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भारत में लोकतंत्र के चार स्तंभ शायद जुट गए हैं मोदी सरकार की सेवामें ?

सेंट्रल विस्टा यानी संसद के नए भवन का उद्घाटन संपन्न हो गया। भारतीय लोकतंत्र के काले दिनों के इतिहास में एक और दिन जुड़ गया

सेंट्रल विस्टा यानी संसद के नए भवन का उद्घाटन संपन्न हो गया। भारतीय लोकतंत्र के काले दिनों के इतिहास में एक और दिन जुड़ गया, जो शायद आखिरी हो, क्योंकि अब लोकतंत्र की किताब खुल पाएगी या नहीं, कहा नहीं जा सकता। लोकतंत्र के तीन स्तंभों, कार्यपालिका. विधायिका और न्यायपालिका के साथ मीडिया ने भी अपनी उपस्थिति स्तंभों में शुमार करवा दी, तो अब लोकतंत्र के चार स्तंभ कहे जाते हैं। संयोग देखिए अर्थी उठाने के लिए भी चार कंधों की ही जरूरत होती है। भारत के लोकतंत्र के लिए चार कंधे जुट गए हैं। आखिरी प्रार्थना के तौर पर किसे क्या उच्चारित करना है, अब तक इसकी इजाज़त संविधान से मिली हुई है। लेकिन इस इजाज़त की उम्र भी कितनी है, कौन जानता है।

संविधान भी कब तक कारगर रहेगा, कोई नहीं जानता। लोकतंत्र, संघर्षों से मिली आजादी, भारत की गौरवमयी स्वतंत्रता आंदोलन की गाथा, वीर स्वाधीनता सेनानी, सभी वर्गों के प्रतिनिधित्व से बनी संविधान सभा, डा.अंबेडकर और संविधान सभा के विद्वतजनों के अथक परिश्रम, गहन विचार-विमर्श के बाद बने संविधान, देश में सभी धर्मों के लोगों का मिलजुलकर रहना और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर चलना, ऐसी तमाम बातों पर गौरव का अनुभव करने वालों ने क्या कभी इस बात की कल्पना की होगी कि कोई ऐसा दिन भी आएगा, जब संसद से विपक्ष नदारद रहेगा और हिंदू धर्म के पुजारियों की भीड़ के बीच नए भवन का उद्घाटन किया जाएगा। संविधान में सबको बराबरी का दर्जा मिलने के बावजूद देश के कई मंदिरों में विधर्मियों, दलितों, स्त्रियों का प्रवेश वर्जित है।

बाहर साफ-साफ तख्तियों पर इसके निर्देश लिखे रहते हैं। लोग इस पर बुरा मान कर भी कुछ नहीं कर पाते कि इंसान-इंसान के बीच ये किस तरह का भेदभाव है। क्योंकि जहां धर्म की सत्ता चलती है, वहां तर्क खोखले हो जाते हैं। नए संसद भवन में ऐसी कोई तख्ती तो घोषित तौर पर नहीं लगी है, लेकिन जिस तरह से इसका उद्घाटन कार्यक्रम संपन्न हुआ, उसके बाद तख्ती लगाने की कोई जरूरत ही नहीं है। 56 इंची सरकार ऐसे ही नहीं कहलाती, जो ठान लेती है, जो मान लेती है, उसे ताल ठोंककर पूरा करके दिखाती है। विपक्ष को विरोध करना है, करता रहे, प्रधानमंत्री को संसद का उद्घाटन करना था, सो उन्होंने कर लिया।

इससे पहले 26 मई को श्री मोदी ने संसद के नए भवन का एक वीडियो शेयर करते हुए लिखा था कि इस वीडियो को अपने खुद के वॉयस-ओवर के साथ शेयर करें, जो आपके विचार व्यक्त करता है। मैं उनमें से कुछ को री-ट्वीट करूंगा। जनता अब तो समझ जाए कि लोकतंत्र का स्तर कितना नीचे गिरा दिया गया है, जहां विचार आपके होंगे, लेकिन वे तभी सुनाए जाएंगे, जब सत्ता की मंजूरी उसे मिल जाए। लोकतंत्र के साथ वॉयस ओवर का यह नया खिलवाड़ किस तरह का प्रयोग है, इसकी परतें शायद आने वाले वक्त में खुलें। वैसे इस खेल के जरिए सरकार ने अपनी मंशा साफ कर दी है।

