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एक देश एक चुनाव मोदी शाशनमें तानाशाही की ओर एक और बड़ा कदम ?

लम्बे समय से जिस ‘एक देश एक चुनाव’ की बात हो रही थी, तत्सम्बन्धी विधेयक अंतत: मंगलवार को लोकसभा में पेश कर ही दिये गये

 

लम्बे समय से जिस ‘एक देश एक चुनाव’ की बात हो रही थी, तत्सम्बन्धी विधेयक अंतत: मंगलवार को लोकसभा में पेश कर ही दिये गये। केन्द्रीय संसदीय कार्य मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने देश भर में लोकसभा व विधानसभा चुनाव एक साथ कराने (संशोधन क्रमांक 129) तथा संघ प्रदेशों से सम्बन्धित प्रावधान वाले विधेयकों को प्रस्तुत किया। इस पर मत विभाजन होने के कारण इस पर वोटिंग कराई गई। पक्ष में 269 और विपक्ष में 198 मत पड़े। इसके बाद इसे पुर्नस्थापित करने के उद्देश्य से संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के पास भेजा गया। वैसे इस प्रस्ताव पर बोलते हुए केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि कैबिनेट में जब यह प्रस्ताव लाया गया था तभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि इसे जेपीसी को भेजा जाना चाहिये।

याद हो कि इस आशय का प्रस्ताव लाना पहले से ही केन्द्र की भारतीय जनता पार्टी की मंशा रही है जिसके लिये उसने इसी लोकसभा चुनाव के पहले पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में 2 सितम्बर, 2023 को एक समिति बनाई थी। लगभग 7 माह बाद उसके द्वारा पेश की गयी रिपोर्ट में इस आशय की अनुशंसा की थी। समिति ने दो चरणों में ये चुनाव कराने की सिफारिश की है। पहले चरण में लोकसभा व विधानसभा-संघ प्रदेश के चुनाव हों और दूसरे चरण में नगरीय निकायों के। दूसरे चरण के मतदान पहले चरण का चुनाव सम्पन्न हो जाने के 100 दिनों के भीतर हो जाने चाहिये। समिति ने इसे 2029 या 2034 तक लागू करना सम्भव बतलाया है।

129वें संशोधन के रूप में ये बिल लाये गये हैं। जैसा कि अनुमान था, इन विधेयकों का विपक्ष की ओर से पुरजोर विरोध किया गया। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने इस प्रस्ताव को संविधान के मूल ढांचे पर हमला और देश को तानाशाही की ओर ले जाने वाला कदम बताया। कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी ने कहा कि यह बिल सरकार को वापस ले लेना चाहिये। कांग्रेस तथा अन्य विपक्षी दलों ने मांग की कि बिल को जेपीसी के पास भेजा जाये। वैसे तो इस प्रस्ताव को पारित कराना सत्तारुढ़ दल के लिये आसान नहीं है क्योंकि इसके लिये उसे दो तिहाई का बहुमत चाहिये जो उसके पास नहीं है।

मतदान में जब तक 50 फीसदी से ज्यादा वोट पक्ष में नहीं पड़ते, इसे कानून नहीं बनाया जा सकता। 543 सीटों वाली भाजपा प्रणीत नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस के पास कुल 292 सदस्य हैं जबकि दो तिहाई का आंकड़ा 362 का होता है। राज्यसभा में भाजपा-एनडीए की 112 सीटें हैं तथा उसे 6 मनोनीत सांसदों का समर्थन है। यहां विपक्ष की 85 सीटें हैं। इस उच्च सदन में दो तिहाई का आंकड़ा 164 का होता है।

