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देश के नए मुख्य न्यायाधीश पर न्यायपालिका की साख और देश के नागरिकों की उम्मीदों को जिंदा रखने की जिम्मेदारी

जस्टिस भूषण रामकृष्ण (बी आर) गवई ने देश के 52वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में बुधवार को शपथ ली

 

जस्टिस भूषण रामकृष्ण (बी आर) गवई ने देश के 52वें मुख्य न्यायाधीश के रूप में बुधवार को शपथ ली। उनके शपथ ग्रहण से पहले ही उनके निजी जीवन के अनसुने किस्से खबरों में आने लगे। सूचना विस्फोट के दौर में यही होता है कि किसी व्यक्ति पर सुर्खी बनाने से पहले उसके बारे में छोटी सी छोटी बात को भी खबरों में शामिल किया जाता है। इसी सिलसिले में बताया गया कि जस्टिस बीआर गवई बौद्ध धर्म को मानने वाले पहले और अनुसूचित जाति से आए दूसरे मुख्य न्यायाधीश हैं। उनकी नियुक्ति को ऐतिहासिक और प्रतीकात्मक दोनों बताया गया, क्योंकि यह न्यायपालिका द्वारा पोषित समावेशिता और संवैधानिक नैतिकता के मूल्यों की प्रतीक है। पहली नजर में इस बात में कुछ अटपटा नजर नहीं आता।

बल्कि सुखद गौरव वाली बात लगती है कि एक अनुसूचित जाति के व्यक्ति को देश की न्यायपालिका का शीर्ष स्थान मिला है। लेकिन थोड़ा गहराई से सोचें तो इसमें समाज का खोखलापन और संविधान के प्रति आस्था का दिखावा ही नजर आएगा। क्योंकि संविधान में मुख्य न्यायाधीश के पद पर आसीन होने के लिए जो योग्यताएं बताई गई हैं, उनमें कहीं भी जाति या धर्म का जिक्र नहीं है। मगर हम फिर भी इसे रेखांकित कर रहे हैं और इसे समावेशिता, संवैधानिक नैतिकता का प्रतीक बता रहे हैं, तो इसका मतलब यह है कि हमने संविधान का असली भाव ग्रहण ही नहीं किया है। अगर किया होता तो इस बात पर गौर ही नहीं किया जाता कि मुख्य न्यायाधीश की आसंदी पर बैठने वाला शख्स किस जाति और धर्म का है। जस्टिस गवई के बारे में चर्चा करना ही है तो उनके अब तक के किए गए फैसलों पर की जा सकती है। या उनके निजी जीवन का यह पहलू कि वे अमरावती में नगरपालिका के विद्यालय में प्रारंभिक शिक्षा हासिल करके इस मुकाम तक पहुंचे हैं। ऐसी बातें निस्संदेह प्रेरणा देती हैं।

जस्टिस बी आर गवई ऐसे समय में प्रधान न्यायाधीश बने हैं, जब देश में संसद बनाम सुप्रीम कोर्ट के वर्चस्व का अप्रिय विवाद खड़ा हुआ है। ऐसा नहीं है कि संसद और सुप्रीम कोर्ट में सर्वोच्चता को लेकर पहले बहस नहीं छिड़ी, लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि पिछले 11 सालों में न्यायपालिका को लेकर कई ऐसे विवाद खड़े हुए, जो इससे पहले कभी नहीं हुए। सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों ने आजादी के बाद के इतिहास में पहली बार प्रेस कांफ्रेंस कर अपनी व्यथा व्यक्त की। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सेवानिवृत्त होने के बाद राज्यसभा के सांसद बने। हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश ने संघ के प्रति अपना झुकाव दिखाया और गांधी या गोडसे में किसी एक को चुनने के सवाल पर सोचने का वक्त मांगा।

सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश ने राम मंदिर के फैसला देने से पहले देवी के सामने बैठकर चिंतन करने की बात कबूली। ऐसे कई वाकये एक के बाद एक हुए, जिनसे न्यायपालिका पर भी उंगली उठी और आम आदमी को इसमें अपना नुकसान नजर आया। क्योंकि अदालतों में मामले चाहे जितने लंबे खिंचे, चाहे कितनी बार तारीख पर तारीख वाला संवाद बोलकर अपनी मुश्किल जाहिर की जाए, लेकिन फिर भी देश के आम नागरिक का न्यायपालिका पर अटूट भरोसा था कि उसके रहते संविधान की रक्षा होगी और नागरिक हितों की भी। इंसाफ देर से ही सही लेकिन मिलेगा और सुप्रीम कोर्ट जो फैसला लेगा वह देशहित, जनहित और संविधान की कसौटी पर ही लेगा। लेकिन जब से न्यायपालिका को लेकर विवादास्पद खबरें आईं, लोगों का भरोसा कहीं न कहीं हिल गया।

