मोदी-भाजपा को चिंता जनता का महागठबंधन के पक्ष में झुकाव – महाराष्ट्र के घटनाक्रम पर भी बेचैन भाजपा ?

लोकसभा चुनाव में अपने बूते 370 और अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर बने डेमोक्रेटिक नेशनल एलायंस के बल पर 400 सीटें जीतने का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी के 240 सीटों पर सिमटने के बाद उसकी सरकार तो बन गई और प्रधानमंत्री का पद फिर से नरेन्द्र मोदी पा गये हैं
लोकसभा चुनाव में अपने बूते 370 और अपने सहयोगी दलों के साथ मिलकर बने डेमोक्रेटिक नेशनल एलायंस के बल पर 400 सीटें जीतने का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी के 240 सीटों पर सिमटने के बाद उसकी सरकार तो बन गई और प्रधानमंत्री का पद फिर से नरेन्द्र मोदी पा गये हैं, लेकिन सच ये है कि तेलुगु देसम पार्टी तथा जनता दल यूनाइटेड के बल पर ही सरकार टिकी हुई है। राजनीतिक विश्लेषकों के ये अनुमान अब सच होते नज़र आ रहे हैं कि भाजपा में इस कमजोरी के खिलाफ असंतोष फूट सकता है। यह भी माना जा रहा था कि महाराष्ट्र में जल्दी नाराज़गी दिखाई दे सकती है। इसके प्रारम्भिक चिन्ह दिखलाई देने लगे हैं। खास बात यह है कि महाराष्ट्र में तीन महीनों में चुनाव होने जा रहे हैं।
महाराष्ट्र की बात करें तो लोकसभा के चुनाव परिणाम साफ बतलाते हैं कि लोगों को वहां चल रही उद्धव ठाकरे की अविभाजित शिवसेना, शरद पवार की अविभाजित राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी तथा कांग्रेस की गठबन्धन की सरकार को भाजपा द्वारा गिराना पसंद नहीं आया। याद हो कि भाजपा ने शिवसेना तथा एनसीपी को तोड़कर एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में सरकार बनाई थी। सरकार के इशारे पर केन्द्रीय निर्वाचन आयोग ने उनके चुनाव चिन्ह भी छीनकर टूटे हुए धड़ों को आवंटित कर दिये थे। इन सबका खामियाजा लोकसभा चुनाव में देखने को मिला। वहां कांग्रेस सबसे ज्यादा सीटें पाकर पहले क्रमांक का दल बन गया, तो वहीं भाजपा को जबरदस्त नुकसान हुआ। शिवसेना के उद्धव ठाकरे गुट को भी अच्छी सफलता मिली। माना जाता है कि राहुल गांधी की दो यात्राओं, खासकर दूसरी ने (जिसे ‘न्याय यात्रा’ नाम दिया गया था) लोगों पर अच्छा असर डाला था। इसकी समाप्ति मुम्बई में ही हुई थी। समापन अवसर पर तीनों सहयोगी दलों की शिवाजी पार्क में हुई विशाल संयुक्त रैली ने संकेत दे दिये थे कि हवा का रुख किधर है। चूंकि तीनों दल एकजुट रहे तो उसका परिणाम वही रहा जो कि अनुमानित था। लोकसभा के चुनाव परिणाम बतलाते हैं कि जनता एकनाथ शिंदे की नहीं उद्धव की शिवसेना को असली मानती है। वैसे ही उनका भरोसा अजित पवार की एनसीपी में नहीं बल्कि उनके चाचा शरद पवार की एनसीपी में है।
उसी महाराष्ट्र में अब चुनाव नज़दीक हैं और कुछ ऐसे घटनाक्रम हो रहे हैं जिसे लेकर भाजपा के साथ ही एनडीए के घटक दलों का परेशान होना स्वाभाविक है। सोमवार को शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती उद्धव ठाकरे के निवास मातोश्री पहुंचे, जहां उन्होंने कहा कि वे फिर से उद्धव ठाकरे को ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर देखना चाहते हैं। शंकराचार्य ने साफ कहा कि उद्धव ठाकरे के साथ छल हुआ है। इस दौरान दिल्ली में बन रहे केदारनाथ धाम के प्रतीकात्मक मंदिर निर्माण पर भी उन्होंने नाराजगी जताई और केदारनाथ धाम ट्रस्ट और उत्तराखंड सरकार से सवाल किया है कि आखिर केदारनाथ धाम के नाम से राजधानी दिल्ली में मंदिर बनाने की जरूरत क्यों पड़ी? शंकराचार्य ने केदारनाथ धाम से चोरी कर लिए गए सोने की पड़ताल की मांग भी की है। हाल ही में आम चुनावों में हिंदुत्व पर राजनीति करने का नुकसान भाजपा ने भुगता है, ऐसे में शंकराचार्य के इन बयानों से भाजपा के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं।
