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ईडी की शक्ति को दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा दिये गये स्पष्टीकरण से भाजपा को झटका ?

दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा दिये गये एक अहम फैसले से केन्द्र द्वारा किये जा रहे प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के दुरुपयोग की कोशिशों को झटका लग सकता है

दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा दिये गये एक अहम फैसले से केन्द्र द्वारा किये जा रहे प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के दुरुपयोग की कोशिशों को झटका लग सकता है। पिछले 9 साल से अधिक समय से जिस प्रकार मोदी सरकार ईडी का इस्तेमाल अपने राजनैतिक विरोधियों के लिये कर रही है, वह सम्भवत: दिल्ली हाईकोर्ट के इस फैसले से रुक सकता है। ईडी की शक्तियों के स्पष्टीकरण के बाबत दिया गया यह निर्णय ऐतिहासिक तो है ही, इसलिये भी दूरगामी हो सकता है क्योंकि इससे भारतीय जनता पार्टी सरकार की मनमानी पर अंकुश लग सकता है। जिस तरह से ईडी, आयकर एवं सीबीआई की शक्तियों का इस्तेमाल केन्द्र सरकार कर रही है, उससे ज्यादातर विरोधी दलों के नेता, वैचारिक विरोधी आदि परेशान हैं, उनके लिये भी यह राहत की बात होगी।

आशीष मित्तल नामक व्यक्ति द्वारा एडुकॉम्प मामले में प्रवर्तन मामले की सूचना रिपोर्ट (ईसीआईआर) दाखिल याचिका पर सुनवाई करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट के गुरुवार को दिये फैसले में स्पष्ट किया गया कि ‘धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) की धारा 50 के तहत किसी व्यक्ति को सम्मन जारी करने की प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की शक्ति में उस व्यक्ति की गिरफ्तारी की शक्ति शामिल नहीं है।’ हालांकि अदालत ने 2020 में ईडी द्वारा दर्ज ईसीआईआर रद्द करने की मांग करने वाली आशीष मित्तल नामक व्यक्ति की याचिका खारिज कर दी पर यह महत्वपूर्ण टिप्पणी भी की। मित्तल को 21 अगस्त को ईडी के समक्ष पेश होने का सम्मन जारी किया गया था। उन्हें आशंका थी कि उन्हें अवैध रूप से हिरासत में लिया जाएगा या गिरफ्तार किया जाएगा अथवा बलि का बकरा बनाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि उन्हें ईसीआईआर की कॉपी नहीं दी गई थी।

जस्टिस अनूप भंभानी ने कहा कि ‘गिरफ्तारी की शक्ति पीएमएलए की धारा 50 में स्पष्ट रूप से अनुपस्थित है, जो ईडी अधिकारियों को किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने का अधिकार देती है, बशर्ते कि वे उसमें उल्लिखित शर्तों को पूरा करते हों।’ अदालत ने साफ किया कि ‘पीएमएलए की धारा 50 के तहत किसी व्यक्ति को सम्मन जारी करने और दस्तावेजों के उत्पादन और बयान दर्ज करने की आवश्यकता की शक्ति, जो सिविल अदालत की शक्तियों के समान है, किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने की धारा 19 के तहत शक्ति से अलग है।’ फैसले में आगे कहा गया- ‘हालांकि पीएमएलए की धारा 19 ईडी के नामित अधिकारियों को किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने का अधिकार देती है, जो उस प्रावधान में उल्लिखित शर्तों को पूरा करने के अधीन है, लेकिन यह स्पष्ट है कि गिरफ्तारी की शक्ति धारा 50 में नहीं है और न ही पीएमएलए की धारा 50 के तहत जारी किए गए सम्मन का स्वाभाविक परिणाम का कोई मतलब है।’

जस्टिस भंभानी ने कहा कि पीएमएलए की धारा 19 और 50 दो अलग और विशिष्ट प्रावधान हैं और एक के तहत शक्तियों के प्रयोग को इस आशंका पर नहीं रोका जा सकता है कि इससे दूसरे के तहत शक्तियों का प्रयोग हो सकता है। अदालत ने कहा, ‘अगर इसकी अनुमति दी जाती है तो पीएमएलए की धारा 50 के तहत दस्तावेज पेश करने या शपथ पर बयान देने के लिए बुलाया गया कोई भी व्यक्ति, केवल यह आशंका व्यक्त करते हुए ऐसे समन का विरोध कर सकता है कि उसे ईडी के हाथों पीएमएलए की धारा 19 के तहत गिरफ्तारी का सामना करना पड़ सकता है। ऐसी स्थिति वैधानिक प्रावधान के विरूद्ध होगी।’

जस्टिस भंभानी ने इस फैसले में ईडी की शक्तियों के मनमाने दुरुपयोग पर विस्तार से व्याख्या की है। इस फैसले का न्यायिक क्षेत्र में तो असर पड़ेगा ही, वर्तमान सियासी माहौल पर भी सकारात्मक प्रभाव होगा। न्यायिक क्षेत्र में इसलिये कि इसके जरिये ईडी की शक्तियों को लेकर स्पष्टता आयेगी। फिलहाल जिन्हें गिरफ्तारी का भय दिखाकर मोदी एवं गृह मंत्री अमित शाह शक्तिशाली हो गये हैं, उस पर अंकुश लगेगा। अनेक विरोधी दलों के नेताओं एवं समर्थकों पर जिस तरह से ईडी के जरिये भाजपा सरकार निरंकुश हुई है, उस पर भी रोक लगने की उम्मीद है। दिल्ली सरकार के तीन मंत्री जहां ईडी मामलों में जेलों में हैं वहीं छत्तीसगढ़ में कई सरकार (कांग्रेस) समर्थकों को भी न्यायिक हिरासतों में भेजा गया है। विरोधी दलों की अनेक राज्य सरकारों को भी गिराने में ईडी सहित केन्द्रीय जांच एजेंसियों का उपयोग होता आया है।

कई नेताओं ने तो इन एजेंसियों से बचने के लिये ही भाजपा की पनाह ली है। महाराष्ट्र का मामला सामने है जिसमें उप मुख्यमंत्री अजित पवार ने दो बार शिवसेना (शिंदे) एवं भाजपा की संयुक्त सरकार में शामिल होकर अपने व अपनी पत्नी के खिलाफ लगे भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों से मुक्ति पा ली। बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो सुश्री मायावती के लिए भी कहा जाता है कि वे इसलिये भाजपा के खिलाफ नहीं जाती क्योंकि इससे वे जांच में फंस सकती हैं। पश्चिम बंगाल, कर्नाटक आदि में भी विरोधी दलों के नेताओं के यहां केन्द्रीय जांच एजेंसियों की धमक होती रहती है। जिस ‘ऑपरेशन लोटस’ की बात भाजपा या राजनैतिक गलियारों में होती है वह मूलत: ईडी, सीबीआई, आईटी के जरिये दलबदल कराने का ही नाम है। इनका जितना दुरुपयोग भाजपा के इन 9 वर्षों में हुआ है उतना आजाद भारत में कभी नहीं हुआ।

उम्मीद है कि जिस प्रकार से न्यायपालिका ने ईडी के अंतर्गत गिरफ्तारी के एक पहलू के बाबत स्पष्टता लाई है वैसे ही इन एजेंसियों के काम-काज के बारे में और भी स्पष्टता लाई जानी चाहिये। इसके बावजूद अगर सरकार दुरुपयोग से बाज न आये तो कोर्ट अपनी शक्ति दिखलाएं।

 

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