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भिंड में रेत माफिया की खबरों पर पत्रकारों कीभाजपा शाशनमें पिटाई,पत्रकरोने सुप्रीम कोर्ट में लजाई गुहार

सोशल मीडिया के इस दौर में पत्रकारिता का चेहरा तेजी से बदल रहा है। एक ओर जहां डिजिटल प्लेटफॉर्म ने खबरों को जन-जन तक पहुंचाने की ताकत दी है, वहीं दूसरी ओर फर्जी पत्रकारों और सनसनीखेज खबरों की बाढ़ ने इस पेशे की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। इसका सबसे बड़ा खामियाजा उन पत्रकारों को भुगतना पड़ रहा है, जो निष्पक्ष और साहसिक पत्रकारिता के जरिए समाज के सामने सच लाने की कोशिश करते हैं।

 

आज स्थिति यह है कि पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी हर पत्रकार को शक की नजर से देखते हैं और उन्हें डराने-धमकाने की

कोशिश करते हैं, यह सोचकर कि डर से वे उनके खिलाफ लिखना बंद कर देंगे। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है, जो सच को उजागर करने और सत्ता को जवाबदेह बनाने के लिए जरूरी है।

 

मध्य प्रदेश के भिंड जिले में रेत माफिया के खिलाफ साहसिक पत्रकारिता का परिणाम यह हुआ कि दो पत्रकारों को कथित तौर पर पुलिस की बर्बरता का शिकार होना पड़ा। अवैध रेत खनन की खबरें प्रकाशित करने के बाद इन पत्रकारों को भिंड के पुलिस अधीक्षक (SP) के कार्यालय में बुलाकर मारपीट और अपमान का सामना पड़ा। इतना ही नहीं, उनके खिलाफ झूठे मामले दर्ज करने की धमकी भी दी गई। इस उत्पीड़न से डरकर ये पत्रकार अपनी जान बचाने के लिए दिल्ली भागने को मजबूर हुए और अब उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर न्याय की गुहार लगाई है। यह मामला न केवल पत्रकारों की सुरक्षा और प्रेस की स्वतंत्रता पर सवाल खड़ा करता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि माफिया और पुलिस की मिलीभगत के खिलाफ सच बोलने की कीमत कितनी भारी हो सकती है।

भिंड में क्या हुआ: रेत माफिया की खबरों पर पत्रकारों की पिटाई मई 2025 में भिंड जिले के पत्रकार शशिकांत जट्टव (जो शशिकांत गोयल के नाम से भी जाने जाते हैं) और अमरकांत सिंह चौहान ने चंबल नदी के क्षेत्र में चल रहे अवैध रेत खनन की खुलासा किया। उनकी खबरों में दावा किया गया कि रेत माफिया स्थानीय पुलिस की शह पर इस गैरकानूनी धंधे को अंजाम दे रहा है। इन खबरों से नाराज भिंड के पुलिस अधीक्षक असीत यादव ने कथित तौर पर पत्रकारों को 1 मई को अपने कार्यालय में “चाय पर चर्चा” के बहाने बुलाया। लेकिन वहां चाय की जगह बर्बरता का नजारा था।

 

पत्रकारों का आरोप है कि एसपी कार्यालय में उनके साथ मारपीट की गई। शशिकांत जट्टव, जो अनुसूचित जाति (SC) समुदाय से हैं, ने दावा किया कि उनके साथ जातिगत अपमान भी किया गया। उन्हें चप्पलों से पीटा गया और अपमानित किया गया। याचिका के अनुसार, कई अन्य पत्रकार भी वहां मौजूद थे, जिन्हें निर्वस्त्र कर पीटा गया। इतना ही नहीं, पुलिस ने बाद में इन पत्रकारों को दोबारा बुलाकर जबरन एक वीडियो रिकॉर्ड करवाया, जिसमें उन्हें यह कहने के लिए मजबूर किया गया कि पुलिस के साथ उनका कोई विवाद नहीं है। पत्रकारों ने अपनी शिकायत भिंड के जिला कलेक्टर को दी, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। इसके बाद, अपनी जान को खतरा देखते हुए, शशिकांत और अमरकांत 19 मई को दिल्ली भाग गए। उन्होंने प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) में शिकायत दर्ज की। 28 मई को दिल्ली हाईकोर्ट ने अमरकांत सिंह चौहान को दो महीने की अंतरिम सुरक्षा प्रदान की और दिल्ली पुलिस को उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने का निर्देश दिया। लेकिन भिंड पुलिस से लगातार मिल रही धमकियों के कारण ये पत्रकार अब भी डरे हुए हैं और मध्य प्रदेश लौटने में असमर्थ हैं। सुप्रीम कोर्ट में याचिका, पत्रकारों की गुहार

