मोदी शाशनमें लोकतंत्र के लिए एक गहरी चुनौती क्या हम आज आजाद हैं ?

सुप्रीम कोर्ट तक चंडीगढ़ मेयर चुनाव का मामला पहुंचा तो इंसाफ हो गया, लेकिन क्या देश में होने वाली हर नाइंसाफी अदालत की चौखट तक पहुंच पाएगी और क्या हर बार अदालत से इंसाफ मिल पाएगा। अभी किसान फिर से दिल्ली की सीमा पार करने के लिए निकल पड़े हैं और एक बार फिर उन पर पंजाब-हरियाणा की शंभू सीमा पर आंसू गैस के गोले दागे गए।
1989 में एक फिल्म आई थी मैं आजाद हूं। जब यह फिल्म आई थी, तब भारत को आजादी मिले 40 साल हो चुके थे। इन चार दशकों में देश ने कई उतार-चढ़ाव, गम और खुशी के पल देखे। इन सबके बीच लोकतंत्र और संविधान के संरक्षण का भाव फलता-फूलता रहा। उस दौर में समाज में एक बड़ी चिंता भ्रष्टाचार को मिटाने की थी और कई फिल्मों में इसे देश के लिए सबसे बड़ी बुराई के तौर पर प्रस्तुत किया जाता था, जिसके खात्मे के लिए नायक आगे आता है। तब तक न राम मंदिर के आंदोलन के लिए रथ यात्रा निकाली गई थी, न आम लोगों को इस बात का एहसास था कि बाबरी मस्जिद को तोड़ने का अपराध भी किया जा सकता है। उदारीकरण भी देश में तब तक नहीं आया था, इसलिए समाज के उच्च वर्गों की जिंदगियों और सरोकारों से मध्यमवर्गीय लोगों के सरोकार बहुत अलग थे। इसलिए तब इस फिल्म में जिस तरह सियासत, मीडिया और कारोबार जगत का गठजोड़ दिखाकर भ्रष्टाचार का नया रूप दिखाया गया, जिस अंदाज में आम आदमी के सवालों को उठाया गया, वो वास्तविकता से दूर होने लगे थे। फिल्म में मीडिया मालिक कहता है कि झूठ जोर से बोला जाए तो लोग उसे सच मान लेते हैं। वह झूठ के कारोबार से पहले मुख्यमंत्री और फिर दिल्ली की सत्ता पर बैठने की महत्वाकांक्षा पालता है, अपने खिलाफ उठने वाली हर आवाज को कुचल देना चाहता है। उसकी निगाह में लोकतंत्र का कोई मोल नहीं है। आज से 35 साल पहले इस तरह की कहानी काफी हद तक नाटकीय लगी थी, क्योंकि लोकतांत्रिक समाज तो इस खुशफहमी को पाले हुए था कि हिटलरी सोच हिटलर की मौत की साथ ही खत्म हो चुकी है। देश तो यही मानकर चलता था कि अनेकता में एकता वाले भारत में नफरत कभी भी टिक नहीं सकेगी, भारत की हस्ती कभी मिट नहीं सकेगी।
लेकिन आज 2024 के भारत को देखें तो लगता है कि जो कुछ 1989 में दिखाया गया, वह एक तरह से देश की भावी तस्वीर ही थी। पिछले 15 दिनों की कुछ घटनाओं को देखें। चंडीगढ़ मेयर के चुनाव में पीठासीन अधिकारी ने ही मतपत्रों में अपनी ओर से क्रॉस के निशान लगाकर आप और कांग्रेस के गठबंधन को हराया और भाजपा को जिता दिया। चूंकि सारा घटनाक्रम सीसीटीवी में कैद हो गया और आप ने इस मामले को अदालत में ले जाने की हिम्मत दिखाई, इस वजह से सच्चाई सामने आई। अब आप के कुलदीप कुमार को सुप्रीम कोर्ट ने चंडीगढ़ का मेयर बनाया है और पीठासीन अधिकारी अनिल मसीह पर कार्रवाई के आदेश दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की सराहना हो रही है, लोग लोकतंत्र की रक्षा के लिए अदालत को धन्यवाद दे रहे हैं। लेकिन क्या वाकई यह प्रकरण खुश होने का है।
