भारतीय गर्व के प्रतीक लाल किले का कद घटाते नरेन्द्र मोदी

15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश को जिस लहज़े में सम्बोधित किया वह उनकी प्रवृत्ति व तेवर के बहुत विपरीत तो नहीं था
15 अगस्त को लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश को जिस लहज़े में सम्बोधित किया वह उनकी प्रवृत्ति व तेवर के बहुत विपरीत तो नहीं था लेकिन ज्यादातर लोग मानकर चल रहे थे कि अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम स्वतंत्रता दिवस समारोह के बतौर मुख्य अतिथि और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रमुख होने के नाते वे अमृत काल के समापन अवसर पर दिये जाने वाले उद्बोधन के जरिये राष्ट्र को गरिमामय तरीके से कोई अभिनव दिशा देंगे। आशा की गई थी कि बदहाली से विचलित व व्यथित देश की अवाम और हाल की अनेक घटनाओं से पीड़ित लोगों के ज़ख्मों पर मरहम लगाकर मोदी बतलाएंगे कि पूरा देश एक स्पंदित समाज है जिसके पास परस्पर सुख-दुख में एक-दूसरे को सम्भालने की ताकत है और जो उदार और संवेदनशील भी है।
मोदी ने एक बार फिर से सभी को निराश किया, जैसा कि वे इसी स्थान पर खड़े होकर पिछले 9 वर्षों से करते आ रहे हैं। उन्होंने यह भी संदेश दे दिया कि उनके पास कहने के लिये मौलिक कुछ भी नहीं है। इतिहास को कोसने और सारी योजनाओं का प्रतिफल कहीं दूर भविष्य में उपलब्ध करने वाला मोदी का यह भाषण उनके पिछले किसी भी अन्य उद्बोधन से कतई अलहदा नहीं था।
15 अगस्त का उल्लेख करने वाले उनके वाक्यों को हटा दिया जाये तो यह फर्क करना मुश्किल होगा कि मोदी ये बातें अपने पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच कर रहे हैं या संसद में अविश्वास प्रस्ताव पर बोल रहे हैं। प्रतिपक्ष की आलोचना करने, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा का इज़हार करने और हवाई किले बनाने की उनकी प्रवृत्ति स्थान और प्रसंग विशेष का भेद मिटा देती है। इस बार भी ऐसा ही हुआ।
जश्ने-आज़ादी- 2023 का उनका वक्तव्य केवल उनके अपने पद की ही प्रतिष्ठा में ऐतिहासिक गिरावट दर्ज करने के लिये याद नहीं किया जायेगा बल्कि वह राष्ट्र के सबसे पवित्र पर्व एवं सर्वोच्च मंच की गरिमा दोनों को ही धूल-धुसरित करने वाले ऐसे एकालाप के रूप में दाखिल हो गया है जिसका प्रदर्शन वे अपने दो बार के कार्यकाल में अनगिनत बार कर चुके हैं। चूंकि चुनाव जीतने और सत्ता बनाये रखने में 24&7 व्यस्त रहने वाले मोदी का सारा विमर्श परिवारवाद, तुष्टिकरण और भ्रष्टाचार की घिसी-पिटी बातों तक सीमित था अत: उनके पास देशवासियों को देने के लिये कुछ था ही नहीं।
यह अवसर तमाम क्षुद्रताओं व संकार्णताओं से उठकर कुछ नया कहने और करने की प्रेरणा देने वाला होता है। पिछले सारे प्रधानमंत्रियों ने यही किया है। कई पीएम ऐसे हुए जिनका कद न जवाहरलाल नेहरू जितना था, न ही लालबहादुर शास्त्री सा; और न ही इंदिरा गांधी जैसा। हर कोई समकालीन परिस्थितियों, अपनी विशिष्ट कार्य शैली और विचारधारा के अनुरूप देशवासियों से मुख़ातिब हुआ। सभी प्रधानमंत्री प्राचीर की सीढ़ियों के नीचे दलगत सियासत और निजी विचारों को छोड़कर उद्बोधन के लिये ऊपर चढ़ते थे।
