चुनावों के बीच प्रधानमंत्री मोदी और राहुल गांधी के साथ खुली बहस की मांग क्या मोदीजी स्वीकार करेगें ?

18वीं लोकसभा के लिए हो रहे चुनाव की प्रक्रिया आधी से अधिक पूरी हो चुकी है
18वीं लोकसभा के लिए हो रहे चुनाव की प्रक्रिया आधी से अधिक पूरी हो चुकी है। सात में से चार चरणों के मतदान हो गए हैं अब केवल तीन चरण बाकी रह गए हैं। देश भर में राजनैतिक दलों की रैलियां और सभाएं हो रही हैं। टीवी और अखबारों में साक्षात्कारों का सिलसिला भी चल रहा है। लेकिन इन सबमें जनहित और देशहित के मुद्दों पर ठोस जवाब सामने नहीं आ रहे, बल्कि आरोप-प्रत्यारोप ही अधिक हो रहे हैं। मिसाल के लिए, अभी एक चैनल को दिए साक्षात्कार में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि इंदिरा गांधी के वक्त महंगाई सबसे अधिक थी और इसी में श्री मोदी ने पं.नेहरू के भाषण का जिक्र करते हुए कहा कि उन्होंने देश में बढ़ती महंगाई के लिए द.कोरिया और उ.कोरिया की लड़ाई को जिम्मेदार बताया था, जबकि उसका प्रभाव यहां की अर्थव्यवस्था पर नहीं था। वह केवल बहाना ढूंढते थे।
10 साल सत्ता में रहने के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी अब भी इंदिरा गांधी या नेहरूजी के वक्त के शासन की कमियां गिना रहे हैं, तो इसका सीधा अर्थ यही है कि वे अभी के मुद्दों पर बात नहीं करना चाहते। 10 सालों में एक भी खुली प्रेस कांफ्रेंस न करने वाले नरेन्द्र मोदी इस चुनाव के वक्त अलग-अलग मीडिया घरानों के पत्रकारों को साक्षात्कार तो दे रहे हैं, लेकिन उनमें भी मुद्दों पर बात नहीं हो रही, केवल कांग्रेस और इंडिया गठबंधन पर हमले हो रहे हैं। साक्षात्कार लेने वाले पत्रकार भी सत्ता के प्रायोजक की भूमिका में नजर आते हैं, क्योंकि उनके सवालों में कोई धार नहीं दिखाई देती, न ही जवाबों पर प्रतिप्रश्न किए जाते हैं। जो कुछ नरेन्द्र मोदी के मुंह से निकल गया, उसे अमृतवाणी की तरह दर्शकों के लिए परोस दिया जाता है। इस तरह की पत्रकारिता से मीडिया घरानों का भला हो सकता है, देश का नहीं।
इस निराशाजनक स्थिति के बीच देश के दो पूर्व न्यायाधीशों और एक वरिष्ठ पत्रकार ने प्रधानमंत्री मोदी और राहुल गांधी को सीधी बहस करने के लिए चि_ी लिखी है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मदन बी लोकुर, दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस एपी शाह, और वरिष्ठ पत्रकार एवं द हिंदू के पूर्व एडिटर-इन-चीफ एन राम ने अपने पत्र में कहा है कि लोकतांत्रिक देश होने के नाते हमारे चुनावों पर दुनिया की नजर है। ऐसे में भाजपा और कांग्रेस के शीर्ष नेताओं को गैर-पार्टी और गैर-व्यावसायिक प्लेटफॉर्म पर बहस करना चाहिए। इन तीनों ने पत्र में लिखा है कि रैलियां और भाषणों में सत्ताधारी पार्टी भाजपा और मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस दोनों ने ही हमारे संवैधानिक लोकतंत्र से जुड़े अहम सवाल पूछे हैं। हमारे प्रधानमंत्री ने सबके सामने कांग्रेस को आरक्षण, आर्टिकल 370 और संपत्ति के बंटवारे पर घेरा है। वहीं, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री मोदी से संविधान, इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम, चीन के अतिक्रमण पर सवाल पूछे हैं और उन्हें