आपातकाल विरोधी कोरस में मोदीजी के स्वर में स्वर मिलाती महामुईम राष्ट्रपति ?
भारत के संविधान में वैसे तो राष्ट्रपति का पद सर्वोच्च बतलाया गया है लेकिन जो संसदीय प्रणाली देश ने अपनाई है
भारत के संविधान में वैसे तो राष्ट्रपति का पद सर्वोच्च बतलाया गया है लेकिन जो संसदीय प्रणाली देश ने अपनाई है, उसके अंतर्गत इस पद पर बैठे व्यक्ति की सत्ता कार्यपालिका द्वारा निर्धारित होती है। स्वविवेक से राष्ट्रपति कुछ भी नहीं कर सकता, कह भी नहीं सकता। राष्ट्र्रपति के मन्तव्य दरअसल उसकी सरकार की मंशा होती है। कार्यपालिका प्रमुख यानी प्रधानमंत्री ही उसके हर कहे या लिखे गये शब्द को निर्धारित करता है जिसका सम्बन्ध प्रशासन से होता है। वर्ष भर में कम से कम दो मौके ऐसे होते हैं जब राष्ट्रपति के भाषणों का पूरा देश उत्सुकता से इंतज़ार करता है, पहला होता है 26 जनवरी यानी गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर देश को दिया जाने वाला संदेश और बजट सत्र की शुरुआत में संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में उनका अभिभाषण। नयी लोकसभा के प्रथम सत्र के अवसर पर भी राष्ट्रपति के इस वक्तव्य का राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय दोनों ही परिप्रेक्ष्य में बहुत महत्व होता है।
यह जानने के बावजूद कि यह सरकार की ओर से तैयार कर राष्ट्रपति के जरिये इन दो मंचों से जनता को दिया गया संदेश होता है, उसकी अहमियत बनी रहती है और उसे केवल इस आधार पर खारिज नहीं किया जाता कि उसमें राष्ट्रपति का व्यक्तिगत कुछ भी नहीं है। दोनों ही भाषणों की देश के साथ दुनिया भर में मीमांसा होती है क्योंकि इसके माध्यम से सरकार की केवल उपलब्धियां नहीं दर्शाई जातीं बल्कि उसके नज़रिये और भावी कार्यक्रमों की भी मीमांसा होती है।
ऐसे में बहुत आवश्यक होता है कि जब भी सरकार राष्ट्रपति के हाथों में पढ़ने के लिये कुछ पकड़ाये तो उसे देखना चाहिये कि वह सत्ताधारी पार्टी के हितों से ऊपर उठकर बात करे। राजनीतिक एजेंडा संसद के दोनों सदनों व चुनावी रैलियों में तथा सार्वजनिक मंचों पर तो चलाया जाता है परन्तु अभिभाषण किसी व्यक्ति या दल के राग-द्वेष तथा हितों से प्रभावित होकर नहीं लिखे व पढ़े जाने चाहिये। भारत की संसदीय परम्परा में ज्यादातर राष्ट्रपतियों ने वास्तविकता में रबर स्टांप की हैसियत होने के बावजूद अपने वजूद व पद की गरिमा हमेशा बनाये रखी थी। पंडित जवाहरलाल नेहरू जैसी महान शख्सियत के साथ काम करने के बावजूद डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने इस पद की ताकत व गौरव को उस पीएम के बराबर ला खड़ा किया था जिसे नेहरू सम्हाल रहे थे। बहुत कम पढ़े-लिखे होने के बाद भी ज्ञानी जैल सिंह ने इंदिरा गांधी की असामयिक मृत्यु के बाद राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बनाकर देश को राजनीतिक व संवैधानिक संकट से बाहर निकाला था, वह भी सभी ने देखा था। इंदिरा की हत्या के कारण भड़के दंगों के दौरान दिल्ली में सिखों के हुए नरसंहार