मोदी शासनकाल में मंदिर और चुनाव के बीच का गणतंत्र दिवस
वैसे तो राष्ट्रीय पर्वों को राजनीतिक हलचलों से अछूता और अलग-थलग रखा जाना चाहिये परन्तु देश की हालिया राजनीतिक संस्कृति ने ऐसा बदलाव लाया है कि अब देश का कोई भी पहलू राजनीति से अलहदा नहीं रह गया है
वैसे तो राष्ट्रीय पर्वों को राजनीतिक हलचलों से अछूता और अलग-थलग रखा जाना चाहिये परन्तु देश की हालिया राजनीतिक संस्कृति ने ऐसा बदलाव लाया है कि अब देश का कोई भी पहलू राजनीति से अलहदा नहीं रह गया है। राष्ट्रीय पर्व भी कैसे रह सकता है! इसलिये यह देखने और कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि शुक्रवार को पड़ने वाला गणतंत्र दिवस दो बड़ी परिघटनाओं के बीच आया है- अयोध्या में हाल में (22 जनवरी) हुआ राममंदिर का उद्घाटन तथा तीनेक माह बाद होने वाला आम चुनाव। इस परिप्रेक्ष्य में इस साल के गणतंत्र दिवस की विशेष अहमियत हो गई है; और उसके साथ ही नागरिकों के लिये कुछ विशिष्ट भूमिका की वह मांग भी कर रहा है। देखना यह है कि जिस संविधान के लागू होने के नाते यह दिवस मनाया जाता है, उसके निर्दिष्ट प्रावधानों के तहत आसन्न लोकसभा चुनाव में देश अपने लिये किस तरह की नियति को चुनता है।
2014 में जब नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने थे, तब उन्होंने कहा था कि यह लोकतंत्र व संविधान की ही महिमा है कि उनके जैसा एक गरीब घर से आया व्यक्ति देश के सर्वोच्च पद तक पहुंच सका है। फिर उन्होंने संसद भवन (पुराने) को दण्डवत भी किया था। इससे आशा बंधी थी कि वे संविधान के अनुसार अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते रहेंगे। देश ने कई तरह के राजनीतिक मतों का अनुसरण करने वाली सरकारें देखी हैं। अपने दम पर आई हुईं और गठबन्धन वाली भी। अपने वैचारिक दर्शन तथा राजनीतिक मान्यताओं के मुताबिक सभी ने अपने-अपने ढंग से काम किया- किसी ने अच्छा तो किसी ने बुरा। तो भी सभी ने संविधान का सम्मान बरकरार रखा और उसके दिशानिर्देशों के अनुसार ही शासन किया। श्री मोदी एवं उनकी भारतीय जनता पार्टी के विचारों से वाकिफ़ होने के बाद भी देशवासी कतई आशंकित नहीं थे क्योंकि उन्हें संविधान शक्ति का भान था। इतना भरोसा कि वे मानते थे कि कोई भी शासक अगर ताकतवर हुआ तो संविधान निर्मित शासन प्रणाली उसे सीधे रास्ते पर ले आएगी।
अपने दो कार्यकाल मिलाकर तकरीबन 10 वर्ष पूरा करने के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने भारत को लोकतंत्र की जननी बताते-बताते संविधान को जिस कदर अपने पक्ष में तोड़ा-मरोड़ा, उससे लोगों के सामने एक अभूतपूर्व संकट आ खड़ा हुआ है। देश के सामने सबसे बड़ी लोकतांत्रिक आपदा के रूप में इंदिरा गांधी द्वारा लगाया गया आपातकाल था, परन्तु मौजूदा सरकार ने जिस तरह की निरंकुश कार्यपद्धति अपनाई है, उसे अघोषित आपातकाल से कहीं ज्यादा खतरनाक माना जा रहा है।
