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विदेश नीति में प्रधानमंत्री मोदी कि नाकामी के कुछ और उदाहरण ?

प्रधानमंत्री मोदी भारत की विदेश नीति और विदेशों में भारत की साख को बचाने में किस कदर नाकाम हो चुके हैं…..

प्रधानमंत्री मोदी भारत की विदेश नीति और विदेशों में भारत की साख को बचाने में किस कदर नाकाम हो चुके हैं, इसके कुछ और उदाहरण सामने आए हैं। एशियाई विकास बैंक या एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) ने पाकिस्तान के लिए 668 करोड़ रुपये के पैकेज को मंजूरी दी है। पाकिस्तान को ये रुपये राजकोषीय स्थिति को बेहतर करने और साार्वजनिक वित्तीय प्रबंधन में सुधार के लिए दिए जा रहे हैं। पाकिस्तान में एडीबी की डायरेक्टर एम्मा फैन ने कहा कि पाकिस्तान ने मैक्रोइकोनॉमिक परिस्थितियों में सुधार के मामले में महत्वपूर्ण प्रगति की है।

एडीबी का यह फैसला तब आया है जब दो दिन पहले ही प्रधानमंत्री मोदी ने एडीबी के अध्यक्ष मसातो कांडा से अपने आधिकारिक निवास पर मुलाकात की थी और इस बारे में सोशल मीडिया पर लिखा था कि- मसातो कांडा के साथ एक शानदार बैठक हुई, जिसमें हमने कई मुद्दों पर अपने विचार साझा किए। पिछले दशक में भारत के तेजी से हुए परिवर्तन ने अनगिनत लोगों को सशक्त बनाया है और हम इस यात्रा में और गति लाने के लिए काम कर रहे हैं। वहीं मसातो कांडा ने विकसित भारत 2047 के लक्ष्य को साहसिक बताते हुए लिखा था कि हम अगले पांच वर्षों में नगर निगम के इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास, मेट्रो नेटवर्क का विस्तार, नए रीजनल रैपिड ट्रांजिट सिस्टम कॉरिडोर बनाने और शहर की सेवाओं के आधुनिकीकरण में थर्ड पार्टी कैपिटल सहित 10 अरब डॉलर का निवेश करेंगे।

दो दिन पहले ऐसी खबरें देख कर भ्रम हो सकता था कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने हमारी बात नहीं सुनी, कम से कम एशियाई विकास बैंक भारत के साथ खड़ा रहेगा और पाकिस्तान को वित्तीय मदद नहीं देगा। लेकिन यहां फिर भारत की कूटनीति बुरी तरह नाकाम दिखी। श्री मोदी से मिलकर भले ही भारत में निवेश की बातें हुई हों, लेकिन इसके फौरन बाद पाकिस्तान को भी बड़ी मदद देकर एडीबी ने बता दिया कि उसका रवैया भी वही है जो पश्चिमी देशों और संस्थाओं का है। पिछले महीने वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने भी एडीबी अध्यक्ष मसातो कांडा से मुलाकात कर अपील की थी कि पाकिस्तान की मदद न की जाए, क्योंकि वह आतंकवाद का पोषण करता है। इसके अलावा भारत कोशिश कर रहा है कि फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स में पाकिस्तान का नाम ग्रे सूची में डलवाया जाए, इसके लिए यूरोपीय देशों को साथ लाने की कोशिश हो रही है। अब इसमें भारत कामयाब होता है या नहीं, ये कहा नहीं जा सकता। लेकिन पहले आईएमएफ और अब एडीबी के फैसलों ने भारत की कोशिश को झटका तो दे ही दिया है।

वहीं पाकिस्तान अब अमेरिका, रूस, चीन तमाम बड़ी शक्तियों का करीबी बनने की कोशिश में लगा है। अमेरिका और चीन तो पहले ही भारत के ऊपर पाकिस्तान को तवज्जो दे सकते हैं, अगर रूस में पाकिस्तान अपने लिए जगह बना लेता है, तब भारत की साख पर जो बट्टा लग सकता है, उसका अंदाज सरकार को कर लेना चाहिए। हालांकि मौजूदा रवैया देखकर लगता नहीं कि सरकार को कूटनीति या विदेश नीति की कोई परवाह है। पाठक जानते हैं कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप लगातार बयान दोहरा रहे हैं कि उन्होंने व्यापार की धमकी देकर युद्ध विराम करवाया है। लेकिन अब तक प्रधानमंत्री मोदी ने इस पर सीधे कोई खंडन नहीं किया है।