सोमवार, 2 जून 2025 को शशिकांत जट्टव और अमरकांत सिंह चौहान ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर अपनी जान की सुरक्षा और भिंड पुलिस के खिलाफ कार्रवाई की मांग की। याचिका में पुलिस पर हिरासत में हिंसा, जातिगत अपमान और जान से मारने की धमकी देने का आरोप लगाया गया है। पत्रकारों ने दावा किया कि यह घटना उनके मौलिक अधिकारों, विशेष रूप से संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता), 15 (जातिगत भेदभाव पर रोक), 19 (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और 21 (जीवन का अधिकार) का उल्लंघन है। साथ ही, शशिकांत जट्टव ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत कार्रवाई की मांग की है। सुप्रीम कोर्ट की वेकेशन बेंच, जिसमें न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा शामिल थे, ने याचिका पर तत्काल सुनवाई के लिए सहमति जताई। हालांकि, सुनवाई के दौरान बेंच ने सवाल उठाया कि पत्रकारों ने मध्यप्रदेश हाईकोर्ट का रुख क्यों नहीं किया। न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा, “क्या हमें देशभर के अग्रिम जमानत के मामलों पर केवल इसलिए विचार करना चाहिए क्योंकि इसमें एक पत्रकार शामिल है?” पत्रकारों की ओर से पेश वकील ने जवाब दिया कि उनके मुवक्किलों की जान को गंभीर खतरा है और भिंड पुलिस द्वारा झूठे और मनगढ़ंत मामलों में गिरफ्तारी का डर बना हुआ है। वकील ने कहा, “यह बहुत गंभीर मामला है। पत्रकारों को पुलिस कार्यालय में पीटा गया। वे अब अपनी जान बचाने के लिए दिल्ली में शरण लिए हुए हैं। उनके पास मध्यप्रदेश हाईकोर्ट जाने के साधन नहीं हैं।” वकील ने यह भी बताया कि प्रेस क्लब ऑफ इंडिया ने इस घटना की कड़ी निंदा की है और पत्रकारों की सुरक्षा की मांग की है। बेंच ने वकील को चेतावनी दी कि सुप्रीम कोर्ट में सीधे याचिका दायर करना जोखिम भरा हो सकता है, लेकिन मामले की गंभीरता को देखते हुए इसे तत्काल सूचीबद्ध करने पर सहमति जताई। प्रेस की स्वतंत्रता पर सवाल यह घटना भारत में प्रेस की स्वतंत्रता और पत्रकारों की सुरक्षा पर गंभीर सवाल खड़े करती है। विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक (2024) में भारत 159वें स्थान पर है, जो पत्रकारों के लिए बढ़ते खतरों को दर्शाता है। भिंड का यह मामला उन कई घटनाओं में से एक है, जहां पत्रकारों को माफिया, भ्रष्ट अधिकारियों या सत्ता के दुरुपयोग का खुलासा करने की कीमत चुकानी पड़ती है। रेत माफिया मध्य प्रदेश में लंबे समय से एक गंभीर समस्या रही है। चंबल और नर्मदा नदियों के किनारे अवैध रेत खनन से न केवल पर्यावरण को नुकसान हो रहा है, बल्कि सरकारी खजाने को भी भारी चपत लग रही है। 2013-17 के बीच मध्य प्रदेश में अवैध खनन के मामलों में 106.4% की वृद्धि दर्ज की गई थी। पत्रकारों और RTI कार्यकर्ताओं ने बार-बार इस मुद्दे को उठाया है, लेकिन इसके बदले उन्हें धमकियां, हमले और कई मामलों में मौत का सामना करना पड़ा है। 2018 में भिंड के ही पत्रकार संदीप शर्मा की एक ट्रक से कुचलकर हत्या कर दी गई थी, जिन्होंने रेत माफिया के खिलाफ स्टिंग ऑपरेशन किया था। सोशल मीडिया और फर्जी पत्रकारिता का प्रभाव सोशल मीडिया ने पत्रकारिता को लोकतांत्रिक बनाया है, लेकिन इसके साथ ही फर्जी पत्रकारों की बाढ़ ने इस पेशे की साख को नुकसान पहुंचाया है। कई लोग बिना किसी पेशेवर प्रशिक्षण या नैतिकता के खुद को पत्रकार बताकर ब्लैकमेलिंग और सनसनीखेज खबरों का धंधा चला रहे हैं। इसका परिणाम यह है कि पुलिस और प्रशासन अब हर पत्रकार को शक की नजर से देखते हैं। भिंड के मामले में भी पुलिस ने दावा किया कि पत्रकारों ने गलत खबरें छापी थीं, लेकिन इसकी आड़ में हिंसा का सहारा लेना न केवल गैरकानूनी