संसद यानी पुराने भवन में आजादी के बाद संविधान सभा की बैठकें होती थीं, एक-एक बिंदु पर विचार करके, तीखी बहसों के साथ आगे बढ़ा जाता था और नियम लिखे जाते थे, तो उसके पीछे नीयत यह थी कि आजादी सही मायने में देश के हरेक नागरिक को हासिल हो, महसूस हो। सवर्ण, संपन्न तबका तो गुलामी के दौर में भी ठाठ से ही रहता था, इसमें कुछ लोग थे, जो आजादी के लिए कुर्बानियां देते थें, कष्ट सहते थे। मगर गरीब, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक तबके के लिए तो जिंदगी जैसी गुलामी के दौर में थी, आजादी के बाद भी वैसी ही रहती।

पाकिस्तान तो धर्म के आधार पर अलग हो गया था और बहुत से लोग सीमा के उस पार चले गए थे। मगर उस वक्त भी बहुत से मुसलमानों ने अपने वतन यानी हिंदुस्तान को छोड़ना स्वीकार नहीं किया। ऐसे तमाम लोगों के लिए बराबरी के, सम्मान के साथ जीने के अवसर बने रहें, इसकी व्यवस्था संविधान में की गई। इन अधिकारों के कारण ही भारत का लोकतंत्र मजबूत हुआ। पुराने संसद भवन की दीवारें लोकतंत्र के सशक्त होने की गवाह रही हैं। आजादी के बाद की सभी सरकारों ने कई तरह की गलतियां की, कई तरह के आघात झेले, कई बार नैतिकताओं, मर्यादाओं को ताक पर रखा गया. मगर सारे झंझावात के बीच लोकतंत्र के पेड़ की जड़ें जगह पर टिकी रहें, यह सुनिश्चित किया गया।

भाजपा के ही पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि सरकारें आएंगी, जाएंगी, मगर ये देश बना रहना चाहिए। वे अच्छे से जानते थे कि देश लोकतंत्र के बिना बना नहीं रहेगा। इसलिए चाहे जमीन समतल करने की बात उन्होंने कही हो, लोकतंत्र की जड़ों को उखाड़ने की मंशा उन्होंने भी कभी नहीं दिखाई। पुरानी संसद में जनता की आवाज गूंजती थी, नई संसद में चुनिंदा वॉयस ओवर चलाए जाएंगे।

लोकतंत्र की जड़ें उखड़नी शुरु हो गई हैं, इसका उदाहरण 28 मई को ही देखने मिल गया, जब जंतर-मंतर से 35 दिनों से धरने पर बैठे पहलवानों के तंबू उखाड़े जाने लगे। पहलवानों की मांग इतनी ही है कि जिस भाजपा सांसद और कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह पर यौन शोषण का आरोप लगा है, उस पर कार्रवाई की जाए। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर देश को जीत का गौरव दिलाने वाले पहलवान न्याय के लिए रोज जूझ रहे हैं। उनका साथ देने किसान सामने आए हैं, महिलाएं सामने आई हैं।

लोकतंत्र में विरोध-प्रदर्शन इसी तरह होता है। मगर अब किसानों का रास्ता रोका जा रहा है, पहलवानों को हिरासत में लिया जा रहा है। ये दिल्ली की तस्वीरें हैं, जो सामने आ गई हैं। उधर पूर्वोत्तर में मणिपुर की तस्वीरें तो गायब ही हैं कि वहां रोजाना कितने लोग अपने घर को छोड़ने पर मजबूर हो रहे हैं। असंतोष, विद्रोह, नाराजगी की चिंगारियां कई जगहों पर धीमी-धीमी सुलग रही हैं, मगर सरकार सेंट्रल विस्टा की आरामगाह में पहुंच चुकी है। जहां राजतंत्र की रक्षा के लिए राजदंड भी स्थापित कर दिया गया है।

पंचतंत्र की एक कहानी में लिखा है कि आग और पानी का साथ संभव ही नहीं है, पानी अगर आग जितना गरम कर दिया जाए, तब भी आग को वो बुझा ही देगा। कुछ यही संबंध राजतंत्र और लोकतंत्र में है। राजा कितना भी लोकप्रेमी दिखने की कोशिश करे, उसका राजदंड लोक पर ही प्रहार करेगा। हिंदुस्तान को इस प्रहार के लिए अब तैयार रहना चाहिए।

 

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