उल्लेखनीय है कि जब रामनाथ कोविंद समिति ने इस पर राजनीतिक दलों की राय मांगी थी तो 32 प्रमुख राजनीतिक दलों ने इसका समर्थन किया था और 15 ने विरोध। जिन दलों ने विरोध किया था उनके लोकसभा मे 205 सदस्य हैं। इसका अर्थ यह है कि विपक्षी दलों के बिना ये विधेयक कानून का रूप नहीं ले सकते। इसलिये सरकार की कोशिश है कि दोनों प्रस्तावों पर आम राय बनाई जाये, जिसकी सम्भावना बहुत कम है। बीजू जनता दल का कहना है कि इस पर विस्तृत चर्चा होनी चाहिये। जहां तक जेपीसी की बात है तो उसका अध्यक्ष और बहुमत दोनों ही भाजपा का होगा। ऐसे में विरोधी दलों की आवाज़ को वैसा ही नज़रंदाज़ कर दिया जायेगा जिस प्रकार से अनेक समितियों में होता आया है।

वैसे तो जिन कारणों से एक साथ चुनाव कराये जाने की सिफारिश की गयी है उनमें से प्रमुख है बार-बार होने वाले चुनावों पर समय और खर्च को बचाना। संसाधनों की बचत, काले धन पर लगाम आदि जैसे इसके अन्य फायदे बतलाये गये थे। बार-बार होने वाले चुनावों से विकास कार्य अवरूद्ध होने की भी बात कही गयी थी। दूसरी तरफ कहा गया कि इसके चलते वोटिंग पैटर्न पर असर पड़ेगा क्योंकि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव अलग-अलग मुद्दों पर लड़े जाते हैं। लोकसभा की छाया में चुनाव होता है तो स्थानीय मुद्दे दब जायेंगे जिसका सबसे बड़ा नुकसान क्षेत्रीय दलों को होगा। इसके अलावा छोटी पार्टियों को दोनों चुनावों के लिये पर्याप्त संसाधन जुटाने मुश्किल होंगे। फिलहाल दो चुनावों के बीच अंतराल होने से क्षेत्रीय दल चरणों में संसाधनों की व्यवस्था कर सकते हैं। हालांकि सरकार इससे पैसे बचाने की बात करती है लेकिन उसका भी खर्च बढ़ेगा क्योंकि उसे अधिक ईवीएम की ज़रूरत पड़ेगी तथा ज्यादा कर्मचारी-अधिकारी लगाने होंगे। फिलहाल एक मतदाता जितना समय वोट करने में लगाता है उसे दोगुना समय लगेगा। यह भी सोचना होगा कि एक दिन में कैसे दोगुने वोट डाले जा सकेंगे।

वैसे यह माना जा रहा है कि यह कानून भाजपा अपने लाभ के लिये ला रही है। वह देश क्या दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है जिसके पास न पैसों की कमी है और न ही कार्यकर्ताओं की। केन्द्र के साथ अनेक राज्यों में उसी की सरकारें हैं। उसने पहले से ही इलेक्टोरल बॉंड्स और अन्य तरीकों से धन इकठ्ठा कर रखा है। भाजपा ने चुनावी प्रचार अभियानों को पहले से ही बेहद खर्चीला कर दिया है जिसका मुकाबला अन्य दलों के लिये करना अभी ही मुश्किल है। फिर, भाजपा अपने विरोधियों को कैसे संसाधन विहीन करती है, वह इसी लोकसभा चुनावों के दौरान सभी ने देखा है। उसने ऐन चुनाव के पहले कांग्रेस के खातों को आयकर विभाग के जरिये सील करा दिया था। एक देश एक चुनाव अपना वर्चस्व बनाने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। अभी ही जब केन्द्रीय निर्वाचन आयोग छोटे-छोटे राज्यों के चुनाव एक साथ नहीं करा पाता तो कैसे उम्मीद की जाये कि वह देश के सारे राज्यों की विधानसभाओं व संघ प्रदेशों के चुनाव लोकसभा के साथ करा सकेगा। निष्पक्षता और पारदर्शिता की बात तो बाद में आयेगी। यह एक देश एक चुनाव नहीं वरन तानाशाही की ओर एक बड़ा कदम है।

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