लोकतंत्र के साथ मुख्य न्यायाधीश की बेंच द्वारा सच्चा न्याय !
30 जनवरी को हुए चंडीगढ़ मेयर चुनाव में पीठासीन अधिकारी की धांधली के कारण भाजपा को जीत मिली है
30 जनवरी को हुए चंडीगढ़ मेयर चुनाव में पीठासीन अधिकारी की धांधली के कारण भाजपा को जीत मिली है, यह आरोप आम आदमी पार्टी और कांग्रेस दोनों ने लगाए। मामला पहले पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट पहुंचा और वहां से राहत नहीं मिली तो फिर शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाया गया। सुप्रीम कोर्ट में भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड ने कहा, ‘यह लोकतंत्र का मज़ाक है। जो हुआ, हम उससे हैरान हैं। हम लोकतंत्र की इस तरह से हत्या नहीं होने दे सकते।’ देश के मुख्य न्यायाधीश जिस बात पर हैरान थे, यानी लोकतंत्र का मजाक बनाने पर, लोकतंत्र की हत्या करने पर, उस पर विपक्ष समेत देश का एक बड़ा तबका बहुत लंबे वक्त से हैरान ही नहीं, परेशान भी है।
लेकिन सोमवार को यह देखकर राहत मिली कि अब सुप्रीम कोर्ट को भी इस पर दुखद हैरानी हुई है। आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार कुलदीप कुमार की ओर से दाखिल की गई इस याचिका की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चंद्रचूड़, न्यायाधीश जेबी पर्दीवाला और न्यायाधीश मनोज मिश्रा की बेंच कर रही थी। अपनी सख्त टिप्पणी में मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चंद्रचूड़ ने कहा कि-‘पीठासीन अधिकारी मतपत्र में बदलाव करते दिखे हैं। क्या ये एक रिटर्निंग ऑफिसर का बर्ताव होना चाहिए? वो कैमरे की ओर देखते हैं और मतपत्रों के साथ छेड़छाड़ करते हैं। जिस मतपत्र के नीचे क्रॉस का निशान बना हुआ है, उसे ये ट्रे में रख देते हैं। जिस मतपत्र के ऊपर क्रॉस नहीं बना हुआ है, उसे ये बिगाड़ देते हैं और फिर कैमरे की ओर देखते हैं। इनसे बताइए कि सुप्रीम कोर्ट इन्हें देख रहा है। हम लोकतंत्र की ऐसे हत्या नहीं होने देंगे। देश में स्थिरता लाने की सबसे अहम शक्ति चुनाव प्रक्रिया की शुचिता है।’ शीर्ष अदालत से आई इस टिप्पणी को शायद निर्वाचन आयोग से लेकर केंद्र सरकार के तमाम दफ्तरों में चस्पां करने की जरूरत है।
चंडीगढ़ के मेयर पद के चुनाव को लेकर हार का डर शायद भाजपा को पहले से था, इसलिए पहले पीठासीन अधिकारी के बीमार होने को वजह बताकर चुनाव की तारीखें बढ़वाई गईं और जब 30 जनवरी को चुनाव हुए तो संयोग से पीठासीन अधिकारी अनिल मसीह द्वारा की गई तथाकथित छेड़छाड़ कैमरे में कैद हो गई। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने जिसे लोकतंत्र की हत्या कहा है, वह दरअसल लोकतंत्र की सुपारी देने जैसा गंभीर अपराध है, क्योंकि यहां हत्या गैरइरादतन नहीं, बल्कि रणनीति के तहत करवाई गई है। अनिल मसीह को अदालत से फटकार लग चुकी है, हो सकता है उन पर मुकदमा चले और दिखाने को कार्रवाई भी हो। लेकिन उसके बाद क्या लोकतंत्र को खत्म करने का खेल रुक जाएगा। क्या अनिल मसीह को इसका अकेले जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, या फिर अदालत की नजर में वे लोग भी आएंगे, जिनके कहने पर अनिल मसीह जैसे अधिकारी कठपुतलियों की मानिंद काम करते हैं।
