जानिए क्यों एक गाय खुद नित्यप्रति चढ़ाने लगी गोवर्धन पर्वत पर अपना दूध..

एक गाय नित्यप्रति गोवर्धन पर्वत पर जा स्वय अपना दूध चढ़ा आती थी, कुछ समय बाद वहां श्री श्रीनाथजी का प्राकट्य हुआ और वल्लभाचार्य जी को स्वप्न में आकर भगवान ने अपने प्रगट होने की बात बता सेवा का आदेश दिया जिसपर जगद्गुरु वल्लभाचार्य जी ने उनकी राग भोग की सेवा का नियम बनाया और बाद में श्री श्रीनाथजी नाथद्वारा में विराजमान कराए गए.
नई दिल्ली:
भगवान श्री कृष्ण को गाय अत्यधिक प्रिय थी, गाय और कृष्ण के बीच के प्रेम संबंध को ध्यान में रखते हुए ही तो उनका नाम गोपाल पड़ा. और तो और जब देवराज इंद्र को कन्हैया से माफ़ी मांगने आना था तो वह भी सुरभि गाय को साथ लाए ताकि भगवान गाय पर मोहित हो, उसे माफ़ कर दें और यही हुआ भी. इसके अलावा कन्हैया की गोवर्धन पर्वत और गाय से जुड़ी एक लीला और भी है जिसके बारे में काफी कम ही लोगों को ज्ञात है, और यह लीला है श्री श्रीनाथजी के प्राकट्य की, तो आइए जानते हैं इस मनोहर लीला को. पौराणिक कथाओं के अनुसार, हिंदू विक्रम संवत 1548 में गोवर्धन पर्वत पर एक लीला घटित हुई. जिसमें एक गाय नित्यप्रति गोवर्धन पर्वत के एक स्थान पर स्वत: दूध की वर्षा करती, यह बात अन्य गोप-गोपियों ने देखी परंतु इसपर ज़्यादा ध्यान, उन लोगों ने नहीं दिया.
जब बाहर निकली भगवान की वाम भुजा,
समय अपनी रफ्तार से बीता परंतु उस गैया की यह क्रिया निरंतर चलती ही रही, जिसके बाद उस स्थान को ध्यान से देखने पर एक काले रंग का हाथ दिखाई दिया. जिससे समस्त ग्राम में कौतूहल की लहर दौड़ गई, कुछ समय बाद गांव के मुखिया को भगवान ने स्वप्न में आकर दर्शन दिए और उन्हें गोवर्धन पर्वत पर उस जगह प्रकट होने के बारे में बताया.
हुए भगवान के मुख के दर्शन,
जब सभी ने वहां जाकर देखा तो भगवान के विग्रह का श्रीमुख भी धरती के बाहर आचूका था, यह देख समस्त ग्राम वासी अत्यंत प्रसन्न हुए और उस स्थान को मुखारबिंद का नाम दे दिया गया एवं एक संत माधवेंद्र पुरी जी ने वहां गोपाल के नाम से भगवान की आराधना शुरू कराई.
भगवान ने कराया होने रूप से अवगत,
उसी समय जगद्गुरु वल्लभाचार्य जी महाराज को स्वप्न देकर भगवान ने अपने गोवर्धन पर्वत पर 7 साल के बालक की अवस्था में प्रकट होने के बारे में बताया और उन्हें वहां आकर अपनी सेवा करने की आज्ञा दी. जिसके बाद महाराज जी गोवर्धन पहुंचे और भगवान का नाम श्री श्रीनाथजी रखा. उन्होंने वहां भगवान के राग-भोग की समस्त सेवा का प्रबंध किया और उनकी यह सेवा पद्धति “पुष्टिमार्ग” के नाम से विख्यात हुई.
श्रीनाथजी विराजे नाथद्वारा में,
कुछ समय बाद वल्लभाचार्य जी महाराज के पुत्र श्री विट्ठलनाथ जी ने सेवा का जिम्मा लिया और भगवान की आदेश का पालन करते हुए श्री श्रीनाथ जी का विग्रह नाथद्वारा, उदयपुर (राजस्थान) में एक आलिशान हवेली में विराजमान कराया गया. मान्यता है की भगवान श्रीनाथजी वल्लभाचार्य जी के साथ साक्षात प्रकट हो क्रीडा करते एवं उनके हाथों से भोजन पाते थे. आजभी श्री श्रीनाथजी का वो मनोहर स्वरूप नाथद्वारा में विराजमान है और भक्तों को अपनी ओर आकर्षित करता है.