सरकार के चुनावी बॉन्ड की पारदर्शिता पर सवाल ?

हिमाचल प्रदेश और गुजरात चुनावों से ठीक पहले केंद्र की एनडीए सरकार ने एक चौंकाने वाला फैसला लेते हुए चुनावी बॉन्ड योजना-2018 में संशोधन किया है
हिमाचल प्रदेश और गुजरात चुनावों से ठीक पहले केंद्र की एनडीए सरकार ने एक चौंकाने वाला फैसला लेते हुए चुनावी बॉन्ड योजना-2018 में संशोधन किया है। वित्त मंत्रालय ने 7 नवंबर को एक अधिसूचना जारी कर बताया है कि विधानसभा चुनावों के वर्ष में बॉन्ड की ब्रिक्री के लिए 15 दिनों का अतिरिक्त समय देने के संशोधन को मंजूरी दी गई है।
गौरतलब है कि 2017 में एनडीए सरकार ने चुनावी चंदे के लिए चुनावी बॉन्ड लाने का ऐलान किया था और 2018 में यह योजना लागू भी हो गई थी। इसके तहत साल में चार बार अप्रैल, जनवरी, जुलाई और अक्टूबर महीने के पहले दस दिनों तक चुनावी बॉन्ड खरीदने का नियम तय हुआ था। आम आदमी से लेकर बड़े उद्योगपति और व्यावसायिक घराने या कंपनियां चुनावी बॉन्ड स्टेट बैंक ऑफ इंडिया से खरीद सकते हैं। यह एक तरह का पैसे के रूप में वचन है जो आप किसी राजनैतिक दल को चंदे के रूप में देते हैं। इससे पहले राजनैतिक दलों को कोई व्यक्ति या औद्योगिक घराने जो भी चंदा देते थे, उसका खुलासा उन्हें करना पड़ता था और राजनैतिक दलों को भी घोषित करना पड़ता था कि उन्हें किससे, कितना चंदा मिला। लेकिन मोदी सरकार की चुनावी बॉन्ड योजना में बॉन्ड के खरीदार की पहचान जारी नहीं होती। सरकार का तर्क है कि यह चुनावी चंदे में पारदर्शिता को बढ़ावा देगा और लोगों को राजनैतिक दलों के दबाव से मुक्त रखेगा। हालांकि यह तर्क दिल के बहलाने के लिए ही काफी है।
हम राजनीति का वह दौर देख रहे हैं, जब डिजीटल तकनीकी का इस्तेमाल लोगों की जासूसी के लिए हो रहा है। कब, कहां, किसके मोबाइल या कम्प्यूटर पर किसी सॉफ्टवेयर के जरिए निगरानी रखी जाएगी, कहा नहीं जा सकता। मामूली नजर आने वाली चिप से किसी व्यक्ति के बैंक खाते से लेकर उसके पहचान पत्र और पसंद, नापसंद, स्वास्थ्य की स्थिति और आवाजाही का पता क्षणों में लगाया जा सकता है। तब किस व्यक्ति या संस्था या कार्पोरेट घराने ने एसबीआई की किस शाखा से कितने का चुनावी बॉन्ड खरीदा और किस राजनैतिक दल ने उसे भुनाया, यह पता लगाना कोई कठिन बात नहीं है।
इसलिए यह बात बेमानी है कि चुनावी बॉन्ड से किसी किस्म की पारदर्शिता आ रही है। बल्कि यह डर हमेशा बना रहेगा कि सत्ताधारी दल लोगों पर चुनावी बॉन्ड खरीदने का दबाव बनाए, ताकि उसका कोष भरता जाए। चुनावी बॉन्ड इन्हीं सब कारणों से विवादों में आए और इसके खिलाफ याचिका भी दायर हुई थीं। पिछले महीने ही एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स यानी एडीआर की ओर से दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई थी, जिस पर एडीआर की ओर से बॉन्ड पर रोक की मांग करते हुए वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने कहा था कि इनका उपयोग शेल कंपनियां कालेधन को सफेद बनाने में कर रही हैं।