को अपने समुदाय से न जोड़कर वे पद की गरिमा को नयी ऊंचाई तक ले गये। इतना ही नहीं, जब राजीव गांधी सरकार के एक मंत्री केके तिवारी ने ‘राष्ट्रपति भवन को खालिस्तानी आतंकवादियों का अड्डा’ बतलाया तो उन्हीं जैल सिंह ने राजीव गांधी को पत्र लिखकर तिवारी को हटवाया था। एपीजे अब्दुल कलाम और प्रणव मुखर्जी ऐसे राष्ट्रपति हुए जिनके कार्यकाल के दौरान दो विपरीत विचारधाराओं वाले दलों के नेतृत्व में सत्ता परिवर्तन हुआ परन्तु दोनों ने ही उसे बेहद सहज ढंग से लेकर संविधान की सत्ता को बरकरार रखा।
जिस तरह से मोदी के कार्यकाल में तमाम संवैधानिक संस्थाओं का अवमूल्यन हुआ है, उनमें राष्ट्रपति पद भी है। वैसे भी यह पद वास्तविक अधिकारों वाला नहीं है लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उस पर हर बार ऐसे व्यक्ति को बैठाया है जो पहले से कमजोर हो। पहले जिन रामनाथ कोविंद को बिठाया गया वे भी हमेशा मोदी से दबकर रहे। अब द्रौपदी मुर्मू हैं जो इतनी शक्तिहीन हैं कि उनके खड़े रहते मोदी के बैठे रहने की तस्वीरें तक आई हैं। अयोध्या स्थित रामलला मंदिर का जब शिलान्यास हुआ तो श्री कोविंद को नहीं बुलाया गया और जब उसका प्राणप्रतिष्ठा समारोह हुआ तब सुश्री मुर्मू को आमंत्रित नहीं किया गया। वैसे देखें तो खुद को कमजोर बनाने में इन दोनों का अपना योगदान भी कुछ कम नहीं है। श्री कोविंद ने जहां अपने सेवानिवृत्त होने के बाद भारत सरकार द्वारा ‘एक देश एक चुनाव’ पर बनी कमिटी का अध्यक्ष बनना स्वीकार किया, वहीं सुश्री मुर्मू ने मोदी को प्रधानमंत्री बनने पर उन्हें दही-शक्कर खिलाई थी। दोनों ने बता दिया था कि वे चाहे जिस पद पर हों, पार्टी कार्यकर्ता बने रहेंगे।
18वीं लोकसभा के पहले सत्र के प्रारम्भ होने के पहले मीडिया के सामने अपने उद्बोधन में मोदी ने कोई सकारात्मक शुरुआत करने की बजाये 50 वर्ष पहले लोगों द्वारा भुला दी गई इमरजेंसी की याद कराई। उसी विषय को आगे बढ़ाते हुए दोबारा लोकसभा अध्यक्ष बने ओम बिरला ने इस पर एक प्रस्ताव लाकर बतला दिया कि जिस काम के लिये उन्हें यह सीट पुन: मिली है, उसका निर्वाह वे करते रहेंगे- वह है भाजपा का एजेंडा चलाना। इसी सहगान में अपना स्वर मिलाती हुईं राष्ट्रपति मुर्मू भी गुरुवार को नज़र आईं जब उन्होंने अपने अभिभाषण में आधी सदी पहले ढाई साल के अल्पकाल के लिये खुलकर बंद हो गये आपातकाल के अध्याय को फिर से खोला। उन्होंने भारत के कथित रूप से ‘लोकतंत्र की जननी’ वाले मोदी के जुमले को दोहराया जबकि वे जिस समाज (आदिवासी) से आती हैं उसके हिस्से में स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले कितना लोकतंत्र आया था, यह वे बखूबी जानती हैं। महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, गरीबों-वंचितों के उत्पीड़न पर उनकी सरकार क्या कर रही है, उसका उल्लेख होता तो बेहतर था। खैर, लोग जानते हैं कि अभिभाषण में उनका कोई योगदान नहीं। जिस राष्ट्रपति की दिनचर्या तक प्रधानमंत्री कार्यालय से तय होती हो, उनसे कोई उम्मीद नहीं है।