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देश के पुलिस थानों को अपराध मुक्त करने की आवश्यकता क्योंकि हमारे थानों की पहचान यातना केन्द्रों के रूप में होती है !

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना ने देश के पुलिस थानों में हो रहे मानवाधिकार हनन की गंभीरता की ओर ध्यान दिलाया है

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना ने देश के पुलिस थानों में हो रहे मानवाधिकार हनन की गंभीरता की ओर ध्यान दिलाया है। जस्टिस रमन्ना भारतीय राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (एनएएसएलए) के विजन एंड मिशन स्टेटमेंट एनएएसएलए के लिए विकसित एप के लांचिंग के अवसर पर बोल रहे थे। उनके बयान की सार्थकता इसी में है कि देश भर के थानों को मानवाधिकार हनन की प्रवृत्ति से मुक्त किया जाए।

हमारे थानों की पहचान यातना केन्द्रों के रूप में होती है जहां न्याय माने के लिए जाने वालों की रूहें कांप उठती हैं। बिना जान-पहचान या प्रभावशाली लोगों की मदद के बगैर आप थाने में पांव भी नहीं धर सकते। हमारे यहां तो थाना-कचहरियों से दूर रहने को ही सबसे बड़ी समझदारी बतलाई गई है। समाज में होने वाले किसी भी तरह के अन्याय से छुटकारा पाने की पहली सीढ़ी पुलिस ही होती है, लेकिन वास्तविकता यही है कि वहां जाकर इन तकलीफों में इज़ाफा ही होता है। थानों में न केवल पैसा चलता है बल्कि सबूतों के साथ सर्वाधिक छेड़छाड़ और उन्हें मिटाने तक के काम धड़ल्ले से होते हैं। इस चक्की में वे ही पिसे जाते हैं जिनके पास या तो पैसे नहीं होते या किसी प्रभावशाली व्यक्ति का वरदहस्त नहीं होता। देश के ज्यादातर पुलिस स्टेशन साधनहीन लोगों के लिये यातनागृह हैं। गरीब, दलित, आदिवासी, महिलाएं, कमजोर तबके के लोग इसका सर्वाधिक शिकार होते हैं। समय-समय पर अनेक लोगों ने इस कटु यथार्थ की ओर ध्यान तो दिलाया है परन्तु उस दिशा में कुछ भी सार्थक नहीं हुआ है।

हाल ही में स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा था कि पुलिस को अपनी छवि सुधारे जाने की आवश्यकता है। पुलिस की छवि का सीधा संबंध असल में पुलिस स्टेशनों की कार्यपद्धति से है जो नागरिकों के बुनियादी अधिकारों पर चोट पहुंचाती है। नागरिकों की स्वतंत्रता की गारंटी संविधान देता है लेकिन उसका हनन सहजता से एक सामान्य सा पुलिस वाला कर देता है। लोगों को असंवैधानिक तरीके से रोककर रखना, गैरकानूनी रूप से घरों-दफ्तरों की बिना सर्च वारंट के तलाशी लेना, आरोपी के रिश्तेदारों को प्रताड़ित करना, गालीगलौज, मारपीट, उनसे पैसे या सामग्री छीन लेना, उन्हें गलत बयानी हेतु मजबूर करना, वक्त पर आरोपपत्र पेश न करना, शारीरिक व मानसिक रूप से प्रताड़ित करने जैसे कई उदाहरण आम हैं। आरोप उगलवाने अथवा झूठे आरोप स्वीकार कराने के नाम पर असंख्य तरीके से उनके नैसर्गिक व संवैधानिक हकों को कुचला जाता है।

पुलिस का राज्य समर्थित दुरुपयोग और भी भयानक है। मारपीट, दंगे, शासकीय कामों में बाधा पहुंचाने से लेकर राजद्रोह तक के झूठे मुकदमे पुलिस के जरिये ही राजनैतिक एवं मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर दर्ज होते हैं। देश भर की जेलों में असंख्य ऐसे कार्यकर्ताओं को जेलों में ठूंसकर रखा गया है जो सरकार के खिलाफ होते हैं या उसकी आलोचना करते हैं। यह कार्य भी पुलिस के जरिये ही होता है। हालांकि अनेक न्यायाधीश अलग-अलग फोरमों या न्यायालयों की आसंदी से प्रकरणों की सुनवाई के दौरान भी यह राय जाहिर कर चुके हैं। कभी वे सरकार को फटकार लगाते हैं तो कभी पुलिस को। फिर भी, पुलिस स्टेशनों के माध्यम से लोगों के मानवाधिकार हनन से न तो सरकारें बाज आती हैं और न ही स्वयं पुलिस।

इस स्थिति के लिए पुलिस के कामों में राजनैतिक दुरुपयोग एक बहुत बड़ा कारण है। जिस पार्टी की सरकार होती है या जिन व्यक्तियों, वर्गों, समुदायों या सम्प्रदायों का सरकार को समर्थन-साथ होता है, उन्हें थानों में विशेष तवज्जो दी जाती है। विरोधियों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार किया जाता है। स्वयं सरकारें ऐसे राजनैतिक दुरुपयोग को बढ़ावा देती हैं।

ऐसा भी नहीं है कि पुलिस में ही सारी खोट है। उन पर भी कई तरह के दबाव होते हैं। सीमित बल संख्या, कम थाने, सुविधाओं का अभाव जैसी परिस्थितियां उनके काम को दुरुह बनाती हैं। उन्हें कई तरह के काम थमाए जाते हैं जिससे लोगों को न्याय देने का उनका काम प्रभावित होता है। भारत में पुलिस का कामकाज सुधारने के लिए 1902-03 में एन्र्ड्यू फ्रेजर व लॉर्ड कर्जन कमेटी से लेकर जस्टिस जेएस वर्मा आयोग (2013) तक कई आयोगों व समितियों ने अपनी रिपोर्टें पेश कीं परन्तु समग्रता व गंभीरता से किसी पर काम नहीं हुआ।

मानवाधिकारों के मामले में भारत की रैंकिंग विश्व सूची में काफी नीचे है। संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य होने के नाते भारत अपने नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए वचनबद्ध तो है पर व्यवहारिक रूप से वह इस दिशा में बेहद असफल राष्ट्रों में से एक है। मानवाधिकारों की रक्षा की पहली सीढ़ी पुलिस स्टेशन ही हैं। देखना यह होगा कि जस्टिस रमन्ना की इस टिप्पणी का सरकार पर कितना असर होता है और वह क्या कदम उठाती है। इस बात में इसलिए शक है क्योंकि वर्तमान की केन्द्र सरकार मानवाधिकार हनन के मामले में व्यापक रूप से जिम्मेदार रही है।

 

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