भाजपा अपनी सत्ता की उपलब्धियां गिनाने के लिए कुछ खास न रहे, तो जून आते ही आपातकाल की चर्चा शुरु

देश में एक बार फिर आपातकाल पर चर्चा छेड़ी जा चुकी है। पिछले 11 सालों से यह सिलसिला चल ही रहा है कि जून का महीना आते ही आपातकाल की याद दिलाकर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके साथ कांग्रेस को भी कटघरे में खड़ा किया जाए
देश में एक बार फिर आपातकाल पर चर्चा छेड़ी जा चुकी है। पिछले 11 सालों से यह सिलसिला चल ही रहा है कि जून का महीना आते ही आपातकाल की याद दिलाकर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके साथ कांग्रेस को भी कटघरे में खड़ा किया जाए। ठीक है कि इतिहास की गलतियों से सबक लेकर वर्तमान सुधारने और भविष्य को संवारने की नसीहत दी जाती रही है। लेकिन यहां मकसद कुछ और ही दिखता है। पहली बात तो यह कि आपातकाल किन हालात में लागू किया गया, संवैधानिक व्यवस्था के तहत ही इस पर फैसला लिया गया या नहीं, अगर उस समय आपातकाल नहीं लगाया जाता तो क्या पूरे देश में अराजकता नहीं फैल जाती, इन बातों पर ईमानदारी से विचार न कर केवल एकतरफा राय थोपी जाती है कि इंदिरा गांधी तानाशाही मानसिकता की थीं, वे सारी शक्ति अपने हाथ में रखना चाहती थीं, इसलिए उन्होंने आपातकाल लगाया। ऐसे इल्जाम लगाने वाले लोग भूल जाते हैं कि उन्हीं इंदिरा गांधी को फिर से जनता ने ही भारी बहुमत देकर सत्ता पर बिठाया था। खैर, आपातकाल आज से 50 बरस पुरानी बात है और इस एक फैसले के अलावा भी इंदिरा गांधी ने बहुत से अन्य क्रांतिकारी फैसले लिए थे, प्रिवीपर्स का खात्मा, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, परमाणु परीक्षण, बांग्लादेश का निर्माण, इन सब फैसलों की तारीख और साल भाजपा उस तरह से याद क्यों नहीं करती है, जैसे आपातकाल को करती है। यहीं मकसद की बात सिद्ध होती है कि जब अपनी सत्ता की उपलब्धियां गिनाने के लिए कुछ खास न रहे, तो फिर पूर्ववर्ती शासकों की गलतियां गिनाकर ध्यान भटकाया जाए। भाजपा इस समय इसी कार्य में लगी है।
आपातकाल के पचास बरस पर मोदी सरकार के 11 बरस भारी पड़ सकते थे, बशर्ते इस एक दशक में देश को सम्मान और लोकतंत्र को मजबूत करने वाला कोई काम हुआ होता। मगर 11 सालों की याद करें तो सबसे पहले योजना आयोग का खात्मा, फिर नोटबंदी, जीएसटी, लॉकडाउन, किसान आंदोलन, सीएए, एनआरसी, जम्मू-कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा वापस लेना, उसे केंद्र शासित राज्य बनाकर दो हिस्सों में बांटना, राम मंदिर उद्घाटन ऐसे कार्य और फैसले ही याद आते हैं। इन सबमें उपलब्धि कम और विवाद ज्यादा खड़े हुए हैं, और जो रही-सही कसर थी, उसे डोनाल्ड ट्रंप के अपमानजनक व्यवहार ने पूरी कर दी।
भारत का वैश्विक स्तर पर अपमान करने की चेष्टा अमेरिका ने शुरु से की, लेकिन नेहरूजी से लेकर बाजपेयीजी और डा. मनमोहन सिंह तक सारे प्रधानमंत्रियों का रुतबा ऐसा था कि अमेरिका कोशिश ही करता रह गया, कभी कामयाब नहीं हुआ। अब डोनाल्ड ट्रंप एक तरफ युद्धविराम पर बार-बार अपना दावा ठोंक रहे हैं और अब अमेरिकी सेना की 250वीं वर्षगांठ के मौके पर पाकिस्तानी जनरल असीम मुनीर को खास न्यौता देकर ट्रंप ने भारत को नीचा दिखाने की चेष्टा की है। इधर कनाडा में होने जा रहे जी-7 को लेकर भी खुलासा हुआ है कि भारत को पहले इसमें आमंत्रित नहीं किया गया था, फिर प्रधानमंत्री मार्क कार्नी ने खुद फोन करके प्रधानमंत्री मोदी को आने का न्यौता दिया, लेकिन इससे पहले एक शर्त मनवा ली।