मोदी शासनकाल को देखें तो उसकी बुनियाद पहले कांग्रेस मुक्त और फिर विपक्ष मुक्त भारत की अवधारणा के साथ डाली गई। जिस संविधान में विपक्ष को सत्ता पक्ष की बराबरी का सम्मान दर्ज है, उसे प्रधानमंत्री ने आये दिन आलोचना, अपमान और उपहास का विषय बनाकर रख दिया। जिस लोकतांत्रिक आचरण की अपेक्षा संविधान, देश व अवाम करता है- श्री मोदी उसके विपरीत व्यवहार करते पाये गये। संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करते हुए नरेंद्र मोदी सर्वशक्तिमान बन बैठे हैं जिनका विधायिका एवं कार्यपालिका पर पूरा नियंत्रण है। सरकार या किसी व्यक्ति को ताकतवर बनाने से रोकने के लिये बने केन्द्रीय निर्वाचन आयोग से लेकर तमाम जांच एजेंसियों का आज जमकर दुरुपयोग हो रहा है। कई विरोधी दल के नेता छापेमारी से बचने के लिये भाजपा की शरण में आते हैं और इसी प्रक्रिया में कई राज्यों में भाजपा की सरकारें अल्पमत के बावजूद बनती हैं या चुनाव हारने के बाद भी वह सत्ता पा लेती है।
भारत की शासन प्रणाली और जिस मोर्चे पर कमजोर की गई, वह है शक्ति पृथक्करण। हमारे संविधान निर्माताओं ने बहुत समझदारीपूर्वक शासन की शक्तियों का विकेन्द्रीकरण किया था। निरंकुशता तभी आती है जब एक ही व्यक्ति के हाथों में सारी ताकत सिमट जायें। मोदी-काल इस मायने में भी लोगों को निराश व भयग्रस्त करता आया है कि पीएम के हाथ में असीम शक्ति आ गई है। कहने को सारी संस्थाएं अलग-अलग ही कार्यरत हैं परन्तु कोई भी स्वतंत्र निर्णय लेने में असमर्थ बना दी गई हैं। संसद से लेकर मंत्रिमंडल तक और सभी संस्थाएं फैसलों के लिये मोदी का मुंह ताकती हैं। कोई भी आपत्ति उठाने या प्रश्न करने के नाकाबिल है।
परस्पर संवाद, विचार-विमर्श और मतभेद लोकतंत्र के आधार हैं। संसदीय प्रणाली में इसकी पर्याप्त गुंजाइशें एवं मंच बनाये गये हैं। इससे अलग राह पर मोदी सरकार चल रही है। संसद में बिना चर्चा के कानून पारित होते हैं, विपक्षी सदस्यों के किसी सवाल का जवाब नहीं दिया जाता। सरकार को असहज करने वाले वाक्यांशों को कार्यवाही से निकालना या प्रतिपक्षी सांसदों का निलम्बन नयी परिपाटी है। मोदी मीडिया से बात नहीं करते और संविधान ने जिस संघवाद का सुंदर नियोजन किया है वह भी टूट चुका है।
देश के लोकतांत्रिक मूल्यों की बात करें तो स्वतंत्रता, समानता, बन्धुत्व एवं धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत ध्वस्त हो चुके हैं। धु्रवीकरण मोदी का प्रमुख एजेंडा है जिसके बल पर भाजपा ने अनंत काल तक अपनी सत्ता बनाए रखने का राजनीतिक डिजाइन रचा हुआ है जिसका चरम अयोध्या का राममंदिर है जिसे आनन-फानन में इसीलिये तैयार किया गया कि उसका उद्घाटन चुनाव के पूर्व हो सके। देशवासियों को इस गणतंत्र दिवस पर सोचना होगा कि वे अपनी नागरिक स्वतंत्रता और देश के लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाने के लिये आने वाले चुनाव का कैसा उपयोग करेंगे। यही संकल्प जनता और देश के भविष्य का निर्धारण करेगा।