चुनाव प्रचार में बरकरार रहे लोकतंत्र की शोभा यह जिम्मेदारी चुनाव आयोग की ?

हमसे लड़ने की हिम्मत तो जुटा लोगे लेकिन कमीनापन कहां से लाओगे
हमसे लड़ने की हिम्मत तो जुटा लोगे लेकिन कमीनापन कहां से लाओगे? फ़ौजियों का गोश्त कौवों को खिलायेंगे। फिल्म चाइना गेट के ये संवाद है। जिन्हें फिल्म में जगीरा का किरदार निभाने वाले अभिनेता मुकेश तिवारी ने भाजपा प्रत्याशी कैलाश विजयवर्गीय की चुनावी सभा में सुनाया। इस पर सभा में उपस्थित लोगों ने तो तालियां बजाई ही, खुद भाजपा प्रत्याशी भी इस पर ताली बजाते दिखे।
फिल्म में जिस पृष्ठभूमि में ये संवाद बोले गए, वो अलग बात है, मगर चुनाव प्रचार में इन संवादों के बोले जाने पर सियासी बखेड़ा खड़ा हो गया है। कांग्रेस ने इन संवादों पर सवाल उठाए और कहा कि इन गुणों की हमें जरूरत नहीं, ये भाजपा को ही मुबारक। तो भाजपा ने पलटवार कर दिया कि अब कांग्रेस फिल्मी संवाद में भी राजनीति तलाश रही है। भाजपा और कांग्रेस के तर्कों में कौन सही है और कौन गलत, ये तय करने का काम चुनाव आयोग का है, बशर्ते ये मामला आयोग तक पहुंचे। इतना जरूर है कि अगर किसी और मंच या मौके पर इन संवादों पर कोई आपत्ति नहीं करता। मगर चुनाव के दौरान खास तौर पर ये कहना कि हमसे लड़ने की हिम्मत तो जुटा लोगे, लेकिन कमीनापन कहां से लाओगे, निश्चित ही अशोभनीय लग रहा है।
चुनाव प्रचार में लोकतंत्र की शोभा बनी रहे, यह जिम्मेदारी चुनाव आयोग की है। कड़वी सच्चाई है कि सत्ता हासिल करने के लिए शातिर चालें चली जाएंगी, हथकंडे अपनाए जाएंगे, वोट हासिल करने के लिए साम-दाम-दंड-भेद सभी तरीकों का इस्तेमाल भी होगा। अगर ये मान लिया जाए कि सभी उम्मीदवार नैतिकता की मिसालें कायम करते हुए पूरी ईमानदारी से चुनाव लड़ेंगे तो यह खुद को धोखा देने वाली बात है। हकीकत यही है कि चुनाव में जहां मौका मिलेगा, वहां बेईमानी होगी, चाहे वो किसी भी तरह की हो। इसलिए देश में निर्वाचन आयोग की व्यवस्था की गई है, उसे हर तरह के राजनैतिक दबाव से मुक्त रखा गया है, ताकि निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव हो सकें। चुनाव में होने वाली बेईमानियों पर अंकुश लग सके। अफसोस है कि निर्वाचन आयोग से लोकतांत्रिक देश के नागरिकों को जो उम्मीदें थीं, वो उन पर खरा नहीं उतर पा रहा है। देश की जांच एजेंसियों से भी ऐसी ही निराशा हाथ लगी है। ऐसा लग रहा है मानो इन सबकी डोर एक ही जगह बंधी है और वहीं से सारे खेल खेले जा रहे हैं। इन डोरियों से बंधी संस्थाओं में कब किसको किस मौके पर उठाना है, कितना आगे बढ़ाना है, कितना पीछे खींचना है, ये सब कोई और ही तय कर रहा है। जनता को केवल मंच पर होने वाली हलचल दिख रही है, उसके पीछे क्या चल रहा है, इसका अहसास ही नहीं हो रहा।
