देश का लक्ष्य राम मंदिर निर्माण भर नहीं हो सकता राम राज्य जन मानस का अंतिम लक्ष्य :केएन गोविंदाचार्य

भाजपा के थिंक टैंक रहे गोविंदाचार्य से खास बातचीत, राम राज्य को बताया जन मानस का अंतिम लक्ष्य….
नई दिल्ली
कभी भाजपा के थिंक टैंक रहे केएन गोविंदाचार्य का मानना है कि देश का लक्ष्य राम मंदिर निर्माण भर नहीं हो सकता। यह यात्रा राम मंदिर से रामराज्य की ओर मुड़नी है। गोविंदाचार्य ने संवाददाता से राम मंदिर निर्माण और भविष्य के भारत पर विस्तार से बात की।
कभी भाजपा के थिंक टैंक रहे केएन गोविंदाचार्य का मानना है कि देश का लक्ष्य राम मंदिर निर्माण भर नहीं हो सकता। यह यात्रा राम मंदिर से रामराज्य की ओर मुड़नी है। आज जब अयोध्या में राम मंदिर बनकर तैयार है और 22 जनवरी को प्राण प्रतिष्ठा होने वाली है तो गोविंदाचार्य से बात करना अहम है। वह इसलिए कि भाजपा के 1989 के पालमपुर अधिवेशन के उस प्रस्ताव को तैयार करने का पूरा होमवर्क इन्होंने ही किया था, जिसमें पहली बार भाजपा ने राम मंदिर निर्माण के लिए प्रतिबद्धता दिखाई। 1990 की वरिष्ठ भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा के सूत्रधार भी आप ही बने। गोविंदाचार्य ने संवाददाता से राम मंदिर निर्माण और भविष्य के भारत पर विस्तार से बात की। पेश है इसके अंश…
गोविंद जी, देश का लक्ष्य सिर्फ राम मंदिर का निर्माण है या इसके आगे भी कुछ बात होनी चाहिए?
नहीं, लक्ष्य मंदिर निर्माण भर नहीं हो सकता। हमारा मानना रहा है कि यह यात्रा राम मंदिर से रामराज्य की ओर मुड़े। आज यह युग की पुकार है। देश भौतिक दृष्टि से भी बढ़ेगा तभी, जब देश की अपनी पहचान तासीर के अनुसार राजनीति, समाजनीति, समाज नीति व अर्थ नीति की ओर चले। पूरी दुनिया में यही हुआ है। कोई भी देश अपने स्वत्व बोध से आगे बढ़ता है। स्वत्व बोध से ही स्वाभिमान का जागरण होता है। स्वाभिमान से स्वावलंबन और आत्मविश्वास बढ़ता है। इसकी भौतिक अभिव्यक्ति समृद्धि की सीढ़ियां चढ़ना और संस्कृति की बुनियाद को मजबूत करना की प्रक्रिया सधती है। जो लोग राम के काम में लगे हैं, उम्मीदन इस दिशा में भी सोच रहे होंगे।
अवधारणा के स्तर पर शुरुआत में आप लोगों ने भी तो कुछ विमर्श किया होगा?
हुआ था ना। 1990 की कार सेवा और 1991 का चुनाव हो जाने के बाद इस दिशा में कोशिश हुई थी। इसमें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को राम राज्य को व्याख्यायित करना था। संघ परिवार को इस दिशा में बढ़ना था लेकिन तैयारी कम रही होगी, तभी उस वक्त का सारा विमर्श छद्म धर्मनिरपेक्षता के राजनीतिक खांचे में सिमट गया। अभी इतिहास ने फिर से मौका दिया है। इसमें समृद्धि संस्कृति के अधिष्ठान पर हो और भारत की संस्कृति के केंद्र में है सर्वात्मैक्य का दर्शन। हम सर्वसमावेशी हों, इसके लिए भी यह दर्शन दिशा-दर्शक है। इस दर्शन के प्रकाश में संस्कृति के अधिष्ठान पर समृद्धि की साधना अभीष्ट है।