सार्वजनिक बहस की चुनौती भी दी है। पत्र में लिखा है कि हमें लगता है कि अगर एक गैर-दलीय और गैर-व्यावसायिक मंच पर सार्वजनिक बहस के जरिए जनता सीधे तौर पर हमारे नेताओं का पक्ष सुनेगी तो इससे जनता को फायदा होगा। हमें लगता है कि इससे हमारी संविधानिक प्रक्रिया को मजबूती मिलेगी। पत्र में यह भी लिखा है कि यह बहस कहां होगी, कितनी देर की होगी, इसमें सवाल कौन पूछेगा और इसका प्रारुप क्या रहेगा, यह श्री मोदी और राहुल गांधी दोनों की सलाह पर तय किया जा सकता है। अगर ये दोनों नेता बहस के लिए नहीं आ सकते हैं, तो वे अपनी तरफ से किसी को प्रतिनिधि के तौर पर भेज सकते हैं।
इस पत्र पर राहुल गांधी ने जवाब दिया कि उन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष से इस बारे में चर्चा की है और वे इसके लिए तैयार हैं। श्री गांधी ने लिखा कि स्वस्थ लोकतंत्र के लिए प्रमुख दलों का एक मंच से अपना विज़न देश के समक्ष रखना एक सकारात्मक पहल होगी। देश प्रधानमंत्री जी से भी इस संवाद में हिस्सा लेने की अपेक्षा करता है।
हालांकि प्रधानमंत्री की ओर से इस पर कोई जवाब देखने नहीं मिला है। अलबत्ता भाजपा के नेताओं और आईटी सेल के लोगों ने राहुल गांधी का मजाक उड़ाना जरूर शुरु कर दिया कि वे किस हैसियत से प्रधानमंत्री मोदी से बहस करेंगे। वे तो इंडिया गठबंधन के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी नहीं हैं। लेकिन भाजपा के नेता यह भूल गए कि इस बहस के लिए प्रधानमंत्री पद की दावेदारी कोई योग्यता है ही नहीं। श्री मोदी और श्री गांधी दोनों लोकसभा के सांसद हैं और अपनी-अपनी पार्टियों की ओर से उम्मीदवार भी, इस नाते दोनों के बीच सीधी बहस हो सकती है।
लेकिन यहां सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि क्या नरेन्द्र मोदी राहुल गांधी या कांग्रेस के किसी भी नेता से सीधी बहस के लिए तैयार होंगे या नहीं। क्योंकि जब कांग्रेस के घोषणापत्र को लेकर उन्होंने भ्रामक बातें कहनी शुरु की, तब मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी उनसे लिए चर्चा का वक्त मांगा था। वह वक्त आज तक श्री खड़गे को नहीं मिला। इस बीच स्मृति ईरानी जैसे नेता राहुल गांधी को ललकारते और भाजपा प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी से बहस के लिए चुनौती देते नजर आए। यानी भाजपा बहस की बात तो करती है, लेकिन बहस करने के लिए तैयार नहीं होती।
अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों में दोनों दलों के उम्मीदवारों के बीच सार्वजनिक बहस की परंपरा रही है। लेकिन भारत में चुनावों में ऐसा नहीं होता, क्योंकि यहां राष्ट्रपति नहीं, प्रधानमंत्री सरकार का मुखिया होता है और यहां दो दल नहीं, अनेक दलों वाली लोकतांत्रिक राजनीति होती है। इसलिए अमेरिका जैसी परंपरा यहां लागू नहीं हो सकती। लेकिन फिर भी मुद्दों पर आधारित सार्वजनिक बहस अगर दो प्रतिद्वंद्वी दलों के नेताओं के बीच हो और गड़े मुर्दे उखाड़ने या निजी प्रहार करने की जगह तर्कों के साथ जवाब दिए जाएं, तो वाकई लोकतंत्र का बहुत भला होगा। भाजपा फिलहाल इस बहस के लिए तैयार नहीं है, बल्कि बहस के बहाने राहुल गांधी पर प्रहार के लिए तैयार है। इससे समझा जा सकता है कि भाजपा इस वक्त कितने पानी में है।