा क्यों कर रहे हैं कि हिंदुओं और मुसलमानों को एक संविधान के अधीन एक देश में रहना चाहिए।(पृष्ठ 133-134)। आजादी से 4 साल पहले 15 अगस्त 1943 को सावरकर ने नागपुर में कहा- मेरा श्री जिन्ना के द्विराष्ट्र सिद्धांत से कोई विरोध नहीं है। हम हिन्दू अपने आप में एक राष्ट्र हैं और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग अलग राष्ट्र हैं।

इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि बंटवारे की बात तो आजादी के वक्त मजबूरी में स्वीकार करनी पड़ी, लेकिन इसके लिए कांग्रेस नहीं बल्कि अंग्रेज, मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा इनकी तिकड़ी जिम्मेदार थी। भाजपा को यह भी याद रखना चाहिए कि जब 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन अपने चरम पर था तब सावरकर भारत में विभिन्न स्थानों का दौरा करके हिन्दू युवकों से सेना में प्रवेश लेने की अपील कर रहे थे। उन्होंने नारा दिया- हिंदुओं का सैन्यकरण करो और राष्ट्र का हिंदूकरण करो। ब्रिटिश कमांडर इन चीफ ने हिंदुओं को ब्रिटिश सेना में प्रवेश हेतु प्रेरित करने के लिए बैरिस्टर सावरकर का आभार व्यक्त किया था। भारत छोड़ो आंदोलन के वक्त जब विभिन्न प्रान्तों में संचालित कांग्रेस की सरकारें अपनी पार्टी के निर्देश पर त्यागपत्र दे रही थीं तब सिंध, उत्तर पश्चिम प्रांत और बंगाल में हिन्दू महासभा मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकार चला रही थी।(सावरकर: मिथ्स एंड फैक्ट्स, शम्सुल इस्लाम)।

अतीत के पन्नों पर लिखी इस इबारत को भाजपा चाह कर भी मिटा नहीं सकती है, इसलिए किसी न किसी तरह इनसे बचकर स्वतंत्रता पर अपना अधिकार बताती है। हालांकि भाजपा के पास अपने पुरखों की गलतियों को सुधारने का मौका है, जिसका फायदा वह नहीं उठा रही है। प्रधानमंत्री मोदी ने विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस पर एक्स पर लिखा- इस दिन भारत हमारे इतिहास के दुखद अध्याय’ के दौरान अनगिनत लोगों द्वारा झेली गई उथल-पुथल और पीड़ा को याद करता है। मैं उस अकथनीय पीड़ा को याद कर रहा हूं जब लाखों लोगों को अपने घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा था। …अकल्पनीय क्षति का सामना करने और फिर भी नए सिरे से शुरुआत करने की ताकत पाने की उनकी क्षमता का सम्मान हर किसी को करना चाहिए।

अगर श्री मोदी वाकई अपनी कही बातों पर यकीन करते हैं तो तत्काल प्रभाव से भाजपा और दक्षिणपंथी तमाम संगठनों के उन नेताओं पर सख्त कार्रवाई करें जो सांप्रदायिक नफरत फैलाते हैं। प्रधानमंत्री खुद कपड़ों से पहचानने की राजनीति का त्याग करें, जय श्री राम, जय जगन्नाथ, बजरंग बली के नाम पर वोट मांगना छोड़ें। विभाजन के वक्त भी लाखों मुस्लिम परिवारों ने अपनी मातृभूमि भारत को छोड़कर धर्म के नाम पर बने पाकिस्तान जाना मंजूर नहीं किया। लेकिन आज बात-बात पर मुसलमानों से देशभक्ति के सबूत मांगे जाते हैं, उन्हें पाकिस्तान जाने की नसीहत दी जाती है। इन सब पर लगाम लगाकर नरेन्द्र मोदी अपने ताकतवर प्रधानमंत्री होने का परिचय दें।

अगर वे यह सब नहीं कर सकते हैं तो लालकिले की प्राचीर से चाहे जितनी बड़ी-बड़ी बातें कर लें, उनके अर्थ खोखले ही रहेंगे।

 

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