ऐसे माहौल को भाजपा सांसद निशिकांत दुबे जैसे लोगों की बेतुकी टिप्पणियों ने और संगीन कर दिया, जब सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की कर्तव्यनिष्ठा पर ही सवाल उठाए गए। याद कीजिए कि वक्फ संशोधन अधिनियम पर दायर याचिकाओं पर जब जस्टिस संजीव खन्ना ने फैसला सुनाया तो भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने बयान दिया था कि ‘इस देश में जितने गृहयुद्ध हो रहे हैं, उसके ज़िम्मेदार केवल यहां के चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया संजीव खन्ना साहब हैं।’ इतनी बेहूदी टिप्पणी कभी किसी मुख्य न्यायाधीश पर नहीं हुई, लेकिन भाजपा ने अब तक इसके लिए अपने सांसद को कोई सजा नहीं दी है।

वक्फ संशोधन अधिनियम पर कम से कम एक दर्जन याचिकाएं दाखिल हुई हैं, जिन पर अभी सुनवाई होना और फैसला आना बाकी है, लेकिन इससे पहले जब सुनवाई हुई तो जस्टिस खन्ना ने केंद्र का जवाब आने तक आदेश दिया था कि कोई भी वक्फ संपत्ति गैर अधिसूचित नहीं की जाएगी, यानी यथास्थिति बहाल रहेगी। इसी पर भाजपा सांसद को शायद तकलीफ हो गई। वैसे पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस संजीव खन्ना का कार्यकाल महज छह महीनों का ही रहा, लेकिन इसमें उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण फैसले लिए। जैसे उपासना स्थल क़ानून में मंदिर मस्जिद विवाद के नए मामलों पर अंतरिम रोक का आदेश दिया था। संभल की मस्जिद समेत कई धार्मिक स्थलों पर विवाद पिछले दिनों खड़े हुए और हर आए दिन नए-नए मामले अदालत पहुंच रहे थे। ऐसे में अपने आदेश में जस्टिस खन्ना की अगुवाई वाली पीठ ने कहा कि जब तक पुराने मामलों की सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई पूरी नहीं होती तब तक कोई अदालत इन मुद्दों पर कोई क़दम नहीं उठा सकता और न ही कोई नए मामले दाख़िल कर सकता है। ऐसे फ़ैसले की मांग मुस्लिम पक्ष के साथ कई और लोग बहुत समय से कर रहे थे।

इसके अलावा संविधान की प्रस्तावना को बदलने की मांग वाली याचिकाएं जस्टिस खन्ना ने खारिज की थीं। उनके कार्यकाल में ही जस्टिस यशवंत वर्मा के घर अधजले नोटों के बरामद होने का मामला भी सामने आया। वहीं इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज शेखर यादव की मुसलमानों को लेकर कथित हेटस्पीच का मामला भी उठा। यानी राजनैतिक और धार्मिक विवादों के साथ-साथ न्यायपालिका के भीतर उठे विवाद भी जस्टिस खन्ना के कार्यकाल का हिस्सा बने। उन्हीं के कार्यकाल में अप्रैल में फैसला लिया गया कि सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों को अपनी संपत्ति की जानकारी भारत के चीफ़ जस्टिस को देनी होगी और यह जानकारी कोर्ट की वेबसाइट पर सार्वजनिक रूप से प्रकाशित की जाएगी। अब तक, सुप्रीम कोर्ट जज अपनी संपत्ति की जानकारी सिर्फ़ चीफ़ जस्टिस को सौंपते थे। उसे वेबसाइट पर डालना ज़रूरी नहीं था।

कहा जा सकता है कि अपनी तरफ से भरपूर पारदर्शिता जस्टिस खन्ना ने बरती और अपना संक्षिप्त कार्यकाल सफलतापूर्वक पूरा किया। सबसे अहम बात यह है कि उन्होंने ऐलान कर दिया था कि वे सेवानिवृत्ति के बाद कोई पद नहीं लेंगे। आज के वक्त में ऐसी घोषणाएं व्यक्ति के किरदार की ऊंचाई दिखा देती हैं। अब जस्टिस खन्ना के बाद मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई पर न्यायपालिका की साख और देश के नागरिकों की उम्मीदों को जिंदा रखने की जिम्मेदारी आई है।

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