अभी तो एक अदने से चुनाव के लिए इतना दुस्साहस दिखाया गया है, लेकिन जहां लोकसभा में बाकायदा आंकड़ों के साथ ऐलान हो रहा है कि हम 400 सीटें जीतेंगे और तीसरी बार सत्ता में आएंगे, वहां और कितने खेल होंगे, क्या इस बारे में भी शीर्ष अदालत को विचार नहीं करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के ही कुछ वकीलों ने बाकायदा ईवीएम के खिलाफ मोर्चा खोलकर बताया है कि किस तरह ईवीएम हैक करके वोटों में गड़बड़ी हो सकती है। लेकिन निर्वाचन आयोग ने अंतिम सत्य की तरह ऐलान कर दिया है कि ईवीएम में कोई गड़बड़ी नहीं हो सकती। अगर निष्पक्ष चुनाव पर जनता के एक तबके को संदेह है, तो क्या उस संदेह को दूर करने के लिए खुद निर्वाचन आयोग को पहल नहीं करना चाहिए या फिर गुलाम भारत की तरह जनता की बात तभी सुनी जाएगी, जब कोई आंदोलन खड़ा हो। क्या सुप्रीम कोर्ट ईवीएम पर कोई स्वत: संज्ञान लेकर देख पाएगा कि इसमें भी लोकतंत्र को कुचला जा रहा है या नहीं।
चंडीगढ़ चुनाव में धांधली के आरोप तो आम आदमी पार्टी और कांग्रेस दोनों ने शुरु से लगाए हैं, लेकिन शीर्ष अदालत ने यह तभी देखा, जब वहां याचिका दाखिल हुई। अगर याचिकाकर्ता हिम्मत हार जाते, तब क्या हत्या किसी को नजर नहीं आती। यह केवल एक मामला ही नहीं है, जहां लोकतंत्र की प्रक्रिया को कुचला गया हो। सोमवार को ही झारखंड में चम्पाई सोरेन की सरकार ने विश्वासमत हासिल कर अपनी सरकार बचा ली, वर्ना झारखंड का हश्र भी बिहार की तरह हो सकता था। लेकिन इस बचाव के लिए कितने यत्न करने पड़े, क्या यह शीर्ष अदालत को नहीं दिखा। विधायकों की खरीद-फरोख्त अब आम बात हो गई है, इसलिए विधायकों को बचाने के लिए रिजार्ट पॉलिटिक्स का नया चलन देश में निकला है। अभी बिहार में बहुमत परीक्षण से पहले कांग्रेस अपने विधायकों को सुरक्षित रखने के लिए बाहर ले जा चुकी है।
कहीं भी चुनाव होते हैं और बहुमत के आंकड़े में जरा सी ऊंच-नीच की आशंका होती है, तो फौरन विधायकों की बाड़ेबंदी शुरु हो जाती है। ये लोकतंत्र की सुपारी लेने के ही परिणाम हैं। देश का सत्तारुढ़ दल अपनी सत्ता राज्यों में कायम करने के लिए बाकायदा आपरेशन लोटस चलाता है, राज्यपाल जैसे संवैधानिक पदों पर बैठे लोग खुलकर सत्ता पक्ष के हक के लिए काम करते हैं, क्या यह सुप्रीम कोर्ट को अब तक नजर नहीं आया।
लोकतंत्र की हत्या का सिलसिला केवल चुनावों में धांधली या सत्ता हथियाने तक ही सीमित नहीं है। लोगों के अधिकारों को कई तरह से छीना जा रहा है। इसका ज्वलंत उदाहरण है उमर खालिद की जमानत याचिका पर सुनवाई का बार-बार टलते जाना। याचिका पर फैसला जो भी आए, लेकिन लचर बहानों की आड़ में बार-बार सुनवाई को टालना भी एक नागरिक के लोकतांत्रिक अधिकारों का उल्लंघन क्या नहीं माना जाना चाहिए। इसी तरह जो व्यक्ति हत्या और बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों के कारण जेल में है, वह चुनाव के पहले बार-बार पैरोल हासिल कर बाहर आ जाता है, तो क्या इसमें लोकतंत्र की हत्या नहीं हो रही। संसद से एक साथ डेढ़ सौ सांसदों का निलंबन भी लोकतंत्र की हत्या जैसा ही था।
चंडीगढ़ मामले से पहले बिल्किस बानो प्रकरण में भी शीर्ष अदालत ने पीड़िता के हक में फैसला सुनाते हुए उनके दोषियों को वापस जेल भेजने के आदेश दिए थे। लेकिन यहां भी सवाल वही है कि अगर बिल्किस बानो हिम्मत हारतीं या उनके साथ देश की कुछ जुझारू महिलाएं खड़ी होकर अदालत नहीं पहुंचती तो क्या उनके दोषी आजाद घूमते रहते। यह सही है कि न्यायपालिका का अपना कार्यक्षेत्र और दायरा है, और वह कार्यपालिका या विधायिका के अधिकार क्षेत्र में दखल नहीं कर सकता। लेकिन जब घर के एक हिस्से में आग लगी हो तो वहां कई बार सीमाएं लांघकर भी बचाव की कोशिश करनी पड़ती है। चंडीगढ़ से शुरु हुई यह कोशिश और आगे बढ़े, तभी लोकतंत्र के साथ सच्चा न्याय होगा।