मोदी शाशनमें नये कानूनों से पुलिस राज की शुरुआत ?

पिछली लोकसभा में पारित नये कानूनों के सोमवार से लागू होने के साथ ही भारत में नये सिरे से पुलिस राज की शुरुआत हो रही है
पिछली लोकसभा में पारित नये कानूनों के सोमवार से लागू होने के साथ ही भारत में नये सिरे से पुलिस राज की शुरुआत हो रही है। ऐसे वक्त में जब दुनिया भर के विकसित व लोकतांत्रिक देशों की सरकारें अपने नागरिकों को अधिक आजाद और अधिकार सम्पन्न कर रही हैं, भारत को ‘लोकतंत्र की जननी’ कहने वाली सरकार ने जिस न्याय संहिता को लागू करने का ऐलान किया है, उससे नागरिकों पर पुलिस के जरिये उसका सख्त पहरा बैठ जायेगा। उसकी आजादी को जैसा बड़ा खतरा नयी न्याय संहिता से होने जा रहा है, वैसा पहले कभी नहीं रहा।
अनेक पुराने कानूनों को हटाकर या बदलकर औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति दिलाने के नाम पर भारतीय दण्ड संहिता में व्यापक फेरबदल कर दिये गये हैं जिनसे जहां एक तरफ काफी समय तक व्यवहारिक दिक्कतें तो आयेंगी ही, पुलिस दमन की राहें भी खुल जायेंगी। अनेक न्यायविद एवं वकालत के पेशे में रहने वाले भी इस परिवर्तित संहिता से खौफ़ज़दा दिख रहे हैं। उनका मानना है कि नये कानून पुलिस के हाथ मजबूत करेंगे और नागरिकों को न्याय मिलने की आशाएं धूमिल हो जायेंगी। न्याय पाना और भी कठिन हो जायेगा, जो पहले से दुरुह है। भारत के सन्दर्भ में पहले ही कहा जाता है कि यहां की न्यायिक प्रक्रिया अपने आप में सज़ा पाने से कम नहीं है, जिसमें दोषी व निरपराध दोनों एक सरीखे पिसते हैं। सिर्फ पहुंच और पैसा राहत देता है- निर्दोष को भी, अपराधी को भी।
वैसे तो नये कानूनों को लेकर पहली आपत्ति यही की गई है कि अपराधों को दर्ज करने से लेकर मुकदमे चलाने सम्बन्धी धाराओँ का अभ्यस्त होने में पुलिस अधिकारियों, वकीलों व जजों को काफी समय लग जायेगा। न सिर्फ समझना, बल्कि उसकी व्याख्या करना व कोर्ट के समक्ष उसे प्रस्तुत करना अपने आप में बड़ी कवायद होगी, जिसका खामियाजा और किसी को नहीं वरन मामले के पक्षकारों को भुगतना होगा। पहले से लाखों की तादाद में न्यायालयों में लम्बित मामलों के ढेर बढ़ते जाने तय हैं। अब तक जिन धाराओं के अंतर्गत विभिन्न अपराधों को परिभाषित किया गया था, वे सभी सम्बन्धित एजेंसियों एवं पेशेवरों की ज़ुबानों पर रटे हुए थे। अब इसके क्रमांक भी बदल दिये गये हैं। अनेक की परिभाषाएं एवं व्याख्याएं भी बदल गई हैं। इनकी सज़ाओं में भी बदलाव कर दिये गये हैं। पूरे पुलिस विभाग को अपराधों को पंजीबद्ध करने, वकीलों को उन्हें प्रस्तुत एवं न्यायपालिका को उन्हें समझकर न्याय देने में नयी माथापच्ची करनी पड़ेगी।
