Child Abuse: केस में नरमी के लिए नहीं कर सकते जाति का इस्तेमाल, बाल यौन उत्पीड़न मामले में कोर्ट की टिप्पणी

नई दिल्ली
अदालत ने सुझाव दिया कि जब भी किसी बच्ची पर यौन हमला किया जाता है तो राज्य या कानूनी सेवा प्राधिकरणों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बच्ची को प्रशिक्षित बाल परामर्शदाता या बाल मनोवैज्ञानिक की ओर से परामर्श की सुविधा दी जाए।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पांच से छह साल की छोटी बच्ची के यौन उत्पीड़न से संबंधित मामले में नरमी दिखाने के लिए आरोपी की जाति पर विचार नहीं किया जा सकता है। शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि किसी मामले के वाद शीर्षक में आरोपी की जाति का उल्लेख कभी नहीं किया जाना चाहिए। जस्टिस अभय एस ओका और जस्टिस पंकज मित्थल की पीठ ने कहा है, हम यह समझने में असफल हैं कि हाईकोर्ट और ट्रायल कोर्ट के निर्णयों के वाद शीर्षक में अभियुक्त की जाति का उल्लेख क्यों किया गया है। निर्णय के वाद शीर्षक में किसी वादी की जाति या धर्म का उल्लेख कभी नहीं किया जाना चाहिए।
शीर्ष अदालत हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ राजस्थान सरकार की ओर से दायर उस अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें आरोपी गौतम की सजा को आजीवन कारावास से घटाकर 12 साल की कैद कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह अदालत की अंतरात्मा को झकझोर देने वाला मामला है। पीठ ने सजा को बढ़ाकर 14 साल कर दिया। पीठ ने कहा, अपराध इतना वीभत्स और जघन्य है कि इसका असर पीड़िता पर पूरी जिंदगी रहेगा। शीर्ष अदालत ने कहा, हाईकोर्ट ने आरोपी के अनुसूचित जाति का होने के कारण उसके प्रति नरमी दिखाई। हाईकोर्ट ने फैसले में यह भी दर्ज किया कि वह आदतन अपराधी नहीं था।
बच्ची को परामर्श की सुविधा भी दी जाए
अदालत ने सुझाव दिया कि जब भी किसी बच्ची पर यौन हमला किया जाता है तो राज्य या कानूनी सेवा प्राधिकरणों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बच्ची को प्रशिक्षित बाल परामर्शदाता या बाल मनोवैज्ञानिक की ओर से परामर्श की सुविधा दी जाए। पीठ ने कहा, एक कल्याणकारी राज्य के रूप में ऐसा करना सरकार का कर्तव्य है। केवल मुआवजे का भुगतान पुनर्वास नहीं है। शायद पीड़िता का पुनर्वास केंद्र सरकार के बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान का हिस्सा होना चाहिए।