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मोदी की हठधर्मिता से विपक्ष की नाराज़गी पर ये अध्यक्ष का चुनाव ?

भारत के संसदीय इतिहास में लोकसभा के अध्यक्ष पद पर निर्वाचन की बजाय परस्पर सहमति से बिठाने की परम्परा रही है

भारत के संसदीय इतिहास में लोकसभा के अध्यक्ष पद पर निर्वाचन की बजाय परस्पर सहमति से बिठाने की परम्परा रही है। इसका कारण यह है कि इस पद पर बैठने के बाद कोई भी व्यक्ति दलगत हितों एवं प्रतिबद्धताओं से ऊपर उठ जाता है। इसलिये इस बेहद महत्वपूर्ण पद के लिये ऐसे व्यक्ति का चुनाव किया जाता है जो न केवल सदन के नियमों का जानकार हो, स्वयं पर्याप्त समय उसने लोकसभा में सदस्य के रूप में गुजारा हो तथा उसके सभी दलों के साथ व्यक्तिगत तौर पर अच्छे सम्बन्ध हों। सदन के भीतर यह पद प्रधानमंत्री से भी ऊंचा होता है जो सरकार को भी आदेश देता है। सदन के कामकाज को लेकर उसकी बात अंतिम होती है जो सत्तारुढ़ व विपक्ष दोनों के लिये ही मान्य व अकाट्य होती है।

जिस प्रकार पिछले दो कार्यकालों में प्रधानमंत्री ने समस्त संवैधानिक नियमों, परम्पराओं एवं रुढ़ियों को ध्वस्त किया है उससे भारत की संसद भी नहीं बची। दोनों ही सदनों (लोकसभा व राज्यसभा) की उज्ज्वल परम्पराओं को जिस प्रकार से मोदी व उनकी सरकार ने मैला किया है, उससे लोकतंत्र को इसी मुकाम पर पहुंचना था कि लोकसभा को यह दिन देखना पड़ रहा है जिसमें अध्यक्ष पद के लिये चुनाव हो रहा है। सत्ता दल यानी भाजपा तथा उसके नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस (एनडीए) की ओर से पिछले अध्यक्ष ओम बिरला को ही फिर से चुनाव मैदान में उतारा गया है। उल्लेखनीय है कि यह दूसरा मौका है जब लोकसभा में इस पद के लिये पक्ष-विपक्ष ने अपने-अपने उम्मीदवार खड़े किये हैं। देश के पहले आम चुनाव के बाद बनी प्रथम लोकसभा में (1952) कांग्रेस ने जीवी मावलंकर तथा विपक्ष ने शंकर शांताराम मोरे को इस पद के लिये उम्मीदवार बनाया था। मावलंकर ने 394-55 से जीत हासिल की थी।

अपने स्वभाव के मुताबिक मोदी एवं उनके रणनीतिकार केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने विपक्षी दलों से राय-मशविरा किये बगैर ही बिड़ला को उन्हें खड़ा किया है। स्वाभाविकत: प्रतिपक्ष इंडिया गठबन्धन आंख मूंदकर उन्हें समर्थन नहीं दे सकता। उसकी ओर से कांग्रेस के अत्यंत वरिष्ठ सदस्य के. सुरेश को प्रत्याशी घोषित किया गया है। सुरेश केरल की मावेलिक्कारा सीट से 8 बार चुनाव जीतकर संसद में पहुंचे हैं। वे एक दलित नेता हैं जो पहली बार 1989 में जीते थे और 2009 में डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार में श्रम व रोजगार मंत्री भी रहे। वे इस समय सदन में सर्वाधिक बार जीतने वाले सदस्यों में से एक हैं। उम्मीद तो यही थी कि के सुरेश को ही उनकी वरिष्ठता को देखते हुए प्रोटेम स्पीकर बनाया जाता जो नवनिर्वाचित सदस्यों को शपथ ग्रहण कराते। इस निर्णय के साथ ही मोदी-शाह ने संकेत दे दिये थे कि वे पहले जैसे निरंकुश होकर सत्ता चलाएंगे। इस पद को लेकर वैसा ही हुआ।

केन्द्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने विपक्ष से समझौते की कोशिश की परन्तु बात बनी नहीं। कांग्रेस महासचिव के सी वेणुगोपाल एवं द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) के टीआर बालू के साथ उनकी चर्चा तो हुई पर वह निष्फल सिद्ध हुई। दोनों ने राजनाथ सिंह के कक्ष के बाहर आकर कहा कि सत्ता पक्ष उनकी मांग के अनुसार सदन का उपाध्यक्ष पद भी विपक्ष को देने हेतु तैयार नहीं है। ऐसे में सहमति का सवाल ही नहीं उठता। इसके साथ ही तय हो गया कि दोनों पक्षों के प्रत्याशियों के बीच मतदान के जरिये नये लोकसभाध्यक्ष का नाम तय होगा। बुधवार की सुबह 11 बजे मतदान होगा। विपक्ष को यह भी शिकायत है कि सुरेश की वरिष्ठता को नज़रंदाज किया गया। उनकी बजाय भतृहरि मेहताब को प्रोटेम अध्यक्ष बनाया गया जिन्होंने सदस्यों को शपथ दिलाई। विपक्ष की यह शिकायत इसलिये भी वाजिब कही जा सकती है कि सुरेश ने तो लगातार एक ही दल (कांग्रेस) में रहते हुए 8 बार जीत दर्ज की है जबकि मेहताब 7 बार के सांसद हैं जिनमें से पहले 6 बार उन्होंने बीजू जनता दल से चुनाव लड़कर विजय हासिल की थी। बाद में उन्होंने पार्टी छोड़ दी और भाजपा में शामिल हो गये थे। वैसे सातवीं बार, परन्तु भाजपा की टिकट पर पहली बार वे जीते हैं।

विपक्ष की यह पहली नाराज़गी नहीं है। इसके पहले जब प्रोटेम स्पीकर की मदद के लिये उपाध्यक्षों का जो पैनल बनाया गया उस पर भी भाजपा ने विपक्ष से राय नहीं ली। इसका नतीजा यह हुआ कि विपक्षी दलों से पैनल के लिये जो तीन लोग निर्धारित किये गये थे उन्होंने यह पद सम्हालने से इंकार कर दिया। अब भी बिड़ला व सुरेश के बीच जो मुकाबला होने जा रहा है वह इसी कारण से हो रहा है क्योंकि विपक्ष पहले डिप्टी स्पीकर पद के लिये आश्वासन चाहता था जबकि राजनाथ सिंह कहते रहे कि पहले विपक्ष बिड़ला के लिये समर्थन जाहिर करे। जहां तक डिप्टी स्पीकर की बात है, वह बाद में देखा जायेगा।

परम्पराओं की बात अगर एक ओर रख दी जाये तो भी विपक्ष से यह उम्मीद करना उसके साथ ज्यादती होगी कि वह ओम बिरला को समर्थन दे क्योंकि पिछले कार्यकाल में उन्होंने विपक्ष को कुचलने में अहम भूमिका निभाई थी। चर्चाओं में वे सरकार को बचाते थे। विपक्षी सदस्यों के बयानों को कार्यवाही से हटाना, विरोधी दलों के सांसदों का निलम्बन, राहुल गांधी सहित कई विपक्षी सदस्यों के माइक को बन्द करना आदि उनकी उपलब्धियां हैं। इसलिये उन्हें यह पुरस्कार मिल रहा है कि जीतने पर वे पहले ऐसे लोकसभा अध्यक्ष बनेंगे जो लगातार दो बार यह उत्तरदायित्व निभाएंगे।

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