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राजद के साथ जाएंगे नीतीश या बीजेपी छोड़ेगी ‘हिंदुत्‍व कार्ड’ या फिर छलावा कर रहे नीतीश कुमार?

Nitish Kumar: लोकसभा चुनाव से पहले ही नीतीश कुमार ने बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए का दामन थामकर बिहार के महागठबंधन को जोर का झटका दे दिया था. उसके बाद नीतीश कुमार ने कई मौकों पर इस बात को दोहराया है कि वह अब कभी एनडीए का साथ नहीं छोड़ेंगे.

राजद को छोड़कर बीजेपी के साथ मौजूदा सरकार बनाने के करीब नौ महीने बाद नीतीश कुमार ने बिहार में पहली बार एनडीए की बैठक की. 28 अक्‍तूबर को हुई यह बैठक वैसे तो घोषित तौर पर 2025 के विधानसभा चुनाव से संबंधित बातचीत के लिए बुलाई गई थी, लेकिन यह कई मायनों में खास है और कई सवाल भी पैदा करता है. खास इसलिए, क्‍योंकि अभी उपचुनाव चल रहे हैं और अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं. इस विधानसभा चुनाव में प्रशांत किशोर की जन सुराज चुनौती देने के लिए कमर कस कर उतर गई है. वहीं, भाजपा हिंदुत्‍व के एजेंडे को धार देने में लग गई है.

इस बैठक से सवाल भी उठ रहे हैं. इसलिए कि जदयू का कहना है कि वह ‘सांप्रदायिक सौहार्द’ से समझौता नहीं करेगी, चाहे एनडीए को मुस्लिम वोट मिले या न मिले. जदयू का यह कहना अपने आप में विरोधाभास है, क्‍योंकि भाजपा अभी से संकेत दे रही है कि वह कट्टर हिंदुत्‍व को हवा देगी.

भाजपा के सांसद और केंद्रीय मंत्री गिरि‍राज सिंह ने हाल ही में बिहार में हिंदू स्‍वाभि‍मान यात्रा निकाली. इसमें उन्‍होंने हिंदुओं से साफ कहा, ‘बंटेंगे तो कटेंगे’. हालांकि, गिरिराज सिंह भी नीतीश द्वारा बुलाई एनडीए की बैठक में मौजूद थे, लेकिन बताया जाता है कि उन्‍होंने बैठक में ऐसा कुछ कहा नहीं जो जदयू के ‘सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने’ के स्‍टैंड के खिलाफ जाता हो. वैसे, बैठक में ऐसा कुछ कहने की जरूरत भी नहीं थी.

पड़ोसी राज्‍य झारखंड में अभी चुनाव चल रहे हैं. वहां भी भाजपा हिंदू/आदिवासी ध्रुवीकरण की कोशिश कर रही है. इसी कोशिश के तहत राज्‍य में ‘मुस्‍लिमों के बहुसंख्‍यक हो जाने का खतरा’ बताया जा रहा है.

हिंदुओं के लिए संदेश के रूप में ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ का नारा उत्‍तर प्रदेश के मुख्‍यमंत्री योगी आदित्‍य नाथ की ओर से सबसे पहले दिया गया. हिंदुओं की एकता का संदर्भ देते हुए इस पर राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ (आरएसएस) भी मुहर लगा चुका है. गिरिराज सिंह इस संदेश को बिहार में फैला रहे हैं. बिहार में पिछले चुनावों में भी भाजपा की ओर से हिंदू ध्रुवीकरण के प्रयास किए ही गए हैं. मतलब, भाजपा की ओर से ‘हिंदुत्‍व कार्ड’ छोड़ने का कोई संकेत नहीं है. फिर भी जदयू का यह कहना कि ‘सांप्रदायिक सौहार्द’ से समझौता नहीं करेंगे, अहम है.

यदि जदयू अपने इस ‘स्‍टैंड’ पर सख्‍त रहती है तो भाजपा का साथ निभा पाना मुश्किल होगा. अगर साथ रहती है तो इस स्‍टैंड पर कायम रहना मुश्किल होगा. तो क्‍या चुनाव से पहले नीतीश फिर पाला बदलेंगे? इसकी संभावना कम है, क्‍योंकि अगर इस बार उन्‍होंने पाला बदला तो जदयू की चुनावी संभावनाओं के लिहाज से यह शायद ही फायदेमंद हो. वैसे भी, वह जहां भी मौका मिलता है यह कहने से नहीं चूकते कि दो बार पाला बदल लिया, अब यह गलती नहीं करूंगा.

