मणिपुर त्रासदी से ‘व्यथित’ मोहन भागवत का पांच राज्यों के चुनावों के परिणामों का असर तो नहीं ?

उत्तर पूर्वी राज्य मणिपुर में हुए मैतेई-कुकी संघर्ष से उत्पन्न त्रासदी से लोग बहुत व्यथित हुए थे। इस साल के मई महीने से जारी साम्प्रदायिक दंगों में सैकड़ों मारे गये हैं
उत्तर पूर्वी राज्य मणिपुर में हुए मैतेई-कुकी संघर्ष से उत्पन्न त्रासदी से लोग बहुत व्यथित हुए थे। इस साल के मई महीने से जारी साम्प्रदायिक दंगों में सैकड़ों मारे गये हैं, हजारों बेघर हुए हैं, अनेक पूजा स्थलों को नुकसान पहुंचा और करोड़ों रुपयों की सम्पत्ति नष्ट हुई है। इसने पूरे देश को ही नहीं वरन दुनिया भर को हिलाकर रख दिया था। अनेक देशों में भी इन दंगों की गूंज सुनाई दी थी। विश्व भर के कई अखबारों ने इस घटना को विस्तार से छापा था। इसके बावजूद इस घटना को लेकर भारतीय जनता पार्टी खामोश रही, उसके नेता खामोश रहे।
केन्द्र सरकार मौन थी और मणिपुर सरकार ने भी इस घटनाक्रम को दबाये रखा था। 3 मई का अगर वह वीडियो वायरल न होता तो शायद यह पूरा का पूरा घटनाक्रम दफ्न कर दिया जाता, जिसमें दो कुकी महिलाओं को नग्न कर उनकी परेड निकाली गई थी। उसके पहले उनका उत्पीड़न हुआ था। मीडिया से दूर भागने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी संसद के विशेष सत्र के पहले संक्षिप्त बयान संसद भवन के बाहर देना पड़ा था, क्योंकि इसका संज्ञान स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने लिया था। मोदी ने दुख भरे स्वरों में कहा कि इस घटना से उन्हें बहुत पीड़ा पहुंची है।
और भी जिन लोगों को इस घटना से पीड़ा पहुंची, उनमें अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत का नाम भी शामिल हो गया है। विजयादशमी को अपना परम्परागत भाषण देते हुए भागवत ने ‘इस घटना के पीछे विदेशी ताकतों का हाथ’ बताया। साथ ही उन्होंने केन्द्र सरकार की असफलता को एक तरह से कबूल करते हुए कहा कि ‘गृह मंत्री अमित शाह को वहां जाना चाहिये, मंत्रियों को जाकर बैठना चाहिये।’ मणिपुर की घटना को उन्होंने भारत की अखंडता और एकता से भी जोड़ दिया। सम्भव है कि इस बयान के पीछे लोगों को भागवत की सदाशयता, दंगा पीड़ितों के प्रति सहानुभूति या प्रेम भाव दिखे परन्तु उनके इस बयान की तह में जाने की आवश्यकता है तभी इसकी विसंगतियां और संघ प्रमुख की मंशा साफ होगी।
पहली बात तो यह है कि स्वयं भागवत को इस बात का जवाब देना चाहिये कि उन्हें इतने दिनों के बाद इस घटना की याद क्यों आई और उन्हें यह क्योंकर महसूस हुआ कि शाह एवं अन्य मंत्रियों को वहां जाना चाहिये? क्या इस घटना की जानकारी संघ प्रमुख को अब जाकर हुई है? सच तो यह है कि यह निर्देश उन्हें आज से 2 माह पहले देना चाहिये था जब यह घटना जगजाहिर हुई थी। अगर उनके कहे के बाद भी सरकार का कोई नुमाईंदा वहां नहीं जाता तो स्वयं भागवत को वहां जाना चाहिये था और पीड़ितों से मिलना चाहिये था। आदिवासियों के प्रति प्रेम दिखलाने वाले और संघ के मुखिया होने के नाते उन्हें अपने कार्यकर्ताओं को भी निर्देश देना था कि वे वहां जाकर पीड़ितों की सेवा करें। भागवत के मौन रहने का कारण सम्भवत: यही है क्योंकि वहां के संघर्ष में ज्यादातर कुकी ही पीड़ित हैं जो कि ईसाई समुदाय के हैं और उत्पीड़क मैतेई हिन्दू। यह स्थिति संघ के सामाजिक एवं भाजपा के राजनैतिक एजेंडे के एकदम मुफ़ीद है जिसके माध्यम से उनका साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का लक्ष्य सधता है।
दूसरे, इस पर भी गौर करना चाहिये कि यह बयान वैसे तो संघ के सालाना जलसे में दिया गया है पर उसके पीछे एक कारण यह भी साफ दिखता है कि अगले माह होने जा रहे 5 राज्यों (राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम) के विधानसभा चुनावों में भाजपा की हालत बहुत नाज़ुक है। भाजपा का नफ़रती एवं विभाजनकारी एजेंडा लोगों के सामने बहुत स्पष्ट हो गया है। हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक के चुनावों में भाजपा को मिली पराजयों के बाद अगर इन राज्यों में उसकी स्थिति ठीक रहती तो शायद संघ व भाजपा उस एजेंडे को आगे बढ़ाते परन्तु सम्भवतया संघ को अब एहसास हो गया होगा कि उस पिच पर लम्बी पारी खेलना बहुत मुश्किल है; जीतना तो और भी दूर की बात है।
विदेशी शक्तियों का उल्लेख कर भागवत अपनी सरकार को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। अगर ऐसा है तो इसकी जिम्मेदार भी मोदी सरकार की है। फिर, केन्द्र के साथ मणिपुर में भी तो उन्हीं की यानी कि भाजपा की सरकार है। जिस तरह से अब तक भाजपा के नेता डबल इंजिन की सरकारों को महिमा मंडित करते आये हैं, तो भागवत को स्वीकार करना चाहिये कि दोनों ही इंजिन नाकाम साबित हुए हैं और अब इन्हें बदलने की ज़रूरत है। याद हो कि सीमावर्ती राज्यों में होने वाली घुसपैठ पर यही आरएसएस और ये ही नेता विपक्षी सरकारों-दलों को पानी पी-पीकर कोसते थे। उनका आरोप होता था कि बाहरी तत्व गैर भाजपायी केन्द्र-राज्यों की सरकारों की सांठगांठ से भारत आकर गड़बड़ियां करते हैं। भागवत आज क्या कहेंगे? उम्मीद है कि संघ अब समस्या की गहनता से वाकिफ़ हो चुके होंगे।
इस बयान का कारण संघ प्रमुख की यह चिंता भी हो सकती है कि इन पांच राज्यों के चुनावों के परिणामों का असर, जो 3 दिसम्बर को घोषित होंगे, 2024 के लोकसभा चुनावों पर पड़ना तय है। इन राज्यों के साथ आगामी लोकसभा चुनावों के तमाम सर्वे जिस तरह के परिणामों का अनुमान लगा रहे हैं, संघ प्रमुख का चिंतित होना लाजिमी है। कोई यह न समझे कि भागवत का बयान सदाशयता व समरसता के लिये या फिर वाकई देश की अखंडता-एकता को उत्पन्न कथित खतरे की चिंता में दिया गया है। इसके सामाजिक नहीं वरन राजनैतिक निहितार्थ हैं।