शर्त यह कि कनाडा के साथ कानून प्रवर्तन यानी लॉ इनफोर्समेंट में भारत सहयोग करेगा। नरेन्द्र मोदी ने इस बारे में कुछ नहीं कहा है, लेकिन प्रधानमंत्री कार्नी ने खुद इसकी जानकारी दी है। इसमें हरदीप सिंह निज्जर हत्याकांड का जिक्र खुल कर नहीं किया गया है। लेकिन ये समझना कठिन नहीं है कि कनाडा ने लॉ इनफोर्समेंट सहयोग की शर्त आखिर क्यों रखी। वह पहले भी भारत पर इस हत्या में भागीदार होने का इल्जाम लगा चुका है और दोनों देशों के बीच रिश्तों में खटास इसी मुद्दे के बाद बढ़ी थी। अब कनाडा अपनी शर्त मनवा कर भारत को न्यौता दे रहा है, इसका कैसा संदेश दुनिया में जाएगा, यह समझा जा सकता है। वैसे भी आखिर किसी समूह की बैठक में भागीदारी के लिए शर्त मानने की बात क्या उचित है, क्या यह भारत के सम्मान को ठेस पहुंचाना नहीं है, यह भी विचारणीय है।
विदेश नीति से लेकर घरेलू मसलों तक कई मुद्दों पर इस समय व्यापक चर्चा की जरूरत है। संसद का मानसून सत्र तो अगले महीने शुरु होगा, लेकिन विपक्ष पिछले एक महीने से पहलगाम हमले और आपरेशन सिंदूर को लेकर संसद के विशेष सत्र की मांग करता रह गया और सरकार ने उसकी बात नहीं सुनी। क्या सत्ता की मनमर्जी आपातकाल जैसी ही नहीं लगती है। संसद में बैठे विपक्षी सांसदों की बात सरकार नहीं सुनती, अपने आलोचक लेखकों-पत्रकारों-बुद्धिजीवियों पर तरह-तरह के अंकुश लगाए जाते हैं, किसानों की मांगें पूरी नहीं होतीं, विद्यार्थियों की तकलीफ सरकार नहीं समझ रही है, ये सब देश में अघोषित आपातकाल की तरह ही हैं। लेकिन सरकार इसे बहुमत का अधिकार समझ कर अपना शक्ति प्रदर्शन करने में लगी है। ऑपरेशन सिंदूर का राजनैतिक मकसद पूरा होता नहीं दिखा तो अब सरकार ने इसकी चर्चा थोड़ी कम कर ली है और साथ ही आपातकाल की 50वीं बरसी मनाने के लिए जो विशेष सत्र बुलाना था, उससे भी कदम पीछे खींचे गए, क्योंकि सत्र लगता तो फिर विपक्ष सरकार से वही सवाल पूछता जो महीने भर से पूछ रहा है। हालांकि अब एक और फैसले की जानकारी आई है कि देश के सभी जिलों में 25-26 जून को मॉक पार्लियामेंट यानी नकली संसद का आयोजन करेगी और छात्रों को आपातकाल की भयावहता के बारे में बताएगी कि किस तरह कांग्रेस ने उस समय सारी शक्ति अपने हाथ में करने की कोशिश की थी और यह लोकतंत्र पर कुठाराघात था।
भाजपा के इस फैसले में भले अपने राजनैतिक हित साधने का मकसद हो, लेकिन कहीं छात्रों ने 50 साल पहले के हालात और आज के सरकार के फैसलों की तुलना करनी शुरु कर दी, तब क्या सच्चाई की परतें नहीं खुलेंगी। मॉक पार्लियामेंट में भी दोनों पक्षों को अपनी बात रखने का मौका दिया जाता है, अगर विपक्ष में बैठे छात्रों ने सरकार से आज के मुद्दों पर सवाल करने शुरु कर दिए, तब भाजपा क्या करेगी, यह देखना दिलचस्प होगा।