क्या इस घटना को अंत भला तो सब भला कहकर भुलाया जा सकता है, या फिर इसे लोकतंत्र के लिए एक गहरी चुनौती मानते हुए हमेशा याद रखा जाना चाहिए? अदालत ने अनिल मसीह पर कार्रवाई के आदेश दिए हैं, लेकिन मसीह ने क्या अपने लिए वोटों से छेड़छाड़ की थी, या फिर किसी और के फायदे के लिए। वो कौन सी ताकतें हैं, जिन्होंने ड्यूटी पर तैनात एक अधिकारी से असंवैधानिक काम करवाए, क्या कभी उनकी शिनाख्त हो पाएगी। अदालत ने सुनवाई के दौरान वोटों की गिनती के आदेश दिए। क्या इसे सामान्य बात माना जा सकता है। क्योंकि चुनाव करवाने और वोट गिनवाने का काम तो चुनाव आयोग का है। अगर अदालतों में अब चुनाव के फैसले, वोटों की गिनती होने लगे, तो सोचिए कि लोकतंत्र किस बदहाली का शिकार हो चुका है। 30-32 वोट तो अदालत में गिन लिए गए, मगर लोकसभा चुनावों में 97 करोड़ मतदाताओं के वोट तो अदालत में नहीं गिने जा सकते, तो क्या निर्वाचन आयोग इस बात की गारंटी लेगा कि 97 करोड़ वोटों में कोई हेरफेर नहीं होगी।
सुप्रीम कोर्ट तक चंडीगढ़ मेयर चुनाव का मामला पहुंचा तो इंसाफ हो गया, लेकिन क्या देश में होने वाली हर नाइंसाफी अदालत की चौखट तक पहुंच पाएगी और क्या हर बार अदालत से इंसाफ मिल पाएगा। अभी किसान फिर से दिल्ली की सीमा पार करने के लिए निकल पड़े हैं और एक बार फिर उन पर पंजाब-हरियाणा की शंभू सीमा पर आंसू गैस के गोले दागे गए। जब कांवड़ लेकर बेरोजगार नौजवानों की भीड़ सड़कों पर आती है और तब कानून व्यवस्था से लेकर दैनंदिन जीवन प्रभावित होता है, तब तो सरकार हेलीकाप्टर से उन पर फूल बरसाती है। मानो युवाओं के कांवड़ ढोने से देश की तरक्की हो रही हो, समृद्धि आ रही हो। लेकिन जिन किसानों की कड़ी मेहनत से देश का पेट भरता है, खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भरता आती है, उनके साथ दुश्मनों की तरह सलूक किया जा रहा है। किसान अपनी मेहनत का सही दाम ही मांग रहे हैं, मगर सरकार उनसे सौदेबाजी वाले अंदाज में बात कर रही है कि 23 नहीं हम केवल 5 फसलों पर एमएसपी देंगे, वो भी 5 साल के कांट्रैक्ट पर। इसके बावजूद किसान शांति के साथ ही आगे बढ़ने का प्रस्ताव रख रहे हैं और सरकार उन पर आंसू गैस के गोले गिराने के साथ दावा कर रही है कि किसान उसकी प्राथमिकता में हैं और वो बातचीत से समाधान निकालना चाहती है। अगर सरकार की नीयत साफ होती तो समाधान पहली वार्ता में ही निकल जाता, उसके लिए चार बार बैठने की जरूरत नहीं पड़ती।
