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पुराने ढर्रे पर मोदीजी -भाजपा

18वीं लोकसभा के नये-नवेले सत्र का अवसान हो गया है। लोकसभा का 2 जुलाई तथा राज्यसभा का बुधवार को अनिश्चित काल के लिये सत्रावसान हो गया

18वीं लोकसभा के नये-नवेले सत्र का अवसान हो गया है। लोकसभा का 2 जुलाई तथा राज्यसभा का बुधवार को अनिश्चित काल के लिये सत्रावसान हो गया। दोनों ही सदनों में विभिन्न विषयों पर चर्चाएं हुईं और पहले के मुकाबले कहीं अधिक मजबूती के साथ खड़े हुए विपक्ष ने जिस प्रकार से सरकार को घेरा, उससे साफ तौर पर विचलित होते हुए दिखने वाले प्रधानमंत्री मोदी अपने पुराने ढर्रे पर ही लौट आये हैं। राष्ट्रपति के अभिभाषण के विभिन्न पहलुओं और कई ज्वलंत मुद्दों पर उठाये सवालों से बचकर निकलते हुए श्री मोदी फिर से अपनी उन्हीं रणनीतियों के सहारे यह सत्र निकाल ले गये।

2014-19 एवं 2019-24 के अपने पिछले दो कार्यकाल के बाद मोदी जिस प्रकार से खुद के बलबूते बहुमत पाने के ध्वस्त स्वप्नों के साथ तीसरी बार पीएम बनकर लौटे, उससे आशा यह थी कि वे नयी शुरुआत करेंगे। एक ऐसा आगाज़ जिससे पुराना सारा कसैलापन धुल जाये तथा ऐसा सकारात्मक व्यवहार जो समावेशी राजनीति का नूतन सवेरा देखे। सरकार के दो क्षेत्रीय पार्टियों के सहारे टिके होने के बावजूद मोदी ने अभिभाषण पर अपना जवाब देते हुए जैसे भाषण किये, उससे जाहिर हो गया कि उनका रवैया बदलने वाला नहीं है।

सवाल यह भी है कि जब इस सत्र में ही यह साबित हो चुका है कि अल्पमत में होने के बाद भी मोदी अपनी भारतीय जनता पार्टी की कट्टरता को नहीं छोड़ने जा रहे हैं, तो उनके दोनों प्रमुख समर्थक दल- आंध्रप्रदेश की तेलुगु देसम पार्टी और बिहार की जनता दल (यूनाइटेड) के आगे क्या रास्ता रह जाता है? यह भी कि, इन दोनों दलों के प्रमुख- चंद्रबाबू नायडू तथा नीतीश कुमार भाजपा के चिर-परिचित हिन्दुत्ववादी विमर्श के बीच अपनी क्रमश: धर्मनिरपेक्षता व सामाजिक न्याय की नीति को कैसे बचाएंगे?

