मायावती पार्टी को मजबूत कर रहीं या है कोई मजबूरी? BSP वह करने जा रही, जो यदा-कदा ही करती है

बीएसपी उत्तर प्रदेश की 10 विधान सभा सीटों पर उपचुनाव लड़ने जा रही है. राज्य में कांग्रेस भी लगातार दलितों के मसले उठा रही है. ऐसे में एसपी कांग्रेस अलग-अलग लड़ें या मिल कर, दोनों स्थितियों में मजबूत बीएसपी का नुकसान इन्ही दलों को होने की संभावना अधिक है.
बहुजन समाज पार्टी अपनी पुरानी रिवायत छोड़ यूपी की दसों सीट पर उपचुनाव लड़ने जा रही है. पार्टी उपचुनाव नहीं लड़ती रही. कुछ मौके अपवाद हैं. कांसीराम के वक्त से ही ये परंपरा कायम थी. मायवती ने भी इसे निभाया. इस बार बीएसपी राज्य की सभी दस सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार रही हैं. मैदान में बीएसपी के उतरने से समाजवादी पार्टी और कांग्रेस नेताओं के माथे पर बल पड़ना लाजिमी है. गौर करने वाली बात ये है कि कांग्रेस जातिगत जनगणना और ‘कोटा विदइन कोटा’ जैसे मुद्दे उठा रही है. इन पर आवाज मुखर करके वो दलित वोटरों को रिझाने की कोशिश में लगी है. बीते लोकसभा चुनाव में एसपी और कांग्रेस की बढ़ी ताकत में दलित वोटरों की हिस्सेदारी अहम रही है. अगर बीएसपी जोर लगा कर अपने कोर वोट बैंक को रोक लेती है तो इसका नुकसान एसपी और कांग्रेस को उठाना पड़ सकता है.
आकाश को भी सक्रिय किया गया
पूर्व मुख्यमंत्री मायावती हाल में पांच साल के लिए पार्टी की अध्यक्ष चुनी गई हैं. साथ ही उन्होंने अपने भतीजे आकाश को फिर से पार्टी में ओहदा और अख्तियार दे दिए हैं. आकाश वही हैं जिन्होंने लोकसभा चुनाव के दौरान आक्रामक तरीके से चुनाव प्रचार करना शुरु कर दिया था. बीच में ही मायावती ने उन्हें ओहदे से हटा कर प्रचार से अलग कर दिया था. फिर से आकाश को सक्रिय करने का मतलब भी साफ है कि अब वे अपने कोर वोटर को हर तरह से एकजुट करने में लगेंगे. यानी अपने वोट बैंक को बीएसपी समेटने की कोशिश करेगी.
वोट शेयर तिहाई तक गिरा
उत्तर प्रदेश में साल 2007 से 2012 के दौरान बीएसपी बहुमत वाली सरकार चला चुकी है. ये वो वक्त था जब बीएसपी राज्य विधान सभा सीटों के हिसाब से नंबर एक पार्टी हुआ करती थी. दौर बदलने के साथ बीएसपी चौथे पांचवे पायदान पर खड़ी है. उसका वोट शेयर गिर कर 30 से 12.5-13 तक गिर चुका है. ऐसे में फिर से पार्टी अगर अपने को तैयार करती है तो दलित वर्ग के उसके कोर वोटर पार्टी में एकजुट हो सकते हैं. खुद मायावती ने अपने वोटरों को समझाना शुरु कर दिया है कि आज दलितों की बात करने वाली कांग्रेस पार्टी को दलितों-पिछड़ों की याद उस समय क्यों नहीं आई जब वो सत्ता में थी.
एसपी-कांग्रेस को मिले थे दलित वोट
कांग्रेस ने बीते लोकसभा चुनाव में संविधान बदल कर आरक्षण खत्म करने वाले नैरेटिव को खूब भुनाया. ये सोच नीचे तक पहुंची भी. राज्य में बीजेपी की सीटें कम होने के बहुत से कारणों में एक अहम वजह ये भी है. अपना जातीय और आरक्षण बचाए रखने के नाम पर बहुत सारा दलित वोट एसपी-कांग्रेस गठबंधन की झोली में गिरा. इसका फायदा दोनो पार्टियों को मिला.
आजमगढ़ उपचुनाव धर्मेद्र की हार का कारण
इससे पहले समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश के इस्तीफे से खाली हुई आजमगढ़ सीट पर 2022 में बीएसपी ने अपना प्रत्याशी उतारा था. इस चुनाव में बीएसपी प्रत्याशी गुड्डू जमाली खुद तो नहीं जीत सके लेकिन समाजवादी पार्टी उम्मीदवार और अखिलेश के चचेरे भाई धर्मेंद्र हार जरूर गए. गुड्डू जमाली को ढाई लाख से ज्यादा वोट मिले थे. जीतने वाले निरहुआ की लीड महज 8-10 वोटों की थी. यानी मुस्लिम और दलित वोटों के मिलने से बीजेपी को फायदा हुआ था.
“बीजेपी नहीं, एसपी से ही लड़ाई”
हालांकि पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक रतनमणि लाल कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि मायावती का मकसद बीजेपी को फायदा पहुंचाना है. उनका कहना है कि वैसे तो मायावती के सिवाय कोई बीएसपी की ओर से आधिकारिक तौर पर बयान देता नहीं है, लेकिन पार्टी कार्यकर्ताओं से बातचीत से पता चला है कि पार्टी अब खुद को रिवाइव करना चाहती है. उनका कहना है कि उत्तर प्रदेश में बीएसपी के लिए पहली दुश्मन समाजवादी पार्टी है. वे कहते हैं -” वर्तमान में वोट शेयर में पिछड़ चुकी कोई पार्टी एक साथ कई विरोधी दलों से लड़ कर अपना पुराना आधार हासिल नहीं कर सकती. उस एक-एक कर अपने विरोधियों से लड़ना होगा. बीएसपी यही कर रही है.”
रतनमणि लाल ये भी कहते हैं कि हाल के दौर में कई मौकों पर मायावती ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कुछ बयानों की तारीफ भी की है. दरअसल, उनके लिए बीजेपी उतना नजदीकी कांप्टीशन नहीं है, जितना एसपी. वे दावा करते हैं कि आखिर बीएसपी के वोट बैंक पर पिछड़े दलित के जरिए समाजवादी पार्टी ही कब्जा कर रही है.
पहले बीएसपी के उपचुनाव न लड़ने के सवाल पर वे कहते हैं कि ये सही है कि पहले बीएसपी कहती थी कि वो उपचुनाव में अपने कार्यकर्ताओं और रीसोर्सेज को व्यर्थ में नहीं लगाना चाहती थी. लिहाजा उपचुनाव की जगह आम चुनाव ही लड़ती थी. लेकिन ये तर्क तब ठीक था, जब बीएसपी एक बड़ी पार्टी थी. अब बीएसपी की जो स्थिति है उसके लिए ये दलील ठीक नहीं लगती. वे ये भी कहते हैं कि पार्टी के युवा कार्यकर्ताओं को भी लगने लगा था कि ज्यादा से ज्यादा चुनाव लड़ कर ही राजनीति में स्थिति मजबूत बनाई जा सकती है.