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असुरक्षा में जीने का अभिशप्त भारतीय नागरिक व सरकार दोनों ही असंवेदनशील ?

भारतीय अपने जीवन में खतरों को झेलने और उनके प्रति भारतीय नागरिक व सरकार स्थायी रूप से असंवेदनशील बने रहने के आदी हो गये हैं !

भारतीय अपने जीवन में खतरों को झेलने और उनके प्रति स्थायी रूप से असंवेदनशील बने रहने के आदी हो गये हैं। आये जिन देश के किसी न किसी में कोई न कोई बड़ी दुर्घटनाएं होती रहती हैं लेकिन न तो नागरिक इस बात की मांग करते हैं कि उन्हें सुरक्षित जीवन जीने का माहौल दिया जाये और न ही सरकार- चाहे केन्द्र की हो या राज्यों की (किसी भी पार्टी की क्यों न हो), ऐसी परिस्थितियों को लेकर कोई गम्भीरता नहीं दिखाती। लोगों के जीवन को जिस तरह से सस्ता बना दिया गया है वह आधुनिक समय की भावना के एकदम विपरीत है। बाढ़, भूकम्प, बादल फटने, जमीन धसकने जैसी प्राकृतिक आपदाओं पर इंसान का बस नहीं होता और वे आधुनिकतम देशों में भी आती हैं, पर मनुष्य निर्मित दुर्घटनाओं के लिये किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। सख्त कानून व नियमों के जरिये एक सुरक्षित जीवन जीने के योग्य वातावरण बनाना सरकार का ही काम होता है जिसकी जिम्मेदारी से वह बच नहीं सकती, पर भारत में रोज होते हुए हादसे देखे जा सकते हैं- वह भी बहुतायत में।

गुजरात के राजकोट में शनिवार को एक गेम जोन में भीषण आग लग गई जिससे 12 बच्चों समेत 28 लोगों की जलकर मौत हो गई। हालांकि 25 लोगों को बचा लिया गया। सप्ताहांत होने और 500 का टिकट 99 रुपये में मिलने के कारण भीड़ ज्यादा थी। बताया गया है कि वेल्डिंग की चिंगारी से यह आग लगी। यहां ज्यादातर सामग्रियां ज्वलनशील थीं, इसके चलते आग तेजी से फैल गई। असली बात यह है कि यहां आगजनी सम्बन्धी अनापत्ति प्रमाणपत्र नहीं लिया गया था। बहुत से बच्चों और बड़ों के शव तो पहचाने भी नहीं जा रहे हैं। डीएनए के जरिये वे परिजनों को सौंपे जा रहे हैं। रविवार को पूर्वी दिल्ली यानी यमुनापार के विवेक विहार में संचालित एक 2 मंजिला बेबी डे केयर में आग लगने से ही 7 नवजातों की मौत हो गई वहीं करीब इतने ही बच्चे झुलस गये हैं। यहां 12 बच्चों को किसी तरह से बचा लिया गया।

उधर छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिले के एक गांव बोरसी में चल रही बारूद फैक्ट्री में शनिवार को विस्फोट हो गया जिसमें कई लोगों की मौत हो गई। हालांकि एक की ही शिनाख्त हो सकी है और लगभग 7 शवों के फैक्ट्री के मलबे में दबे होने की आशंका है। विस्फोट इतना भयावह था कि 15 किलोमीटर दूर तक सुनाई दिया और इससे न केवल कई मजदूरों के चिथड़े उड़ गये बल्कि फैक्ट्री का एक हिस्सा भी ढह गया। गांव वाले लम्बे समय से इस बारूद फैक्ट्री को हटाने की मांग कर रहे थे परन्तु उसके मालिक का सम्बन्ध मध्यप्रदेश के एक पूर्व मुख्यमंत्री से बताया जाता है इसलिये ऐसा हो न सका।

ऐसी छोटी-बड़ी दुर्घटनाओं की लम्बी फेहरिस्त है जो कोई भी अपनी याददाश्त के बल पर बना सकता है। फिर वह चाहे गुजरात के मोरबी का पुल हो या कोलकाता का फ्लाईओवर जो निर्माण की अवस्था में ही ढह गया; या फिर कोलकाता के एक अस्पताल में लगी भीषण आग अथवा कुछ साल पहले मुंबई लोकल रेलवे के एक स्टेशन का फुटओवर ब्रिज जो अपनी आयु पूरी कर चुका था। पीक अवर में यात्रियों की भारी भीड़ का वजन न सह पाने के कारण ढह गया था। देश की व्यवस्था कुछ ऐसी है कि दशहरे पर रेलवे लाइन के किनारे रावण दहन देखते हुए लोग दूसरी ओर से आती ट्रेन से कटकर मर जाते हैं या फिर स्मोग (भारी धुंध) के कारण ग्रांड ट्रंक रोड पर टकराते वाहनों में मारे जाते हैं। भोपाल के यूनियन कार्बाइड के कारखाने में गैस रिसाव से लेकर दिल्ली के उपहार सिनेमाघर में आग लगने की घटना को भला कौन भूल सकता है?

सच तो यह है कि भारतीयों के जीवन में जितनी विविधता है, दुर्घटनाएं भी उतनी तरह की होती हैं। उनके मरने का अंदाज बहुत वैविध्यपूर्ण है। सड़कों पर वाहनों की रफ्तार बेलगाम है तो मनोरंजन के लिये लगे झूले एकदम असुरक्षित, नावों में इतने लोग भर लिये जाते हैं कि वे बीच नदियों, जलाशयों में डूब जाती हैं। बच्चों को स्कूल ले जाती बसें या रिक्शे कभी सड़क पर पलट जाते हैं तो कभी आती ट्रेनों से पहले लेवल क्रॉसिंग पार करने के चक्कर में वे कई घरों के दीयों को बुझा देते हैं। न निजी जीवन में सुरक्षा है और न ही कार्य स्थलों पर। फैक्ट्रियों में कभी बॉयलर में विस्फोट हो जाता है तो कभी पिघली धातु श्रमिकों पर छिटक जाती है। कभी वे पावर प्लांट की गर्म राख में झुलस जाते हैं तो उन पर क्रेनें टूट जाती हैं। लोग मरते हैं, घायल होते हैं, स्थायी रूप से विकलांग होते हैं पर लोग इसी व्यवस्था में जीने के लिये अभिशप्त हैं।

दुर्घटनाएं इसलिये भी नहीं रुकतीं क्योंकि उसके बाद दोषियों को बचाने की कवायदें शुरू हो जाती हैं। गैर इरादतन हत्या के आरोप में गिरफ्तार दोषी, जो या तो रसूखदार होते हैं या फिर कानून इतने कमजोर हैं कि शाम होते न होते रात का खाना वे अपने घरवालों के साथ खा रहे होते हैं। न्याय पाने के लिये कानूनी जटिलताओं में भी उन्हें ही उलझना पड़ता है जो भुक्तभोगी होते हैं। पुलिस का काम पहले तो समझौता कराने का होता है और अगर ऐसा न हो सका तो मामले इतने कमजोर बनाकर कोर्ट तक पहुंचाये जाते हैं कि आरोपी छोटा-मोटा जुर्माना भरकर साफ बच निकलते हैं। नागरिक व सरकार दोनों ही असंवेदनशील हों तो जीवन सुरक्षित कैसे हो सकता है?

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