संसद का सत्र प्रारम्भ हो, उसके पहले मोदी ने मीडिया के समक्ष जब अपने विचार रखे थे, तभी यह एहसास हो गया था कि मोदी बहुत नहीं बदले हैं। तो भी एक आशा बनी हुई थी कि जब वे सदन के भीतर जायेंगे तो अपनी कमजोर स्थिति को वे ज़रूर महसूस करेंगे। तब शायद उनका रवैया बदलेगा। हालांकि भाजपा ने स्पीकर पद के लिये सहमति की बजाये टकराव का मार्ग चुना तभी से यह धारणा बनती चली गयी कि मोदी समावेशी राजनीति की अवधारणा से अभी भी दूर हैं। अलबत्ता राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के दौरान जब विपक्षी नेताओं के हमले हो रहे थे, तब पहली बार प्रधानमंत्री को इतने लम्बे समय तक सदन में बैठे देखा गया। बीच में कुछ मर्तबा वे उठे, अपनी टिप्पणियां भी दीं परन्तु एक शालीन सांसद की भांति वे बर्ताव करते दिखे। जब उनकी बारी आई तो सब कुछ बदल गया। दो घंटे से अधिक समय तक लोकसभा के भीतर दिया उनका भाषण बतला गया कि मोदी का अहंकार तो गया ही नहीं, उका नैरेटिव भी वही है जिसके बल पर वे अब तक अपनी राजनीति करते आये हैं। दोनों ही सदनों में अभिभाषण पर जवाब देते हुए पीएम ने पहले की ही तरह तथ्यों को तोड़-मरोड़कर और अपनी सहूलियत के अनुसार चीजों को व्याख्यायित किया। मसलन, उन्होंने भाजपा व अपने नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस की इस चुनाव में बड़ी जीत बतलाई- इस तथ्य को आसानी से भुलाते हुए कि पहले के 303 सांसदों के मुकाबले अब भाजपा 240 पर सिमट गयी है, उसका 370-400 पार का नारा धज्जियां बनकर हवा में उड़ चुका है। इसके विपरीत उन्होंने कांग्रेस व सहयोगी गठबन्धन ‘इंडिया’ की चुनावी सफलता को बड़ी पराजय साबित करने की कोशिश की। कांग्रेस की सदस्य संख्या तकरीबन दोगुनी हो जाने या अपने खिलाफ बने व सामने दिख रहे एक मजबूत विपक्षी गठबन्धन को भी वे प्रतिपक्ष की नाकामी सिद्ध करते रहे।

वर्तमान संदर्भों को दरकिनार कर इतिहास में चले जाना मोदी का शगल ही नहीं उनका बचाव भी है। उन्होंने 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गयी इमरजेंसी को कई बार दोहराया, उसे ‘इतिहास का काला पन्ना’ बताया। जिस तथ्य को सभी जानते हैं और स्वीकार कर चुके हैं, उसे बार-बार अपने भाषण में लाना यही बतला रहा था कि उनके पास नया कुछ कहने को नहीं है। मजेदार बात यह है कि वे कांग्रेस के सहयोगी दलों को यह कहकर नसीहत भी देते नज़र आये कि ‘उन्हें कांग्रेस खा जायेगी।’

मोदी ने चर्चा को सबसे खराब मोड़ उस समय दिया जब राहुल गांधी ने कहा कि ‘भाजपा हिन्दुओं को हिंसक बना रही है।’ गैरवाजिब आपत्ति प्रकट करते हुए मोदी ने कहा कि ‘राहुल व कांग्रेस हिन्दुओं को हिंसक कह रहे हैं।’ हालांकि कांग्रेस नेता ने स्पष्ट शब्दों में तत्काल स्पष्टीकरण दिया कि ‘मोदी हिन्दुओं के प्रतिनिधि नहीं हैं, न ही भाजपा व राष्ट्रीय स्वयंसेवक हिन्दू समाज के प्रतिनिधि हैं।’ मोदी ने यह कहकर सभी को उकसाने की भी कोशिश की कि ‘देश राहुल के बयान का संज्ञान ले।’ इस भाषण के कई अंशों को लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने विलोपित करा दिया। यह कुछ वैसा ही कृत्य था जब राहुल द्वारा 2019 की एक चुनावी सभा में मोदी सरनेम वालों को घोटाले में लिप्त बतलाने पर कहा गया था कि उन्होंने समस्त मोदी समाज का अपमान किया है। इसके खिलाफ भाजपा के इशारे पर एक मुकदमा भी वे झेल रहे हैं। इस मामले में भी उसी गुजरात पर असर हुआ है जहां कांग्रेस पार्टी कार्यालय पर पथराव किया गया है।

मुख्य सवाल तो यह है कि जैसे मोदी अब भी हिन्दुओं का ध्रुवीकरण कर रहे हैं, उसे क्या चंद्रबाबू नायडू व नीतीश स्वीकार करेंगे? वे तो इस तरह की राजनीति के खिलाफ़ रहे हैं!

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