ऐसा लगता है मानो मैं आजाद हूं का खलनायक किरदार पर्दे से बाहर निकल कर जीवंत हो चुका है। जो अपने खिलाफ उठने वाली हर आवाज को कुचल देना चाहता है। कभी छात्रों को कुचला जाता है, कभी किसानों को, कभी अग्निवीर के जवानों को। विपक्ष को सीधे-सीधे कुचलने की जगह उनमें फूट डलवाकर सत्ता की राह बनाई जा रही है। इस राह में नफरत, हिंसा और अराजकता सबका भरपूर इस्तेमाल हो रहा है। हिंदुस्तान में गांधी की धोती-चादर, और नेहरू की शेरवानी-गुलाब को देखकर पहचान का चलन था, लेकिन अब जालीदार टोपी, पगड़ी और बुरके से पहचान का विनाशकारी मंत्र भक्तों को दिया गया। इस मंत्र के ताजा शिकार बने आईपीएस अधिकारी जसप्रीत सिंह, जो प.बंगाल में उत्तरी 24 परगना जिले के संदेशखाली में अपने दल-बल के साथ ड्यटी पर थे। संदेशखाली में टीएमसी नेता शाहजहां शेख पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न के मामले में विवाद चल रहा है और भाजपा विधायक सुवेंदु अधिकारी यहां पहुंचे थे। उन्हें आगे बढ़ने से रोकने की कोशिश जब जसप्रीत सिंह ने की, तो उन्हें खालिस्तानी कहा गया। जसप्रीत सिंह का आरोप है कि उन्हें भाजपा के लोगों ने खालिस्तानी कहा, क्योंकि उन्होंने पगड़ी पहनी हुई थी। सोशल मीडिया पर इस दौरान हुई झड़प का वीडियो वायरल है, जिसमें जसप्रीत सिंह कह रहे हैं कि धर्म के आधार पर उन पर टिप्पणी नहीं की जाए।
अब तक मुसलमानों को उनके पहनावे और खान-पान के लिए निशाने पर लिया जा रहा था, बार-बार उनसे देशभक्तिसाबित करने कहा जाता है। ईसाइयों के खिलाफ भी ऐसा ही माहौल बनाया जा चुका है। मिशनरी स्कूलों में हिंदुत्व को खतरा है, इसकी झूठी खबरें सोशल मीडिया पर फैलाई जाती हैं। और अब नफरत का विस्तार सिख कौम तक होता दिख रहा है। जसप्रीत सिंह अपने लिए जवाब देने में सक्षम हैं, लेकिन ऐसे कितने पगड़ीधारी हैं, जो अपना बचाव नहीं कर पाएंगे, तो क्या सरकार यह गारंटी दे पाएगी कि वह सबकी रक्षा करेगी। अगर सरकार ऐसी गारंटी नहीं दे सकती, तो फिर सत्तारुढ़ दल क्या फिर से सत्ता पर काबिज होने का अधिकारी है, यह लोगों को सोचना होगा।
प्रधानमंत्री मोदी तीसरी बार सत्ता में आने का दावा तो कर ही चुके हैं, अभी उन्होंने ये तक कह दिया कि उन्हें विदेशों से आमंत्रण भी मिलने लगे हैं, क्योंकि वे भी भाजपा की जीत को लेकर आश्वस्त हैं। ये सीधे लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया को चुनौती देने वाला बयान हैं, क्योंकि इसमें मोदी साफ तौर पर कह रहे हैं कि उन्हें ही नहीं दूसरे देशों के राष्ट्राध्यक्षों तक को चुनाव से पहले नतीजों का पता है। क्या ये भारत की आंतरिक नीति में दखलंदाजी नहीं है। अबकी बार ट्रंप सरकार बोलकर नरेन्द्र मोदी ने जो गलती की थी, यह उसी का दोहराव है। एक ही गलती बार-बार हो तो वो गलती नहीं आदत कहलाती है। क्या लोकतंत्र की उपेक्षा की आदत हम आजादी के अमृतकाल में देख रहे हैं। मैं आजाद हूं से लेकर क्या हम उस दौर में आ पहुंचे हैं, जहां हमें पूछना पड़े कि क्या हम आजाद हैं। या फिर नफरत, स्वार्थ और हिंसा की भ्रष्ट राजनीति के हम गुलाम बन चुके हैं।