बॉन्ड कौन खरीद रहा है, इसकी जानकारी सिर्फ सरकार को होती है। चुनाव आयोग तक इससे जुड़ी कोई जानकारी नहीं ले सकता है। ये राजनीतिक दल को रिश्वत देने का एक तरीका है। जबकि केंद्र सरकार ने अपना पक्ष रखते हुए कहा था कि चुनावी बॉन्ड राजनीतिक चंदे का एक पारदर्शी तरीका है। इससे काला धन मिलना संभव नहीं है। सर्वोच्च अदालत ने इस मामले की विस्तार से सुनवाई के लिए 6 दिसंबर की तारीख तय की थी, मगर उससे पहले केंद्र सरकार ने एक नया संशोधन इसमें पेश कर दिया।
2018 में चुनावी बॉन्ड योजना जब लागू हुई थी, तो इसके मूल स्वरूप में प्रावधान था कि लोकसभा चुनाव वाले वर्ष में बॉन्ड बिक्री के लिए 30 अतिरिक्त दिन प्रदान किए जाएंगे, अब नए संशोधन में बिक्री के लिए 15 दिन और जोड़ दिए गए हैं। देश में लगभग हर साल किसी न किसी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश में चुनाव होते ही हैं, तो नए संशोधन के मुताबिक हर साल इस बॉन्ड की बिक्री के लिए 15 दिन और बढ़ जाएंगे। निश्चित तौर पर यह फैसला भाजपा को फायदा पहुंचाने के मकसद से लिया गया दिख रहा है। अन्यथा ऐन चुनाव के पहले इस तरह का संशोधन नहीं किया जाता। यह ध्यान देने वाली बात है कि संशोधन 7 तारीख को हुआ और 9 तारीख से चुनावी बॉन्ड एक हफ्ते के लिए एसबीआई की शाखाओं में बिक्री के लिए उपलब्ध रहेंगे, ऐसी घोषणा भी सरकार ने कर दी। जबकि अभी हिमाचल प्रदेश और गुजरात दोनों राज्यों के लिए आचार संहिता लागू है।
जिस फैसले को आचार संहिता के दौरान लिया गया और जो मुद्दा अदालत में विचाराधीन है, क्या उस पर कोई संशोधन सरकार को करना चाहिए, इन दोनों बिंदुओं पर अगर विचार करें तो इसमें सरासर चालाकी से की जा रही बेईमानी नजर आएगी। इसलिए इस फैसले पर सवाल उठने शुरु हो गए हैं। पूर्व केंद्रीय सचिव ई.ए.एस. सरमा ने इसे अनुचित कदम बताते हुए चुनाव आयोग से चुनावी बॉन्ड पर रोक लगाने की मांग की है। वहीं पूर्व चुनाव आयुक्त टी.एस. कृष्णमूर्ति ने सरकार के इस कदम का विरोध करते हुए सुझाव दिया है कि हमें एक राष्ट्रीय चुनाव कोष बनाकर चुनावों में सार्वजनिक फंडिंग करना चाहिए, जिसमें चंदे पर 100 फीसदी टैक्स छूट हो। ताकि चंदा देने वालों और राजनीतिक दलों के बीच कोई गठजोड़ न हो सके।
सरकार अगर वाकई चुनावों में पारदर्शिता और ईमानदारी से वित्तप्रबंध करना चाहती है, तो उसे इस विषय के जानकार लोगों और अन्य राजनैतिक दलों से परामर्श कर कोई तर्कसम्मत फैसला लेना चाहिए, जिससे अनावश्यक विवाद खड़े न हों। अभी जिस तरह चुनाव से पहले चुनावी बॉन्ड की बिक्री के लिए दिन बढ़ाने का फैसला लिया गया है, वह सीधे नीयत पर सवाल उठाता है। इससे भाजपा पर तो उंगलियां उठ ही रही हैं, केंद्र सरकार की छवि भी दांव पर लग रही है, जो अच्छी बात नहीं है।