नीतीश ने 2013 में पहली बार एनडीए का साथ छोड़ा था. 2017 में उन्‍होंने राजद से गठबंधन किया और उसी साल एनडीए में फिर लौट गए थे. 2022 में वह फिर राजद के साथ गए और इस साल एक बार फिर एनडीए के खेमे में चले गए थे. इस तरह नीतीश बिहार में सबसे लंबे समय तक मुख्‍यमंत्री रहने वाले नेता बन गए हैं. बहरहाल, नीतीश जब पाला नहीं बदलेंगे तो क्‍या उनके कहने से भाजपा ‘हिंदू ध्रुवीकरण’ की अपनी नीति छोड़ देगी? ऐसा भी होने के आसार नहीं हैं.

फिर, जदयू के ‘सांप्रदायिक सदभाव’ वाले स्‍टैंड का क्‍या मतलब है? मतलब है नीतीश कुमार की अपनी छवि से. वह नहीं चाहते कि उनकी छवि ‘सांप्रदायिक सौहार्द’ के खिलाफ जाए. शायद यही वजह रही कि जदयू ने गिरिराज सिंह की ‘हिंदू स्‍वाभि‍मान यात्रा’ का पुरजोर विरोध किया था. इसके बाद भाजपा को भी ऊपर-ऊपर यात्रा से पल्‍ला झाड़ना पड़ा था. हालांकि, गिरिराज को पार्टी के कई नेताओं ने खुल कर साथ दिया था और उनके साथ मंच भी साझा किया था.

उम्र और सेहत को देखते हुए नीतीश के लिए 2025 का विधानसभा चुनाव संभवत: आखिरी हो. ऐसे में वह नहीं चाहेंगे कि उनकी अंतिम पारी दागदार छवि के साथ बीते. 2013 में उन्‍होंने नरेंद्र मोदी को भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उम्‍मीदवार बनाए जाने के विरोध में जब एनडीए छोड़ा था तब उन्‍होंने यही संदेश दिया था कि वह सांप्रदायिक सौहार्द के बड़े पैरोकार हैं. लेकिन, जब मोदी प्रधानमंत्री बन गए और बीजेपी के सबसे कद्दावर नेता बन कर उभरे तो नीतीश ने मन बदल लिया था. एक समय तो नरेंद्र मोदी के प्रति उन्‍होंने सार्वजनिक रूप से ऐसा आदर दिखाया कि उनके पैर छूने की कोशिश करते दिखे. ऐसे में जदयू का यह कहना कि ‘सांप्रदायिक सौहार्द से समझौता नहीं’ छलावा से अधिक कुछ नहीं लगता है.

2025 का चुनाव नीतीश के लिए कुछ मायनों में खास होगा. पहली बार प्रशांत किशोर की जन सुराज की चुनौती सामने होगी. किशोर के निशाने पर मुख्‍य रूप से नीतीश कुमार ही होंगे, क्‍योंकि नीतीश से उनकी राजनीतिक अदावत स्‍वाभाविक है. नीतीश ने उन्‍हें पार्टी में बुलाया, उपाध्‍यक्ष का पद भी दिया, लेकिन दोनों की बन नहीं पाई. अप्र‍िय स्थिति में किशोर जदयू से अलग हुए. ऐसे में अगर प्रशांत किशोर अपने मकसद में कामयाब हुए तो यह नीतीश के लिए केवल हार नहीं, बल्कि उनकी राजनीतिक प्रभुता का अंत भी साबित हो सकता है.

पिछले दो चुनावों से जदयू का वोट प्रतिशत कम हो रहा है. 2020 के चुनावों के परिणाम नीतीश को डराने वाले ही हैं. तब उनकी जदयू को मात्र 43 सीटें मिली थीं. 2025 में वह 2010 वाला परिणाम दोहराना चाहते हैं. तब जदयू-बीजेपी गठबंधन के पास 243 सदस्‍यीय विधानसभा में 206 सीटें थीं. लोकसभा चुनाव 2024 में एनडीए 177 सीटों पर आगे थी. लेकिन, विधानसभा चुनाव की स्‍थ‍िति का अंदाज इसके आधार पर नहीं लगाया जा सकता.

नीतीश के लिए एक अच्‍छी बात यह है कि आज भाजपा उन्‍हें अलग करके आगे बढ़ने का राजनीतिक जोखिम उठाने की स्थिति में नहीं है. हालांकि, भाजपा के कई नेता कह चुके हैं कि वे चाहते हैं कि अब बिहार में भाजपा अपने दम पर सरकार बनाने की स्थिति में आए. इस मजबूरी के बावजूद क्‍या ‘सांप्रदायिक सौहार्द से समझौता नहीं’ के स्‍टैंड पर भाजपा खामोश रहेगी?

 

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