अपना पक्ष रखने के लिए जो प्रतिनिधिमंडल 33 देशों की यात्रा पर भेजे गए थे, उनके नतीजे भी कुछ खास नजर नहीं आ रहे। क्योंकि इसमें सरकार की मंशा ही साफ नहीं थी कि आखिर वह प्रतिनिधिमंडलों के जरिए क्या हासिल करना चाहती थी। अगर मकसद विदेशों से समर्थन हासिल करना था, तो फिर इन मंडलों के सदस्यों की मुलाकात हरेक देश में नीति निर्माताओं से होनी चाहिए थी, जहां उन्हें आश्वासन मिलता कि वे पाकिस्तान की जमीन से संचालित आतंकी गतिविधियों का विरोध करेंगे, लेकिन एकाध देश छोड़कर अधिकतर देशों में प्रतिनिधिमंडल में गए सदस्यों ने कहीं थिंक टैंक के लोगों से मुलाकात की या फिर पूर्व मंत्री, पूर्व राजनयिक, पूर्व अधिकारी के साथ बैठकें कीं। इसमें भी एक वीडियो सामने आया जब एक प्रतिनिधिमंडल की सदस्या रेखा शर्मा खाने की मेज़ पर गीत गाते दिखीं और बाकी लोग तालियां बजा रहे थे। इस पर सवाल भी उठे कि एक बड़े आतंकी हमले के बाद वैश्विक समर्थन हासिल करने यह दल गए हैं या जनता के पैसों पर विदेशों में पिकनिक मनाने।

इन्हीं रेखा शर्मा ने देश लौटकर एक समाचार चैनल से कहा कि हमारी सबसे बड़ी उपलब्धि यही थी कि जिन देशों में कांग्रेस कभी पहुंच नहीं पाई और जिन देशों में कांग्रेस का कभी स्वागत नहीं होता था, वो देश अब भारत की लीडरशिप की तरफ नेतृत्व के लिए देख रहे हैं। इस मूर्खतापूर्ण और सिरे से गलत बयान पर हंसा जाए या दुख मनाया जाए कि देश की संसद में ऐसे लोग पहुंच गए हैं, जिन्हें मोदीभक्ति तो खूब आती है, लेकिन राजनैतिक इतिहास का ज्ञान शून्य है। जिस प्रतिनिधिमंडल की सदस्या रेखा शर्मा थीं, वह सऊदी अरब, कुवैत, बहरीन और अल्जीरिया के दौरे पर गया था। और पूर्व प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह खुद इनमें से सऊदी अरब, कुवैत और बहरीन की यात्रा कर चुके हैं।

अब सवाल यह है कि क्या मोदी सरकार ने प्रतिनिधिमंडल इसलिए भेजे थे ताकि वापस लौटकर ये नरेन्द्र मोदी का गुणगान करें और कांग्रेस को कोसें। वैसे वाशिंगटन पोस्ट में एक खबर प्रकाशित हुई है, जिसमें बताया गया है कि मोदी सरकार को प्रतिनिधिमंडल भेजने का फैसला इसलिए लेना पड़ा क्योंकि कोई देश भारत के साथ खड़ा नहीं हुआ। ऐसी खबरों से क्या विदेशों में भारत की छवि सुधरेगी, ये सोचने वाली बात है। इधर विदेश नीति के मोर्चे पर एक बड़ा झटका और लगा है। कनाडा में हो रही जी-7 की बैठक में मोदी सरकार को न्यौता नहीं मिला।

2023 में तत्कालीन कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने कनाडा में रह रहे खालिस्तानी अलगाववादी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में भारतीय सरकारी एजेंटों की संभावित संलिप्तता का आरोप लगाया था, जिसे भारत ने फौरन ही खारिज कर दिया था। लेकिन इसके बाद दोनों देशों के राजनयिक संबंधों में जो खटास बढ़ी तो अब तक उसका असर दिखाई दे रहा है। जबकि इस बीच कनाडा में नए प्रधानमंत्री मार्क कार्नी ने पद संभाल लिया है और भारतीय मूल की अनीता आनंद विदेश मंत्री बनीं तो भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने उन्हें बधाई दी थी। यह भारत-कनाडा के बीच पहला आधिकारिक राजनीतिक संवाद था, लेकिन अब जी-7 के लिए भारत को आमंत्रित न कर कनाडा ने जाहिर कर दिया कि उसकी तरफ से तनाव जारी रहेगा। 2019 के बाद यह पहला मौका है जब भारत जी-7 की बैठक में शामिल नहीं होगा।

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