यह तो रहा नये कानूनों का व्यवहारिक पक्ष, लेकिन जिन इरादों के साथ ये कानून लाये गये हैं और जैसा उनका प्रभाव पड़ने जा रहा है, वह कहीं अधिक भयावह है। उनमें से कुछ का उल्लेख किया जाना समीचीन होगा। पुलिस व न्यायिक अभिरक्षा में आरोपी को रखने की वैध मियाद को 15 दिनों से बढ़ाकर अब 90 दिनों तक कर दिया गया है। यह बतलाने की ज़रूरत नहीं है कि अपराधी हों या निर्दोष, इन दोनों तरह की कस्टडियां किस तरह सभी के लिये एक जैसी नारकीय हैं। फिर, पुलिस लॉकअप हो अथवा जेलें- दोनों में क्षमता से अधिक आरोपी या सज़ायाफ़्ता रखे जाते हैं। मानव गरिमा के विपरीत परिस्थितियां तो उनमें पहले से मौजूद हैं, इस बात की कल्पना सहज की जा सकती है कि बढ़ी हुई संख्या में वे किस तरह से सलाखों के पीछे दिन काटेंगे। उन्हें जीवनावश्यक सुविधाएं मुहैया कराना भी अपने आप में एक बड़ी चुनौती होगी।
‘राजद्रोह’ शब्द तो नयी न्यायिक संहिता से हटा दिया गया लेकिन बहुत से नये आधार बनाकर लोगों को जेलों में बगैर मुकदमा चलाना आसान तथा जमानत प्रक्रिया को कठिन बना दिया गया है। देश की एकता व अखंडता को नुकसान पहुंचाने वाले कृत्यों के खिलाफ लाये गये कानून अप्रत्यक्ष रूप से सरकार के खिलाफ उठने वाली आवाज़ों को खामोश करने का बढ़िया ज़रिया बन जायेंगे। यह धारा लगाने का विवेकाधिकार भी अपेक्षाकृत निचले स्तर के अधिकारी के पास हो गया है। इनमें भी लम्बे समय तक जमानत न मिलने के प्रावधान कर दिये गये हैं। इसका अनुमान लगाना कोई मुश्किल नहीं है कि जिस सरकार ने विपक्षी नेताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, लेखकों, बुद्धिजीवियों, ट्रेड यूनियन व किसान संगठनों के नेताओं आदि के खिलाफ पहले से एक अभियान जैसा छेड़ रखा है उसका व्यवहार ये काले कानून हाथ में लग जाने के बाद कैसा होगा। जिस गैरकानूनी गतिविधियां (प्रतिबंध) कानून यानी यूएपीए के चलते न जाने कितने मानवाधिकार कार्यकर्ता एवं बुद्धिजीवी लम्बे समय से जेलों में सड़ रहे हैं, सरकार के हाथ नये कानूनों से और भी ताकतवर हो जायेंगे। इसके साथ ही यह भी माना जा रहा है कि इसके जरिये परम्परागत प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अतिरिक्त स्वतंत्र मीडिया (सोशल) का गला घोंटना भी आसान हो जायेगा। सरकार विरोधी खबरों, रिपोर्ताज या समीक्षाओं को देश की एकता-अखंडता के लिये खतरा बतलाकर ऐसे पत्रकारों तथा मीडिया संस्थानों को सरकार द्वारा डराना बेहद आसान हो जायेगा।
याद हो कि पिछली लोकसभा के अंतिम दिनों में ये कानून एक सुनियोजित षडयंत्र के अंतर्गत पास कराये गये थे। पहले दोनों सदनों के तकरीबन डेढ़ सौ सांसदों को निलम्बित कराया गया तत्पश्चात केवल सत्ता पक्ष या गिनती के विरोधी दलों के सदस्यों की उपस्थिति में ये कानून पारित किये गये। नोटबन्दी, जीएसटी, कृषि कानून, इलेक्टोरल बॉंड्स, पीएम केयर फंड आदि की ही तरह इस पर न तो पर्याप्त चर्चा हुई और न ही न्यायविदों व कानून विशेषज्ञों की राय ली गई। सरकार निश्चित ही जानती रही होगी कि नागरिक स्वतंत्रता के पक्ष में खड़ा कोई भी व्यक्ति इनके खिलाफ होगा।