वहीं अब विधानसभा चुनावों से पहले सत्तारुढ़ महायुति के कमजोर होने और विपक्षी महागठबंधन के मजबूत होने की भी खबरें हैं। महाराष्ट्र की सभी 288 विधानसभा सीटों पर सकाल मीडिया के सर्वे के मुताबिक 48.7 प्रतिशत जनता ने महाविकास अघाडी के पक्ष में अपना मत रखा है, जबकि 33.1 प्रतिशत लोग महायुति यानी भाजपा-शिंदे गठबंधन के पक्ष में दिखे हैं और 4.9 प्रतिशत लोगों ने किसी के भी प्रति अपना मत नहीं रखा।
जनता का यह झुकाव बता रहा है कि इस बार महागठबंधन के पक्ष में माहौल बन रहा है और इसका नुकसान कहीं न कहीं भाजपा को होता दिख रहा है। वहीं सोमवार को शरद पवार के साथ अजित पवार गुट के छगन भुजबल ने मुलाकात की। उन्होंने इसका उद्देश्य राज्य में अन्य पिछड़ा वर्गों एवं मराठाओं के बीच आरक्षण को लेकर हो रहे संघर्ष पर चर्चा करना बतलाया। उल्लेखनीय है कि एक दिन पहले ही भुजबल ने आरोप लगाया था कि मराठा आंदोलन के पीछे शरद पवार का हाथ है। भुजबल के अनुसार ‘वे एक विधायक की हैसियत से गये थे क्योंकि वे शांति चाहते हैं।
मराठा ओबीसी की दुकानों से सामान तक नहीं ले रहे हैं।’ उनका दावा था कि ‘ज़रूरत हुई तो वे पीएम मोदी और राहुल गांधी से भी मिलेंगे।’ लेकिन इस मुलाकात के कुछ और अर्थ निकाले जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि लोकसभा चुनावों के जो नतीजे निकले हैं उससे सरकार में शामिल शिवसेना (शिंदे) और एनसीपी (अजित) में खलबली है। इसके विधायकों को अपना भविष्य खतरे में दिखाई देने लगा है। कहा तो यह भी जाता है कि इन दोनों गुटों के कुछ लोग अपने-अपने दलों के मूल नेताओं (उद्धव-शरद) से सम्पर्क में हैं। कई बार तो यह भी बात उठी थी कि लोकसभा चुनाव के पहले यदि फिर से राज्य सरकार में बदलाव हो जाये तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये। वैसे हाल में हुए विधान परिषद के चुनावों में 11 सीटों की गुंजाइश के रहते उद्धव ठाकरे ने अपने 12वें उम्मीदवार मिलिंद नार्वेकर को जिता दिया तो माना जा रहा है कि उनका प्रभाव बना हुआ है। हालांकि इससे नुकसान शरद पवार की एनसीपी को हुआ है। कांग्रेस के कुछ विधायकों द्वारा क्रॉस वोटिंग करने की भी पड़ताल राज्य हाईकमान कर रहा है।
उधर उत्तर प्रदेश में रविवार को हुई समीक्षा बैठक में पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने अपने कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने के लिये वही पुराना फार्मूला अपनाया, जिसमें उन्होंने महंगाई व बेरोजगारी के बाबत कथित रूप से झूठ बोलने के लिये ‘भाई-बहन’ (राहुल-प्रियंका गांधी) की निंदा की। साफ है कि नड्डा को राजनीतिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण राज्य में मिली नाकामी को छिपाने में दिक्कत हो रही है। देखना होगा कि भाजपा की बेचैनी केवल उपचुनावों वाले राज्य उप्र में देखने को मिलेगी या झारखंड, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, बिहार आदि में भी जहां आगे-पीछे (2024 व 25 में) चुनाव होंगे।