जिस मध्यप्रदेश में कमीनापन जैसे निम्नस्तरीय शब्द को चुनावी मंच से कहा गया, उसी मध्यप्रदेश में भाजपा प्रत्याशी और केन्द्रीय कृषि मंत्री नरेन्द सिंह तोमर के सुपुत्र देवेंद्र सिंह तोमर से जुड़े कुछ वीडियो पिछले दिनों वायरल हुए। सत्ता के खेल में सीडी, वायरल वीडियो, फोन टैपिंग जैसे हथियारों का इस्तेमाल अब नयी बात नहीं रह गई है। राजनैतिक दल अक्सर चुनाव के वक्त इन्हें एक-दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल करते हैं। श्री तोमर के बेटे के जो वीडियो सामने आए हैं, उनमें शुरुआती दो वीडियो में पहले सौ और फिर पांच सौ करोड़ के लेन-देन की बात की गई है और इसके बाद एक तीसरा वीडियो भी आया, जिसमें एक शख्स ने दावा किया कि पहले दो वीडियो में उसी से देवेंद्र तोमर की बातचीत हो रही थी। उसने बताया कि मामला सौ-पांच सौ नहीं, दस हजार करोड़ का है। इसके अलावा विदेश में गांजे की खेती की बात भी इस शख्स ने की। तोमर परिवार के सदस्यों के साथ व्हाट्स ऐप संदेशों के आदान-प्रदान से लेकर उनके आवास पर पार्सल भिजवाने जैसे कई खुलासे इस शख्स ने किए और साफ-साफ कहा कि कोई मीडिया संस्थान उनसे संपर्क करेगा तो वो सारे सबूत दे देंगे।
न खाऊंगा, न खाने दूंगा। सारे भ्रष्टाचारियों का हिसाब लूंगा। ऐसे दावे करने वाले नरेन्द्र मोदी के लिए ये एक प्रकरण काफी था कि वे तुरंत हरकत में आते और अपनी केबिनेट के एक वरिष्ठ मंत्री का नाम इस मामले में सामने आने पर उनसे इस्तीफा लेकर नैतिकता के उच्च मापदंड का परिचय देते। देश की ईडी और सीबीआई जैसी जांच एजेंसियां जो जरा सी भनक के आधार पर विपक्षी नेताओं के ठिकाने पर बड़े पैमाने पर छापेमारी कर उनसे घंटों पूछताछ के उदाहरण पेश कर चुकी है, वो जांच एजेंसियां न जाने क्यों अब तक मध्यप्रदेश नहीं जा पाई हैं। जबकि उससे लगे छत्तीसगढ़ और राजस्थान में ईडी, सीबीआई का आना-जाना लगा रहता है। चुनाव आयोग के कान भी इस वीडियो को देखकर खड़े हो जाने चाहिए थे, क्योंकि स्वतंत्र चुनाव तभी संभव है, जब उसमें बेनामी पैसे या काले धन का इस्तेमाल नहीं हो। अगर बात दस हजार करोड़ की है, तो क्या आयोग ये सोचकर निश्चिंत बैठा रह सकता है कि इस रकम से एक धेला भी चुनाव में इस्तेमाल नहीं हो रहा होगा। और फिल्म दुनिया के लोगों के जूतों में ड्रग्स को सूंघ कर कार्रवाई करने वाले नारकोटिक्स विभाग को क्या इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा कि देश में बैठा कोई शख्स विदेश में जमीन लेकर गांजे की खेती की योजना बना रहा है। आखिर ये गांजा उगाकर किस बाजार में बेचने की तैयारी हो रही है।
इन वीडियो के सामने आने के बाद देश में ऊपर से नीचे तक हड़कंप मच जाना चाहिए था। असल में ये वीडियो लोकतंत्र की नींव पर रखे टाइम बम के समान हैं, जो फटेंगे तो सब कुछ चिथड़ा-चिथड़ा हो जाएगा। मगर सरकार और जिम्मेदार एजेंसिया जिस तरह इससे बेपरवाह नजर आ रही हैं, उनसे और अधिक चिंता हो रही है। नरेन्द्र सिंह तोमर इन वीडियो को झूठा बताकर जांच की मांग कर रहे हैं। जबकि केंद्र और राज्य दोनों जगह भाजपा की ही सरकारें हैं, तो उनके लिए और आसान है कि वे जांच के आदेश दें। देश भी तो यही चाह रहा है कि इन वीडियो का सच सामने आए। लड़ने के लिए कमीनापन नहीं. सही मायनों में हिम्मत की जरूरी होती है। क्या मोदी सरकार ये हिम्मत दिखाएगी।