है, बल्कि प्रेस की स्वतंत्रता पर हमला है। प्रेस क्लब ऑफ इंडिया ने 3 मई को एक बयान जारी कर भिंड पुलिस की कार्रवाई की निंदा की थी। बयान में कहा गया, “पत्रकारों पर हमला प्रेस की स्वतंत्रता और लोकतंत्र पर हमला है। हम मध्यप्रदेश के डीजीपी से इस मामले की निष्पक्ष जांच और दोषी अधिकारियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग करते हैं।” साथ ही, प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया से एसपी कार्यालय और निवास के सीसीटीवी फुटेज को संरक्षित करने और इस मामले में हस्तक्षेप करने की अपील की गई। पत्रकारिता: लोकतंत्र का चौथा स्तंभ भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, जिसमें प्रेस की स्वतंत्रता भी शामिल है। सुप्रीम कोर्ट ने कई फैसलों, जैसे रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य (1950) और सकाल पेपर्स बनाम भारत संघ (1962) में स्पष्ट किया है कि प्रेस की स्वतंत्रता में न केवल प्रकाशन, बल्कि सूचना के प्रसार और विचारों को व्यक्त करने का अधिकार भी शामिल है। लेकिन इसके बावजूद, पत्रकारों पर हमले, धमकियां और फर्जी मुकदमे बढ़ रहे हैं। भिंड का यह मामला उन पत्रकारों के साहस को दर्शाता है, जो विपरीत परिस्थितियों में भी सच को सामने लाने की कोशिश करते हैं। लेकिन यह सवाल भी उठाता है कि जब पत्रकारों को अपनी जान बचाने के लिए देश की सर्वोच्च अदालत में गुहार लगानी पड़ रही है, तो क्या हमारा लोकतंत्र वाकई मजबूत है? पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, क्योंकि यह सत्ता को जवाबदेह बनाती है। लेकिन जब सत्ता ही इस स्तंभ को कमजोर करने की कोशिश करे, तो समाज को आगे आकर इसका समर्थन करना होगा। सामाजिक और राजनीतिक प्रतिक्रियाएं भिंड में पत्रकारों पर हमले की खबर ने सोशल मीडिया पर तीखी प्रतिक्रियाएं उभारी हैं। कई यूजर्स ने इसे “लोकतंत्र पर हमला” करार दिया है। एक यूजर ने ‘X’ पर लिखा, “भिंड में पत्रकारों की पिटाई माफिया-प्रशासन की मिलीभगत का खुला सबूत है। सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में सख्त कार्रवाई करनी चाहिए।” वहीं, कुछ लोगों ने मध्यप्रदेश सरकार पर सवाल उठाए कि वह रेत माफिया के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं कर रही। मध्यप्रदेश के विपक्षी नेता और कांग्रेस विधायक अजय सिंह ने इस घटना की निंदा करते हुए कहा, “भाजपा सरकार में रेत माफिया को खुली छूट मिली हुई है। पत्रकारों पर हमला करके सरकार सच को दबाना चाहती है।” दूसरी ओर, भिंड पुलिस ने इन आरोपों का खंडन किया है और दावा किया कि पत्रकारों ने “गलत और भ्रामक” खबरें छापी थीं। हालांकि, पुलिस ने अभी तक कोई ठोस सबूत पेश नहीं किया है। पत्रकारों की सुरक्षा के लिए जरूरी कदम यह घटना पत्रकारों की सुरक्षा और प्रेस की स्वतंत्रता के लिए ठोस कदम उठाने की जरूरत को रेखांकित करती है।

 

कुछ सुझाव निम्नलिखित हैं: विशेष कानून: पत्रकारों की सुरक्षा के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को महाराष्ट्र की तर्ज पर विशेष कानून बनाना चाहिए। तेज जांच: पत्रकारों पर हमले के मामलों की जांच के लिए स्वतंत्र समिति बनाई जाए, जो समयबद्ध तरीके से कार्रवाई करे। सीसीटीवी संरक्षण: पुलिस स्टेशनों और सरकारी कार्यालयों में सीसीटीवी फुटेज को अनिवार्य रूप से संरक्षित किया जाए। प्रेस काउंसिल की भूमिका: प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को पत्रकारों के खिलाफ हिंसा के मामलों में सक्रिय हस्तक्षेप करना चाहिए। सुरक्षा प्रशिक्षण: पत्रकारों को खतरनाक क्षेत्रों में काम करने के लिए सुरक्षा प्रशिक्षण और कानूनी जागरूकता प्रदान की जाए।

 

 

 

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