वैसे तो मोदी के पहले के सारे वक्तव्यों में भी प्रकारांतर से विरोधियों को ललकारने, कोसने, नीचा दिखाने जैसे तत्व पाये जाते रहे परन्तु मंगलवार का सम्बोधन उनके वर्तमान कार्यकाल का आखिरी था जिसे उन्होंने यूं लिया मानों वे अपने राजनैतिक विरोधियों से हिसाब अंतिम रूप से चुकता कर रहे हों। उनका सर्वाधिक अभद्र प्रदर्शन वह था जब उन्होंने साफ कर दिया कि अगले साल यहां वे ही तिरंगा फहरायेंगे। ऐसा कहना एक तरह से सम्पूर्ण लोकतांत्रिक प्रक्रिया का ही अपमान है।
आखिर कोई पीएम यह दावा कैसे कर सकता है कि अगले साल के मध्य में होने जा रहे आम चुनावों में जनता उनकी पार्टी को ही बहुमत से जिताएगी। दूसरे, भारत में प्रधानमंत्री के प्रत्यक्ष चुनाव की व्यवस्था तो है नहीं, जैसी कि अमेरिका में है जहां राष्ट्रपति प्रत्यक्ष प्रणाली से निर्वाचित होता है। यहां सबसे बड़े विजेता दल के द्वारा संसदीय दल में अपना नेता चुना जाता है जो सामान्य तौर पर उस पार्टी के द्वारा भी स्वीकृत होता है। जहां तक भारतीय जनता पार्टी की बात है तो उसके बारे में लोकप्रिय मान्यता यह है (जो काफी हद तक सही है) कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिसे तय करता है उसे ही भाजपा कार्यकारिणी अनुमोदित करती है। मोदी के मामले में भी यही हुआ था। अगर मोदी अगले साल भी झंडा फहराने की बात करते हैं तो क्या यह समझा जाये कि उन्हें भाजपा व संघ की अनुमति या स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है? क्या वे इन दो संगठनों से बड़े हो गये हैं? अगर ऐसा है तो यह भाजपा-संघ दोनों के लिये चिंताजनक है।
गौतम अदानी के साथ उनके संबंधों को लेकर हुए खुलासों के साथ ही उनके नेतृत्व में भारत में फैली परस्पर नफ़रत, सामाजिक ध्रुवीकरण के कुत्सित प्रयासों से ऊपजी हिंसा (हालिया मणिपुर, मेवात, जयपुर-मुंबई ट्रेन में मुस्लिमों पर गोलीचालन आदि की घटनाएं), मानवाधिकार के हनन जैसे मुद्दों के कारण उनका चेहरा काफी दागदार हो गया है। इसके अलावा सतत मजबूत होते विपक्षी गठबन्धन ने मोदी की जमीन को खिसका दिया है। देश के भीतर व बाहर उनकी जबर्दस्त किरकिरी हुई है। अपनी इसी दरकती ज़मीन को बचाने के लिये मोदी ने लाल किले का इस्तेमाल एक ओर तो अपने विरोधियों को बदनाम करने के लिये किया तो वहीं अपनी दावेदारी भी पेश की है। मोदी का यह भाषण जनमत को नीचा दिखाना तो है ही, समग्र लोकतांत्रिक प्रणाली का अपमान भी है। मोदी ने इस ऐतिहासिक अवसर एवं स्थान का जैसा इस्तेमाल किया है वह न केवल भौंडा है, बल्कि अनैतिक व अलोकतांत्रिक भी है। मोदी ने अपने पद की गरिमा ही नहीं गिराई, विभिन्न ऐतिहासिक कारणों से भारतीय गर्व के प्रतीक लाल किले का कद भी घटाया है।