मोदी-योगी राजमे पेड़ पर लटका इंसाफऔर देश कर्तव्य पथ पर अटक गया ?
मई 2014 की बात है। उत्तरप्रदेश के बदायूं में कटरा सादतगंज गांव में 14 और 15 साल की दो नाबालिग लड़कियों की लाश पेड़ से लटकती मिली थी
मई 2014 की बात है। उत्तरप्रदेश के बदायूं में कटरा सादतगंज गांव में 14 और 15 साल की दो नाबालिग लड़कियों की लाश पेड़ से लटकती मिली थी। इन बच्चियों के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था और उसके बाद उनकी हत्या कर दी गई थी। इन बच्चियों के परिजनों ने उन्हें ढूंढने की खूब कोशिश की थी। लेकिन पुलिस का रवैया संवेदनहीन और बेरूखा रहा। उस वक्त की रिपोर्ट्स बताती हैं कि लड़कियों के परिजन उन्हें ढूंढवाने की गुहार लगाते रहे, लेकिन पुलिस वालों ने वक्त रहते अपना फर्ज नहीं निभाया। आठ साल पहले की यह घटना राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनी।
निर्भया कांड के जख्म ताजा थे और ऐसा लग रहा था कि लड़कियों की सुरक्षा और उनके खिलाफ अपराधों की रोकथाम के लिए समाज कुछ जागरुक हो रहा है। तब केंद्र में सत्ता परिवर्तन हुआ था, तो लोगों को अच्छे दिन आने की उम्मीदें भी बंध रही थीं। बदायूं कांड और जाति, धर्म को लेकर सत्ता व प्रशासन में जड़ें जमाकर बैठे भेदभाव को लेकर 2019 में एक फिल्म भी बन गई, आर्टिकल 15। जिसमें एक कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी सारी बाधाओं के बावजूद उन बच्चियों को इंसाफ दिलाने के लिए डटा रहता है। उस पुलिस अधिकारी के हाथ में जवाहरलाल नेहरू की किताब भी एक दृश्य में दिखाई गई है। फिल्म थी, इसलिए इस बात में कोई आश्चर्य नहीं हुआ कि पुलिस अधिकारी की विचारधारा क्या है, वह कितना ईमानदार है और इसके साथ हाशिए के लोगों के लिए वह कितना संवेदनशील है। देश के मौजूदा परिदृश्य में ऐसे अधिकारी अगर हकीकत में नजर आ जाएं तो एकबारगी लगेगा कि किसी फिल्म के किरदार को ही देख रहे हैं। क्योंकि इस वक्त तथाकथित कर्तव्य निभाते पुलिस अधिकारी सत्ता की सेवा में और पीड़ितों को फटकारते नजर आते हैं।
2014 से लेकर 2022 तक देश की नदियों में ढेर सारा पानी बह गया, लेकिन गरीब और जाति के निचले पायदान की लड़कियों की लाश अब भी पेड़ पर लटकी हुई है। इस बार ये लाशें मिली हैं, उत्तरप्रदेश के ही लखीमपुर खीरी जिले के निघासना थाना क्षेत्र में। 15 और 17 बरस की दो नाबालिग बच्चियां, जो दलित थीं, उनके साथ तीन लोगों ने पहले बलात्कार किया, फिर उनकी हत्या कर दी। लड़की की मां ने आरोप लगाया था कि उनकी बच्चियों को जबदरस्ती मोटर साइकिल पर बिठाकर ले जाया गया।
लेकिन पुलिस ने दावा किया है कि इन लड़कियों को जबरन नहीं ले जाया गया था। मुख्य अभियुक्त ने बाकी तीन लड़कियों से इनकी दोस्ती करवाई, फिर वो इन्हें बहलाकर खेत में ले गए और वहां उनके साथ उनकी मर्जी के खिलाफ शारीरिक संबंध बनाए। जब लड़कियों ने आरोपियों पर शादी के लिए दबाव बनाया तो उनकी हत्या कर दी गई। इससे पहले जब लड़कियों के शव मिले और उनके परिजनों ने न्याय की मांग करते हुए सड़क का घेराव किया था, तब पुलिस वालों ने रोते-बिलखते परिजनों को कानून का ज्ञान देते हुए रास्ता न रोकने की हिदायत भी दी थी। कह सकते हैं कि पुलिस वाले हैं, वो अपना काम कर रहे हैं। लेकिन सवाल ये है कि जब लड़कियों के साथ यह अनाचार हो रहा था, तब पुलिस वाले कहां थे।
क्यों राज्य में कानून व्यवस्था इतनी कमजोर है कि अपराधियों को किसी भी वारदात को अंजाम देते कोई भय या झिझक नहीं होती। सवाल ये भी है कि पुलिस इतने जल्दी इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंच गई कि लड़कियों को जबरन नहीं ले जाया गया था, वो अपनी मर्जी से गई थीं। जब लड़की की मां कह रही है कि तीन लोग जबरदस्ती उनकी बेटियों को खींचकर ले गए, तो उनके दावे की पूरी पड़ताल किए बिना फैसला किस आधार पर सुना दिया गया। इस मामले के सभी आरोपी पुलिस गिरफ्त में हैं, यह अच्छी बात है।
लेकिन क्या इससे लड़कियों को इंसाफ मिल पाएगा, इसका जवाब मिलना कठिन है। जिस तरह से इस वारदात के पहले की घटनाओं को बताया जा रहा है कि लड़कियों से दोस्ती करवाई गई, वो अपनी मर्जी से आरोपियों के साथ गईं, ऐसी बातें परोक्ष तरीके से पीड़िताओं पर ही इस अपराध की जिम्मेदारी को डाल रही हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो बिना कहे लड़कियों के चरित्र हनन की कोशिश की जा रही है। अगर लड़कियां अपनी मर्जी से गई भी, जैसा कि पुलिस का दावा है, तो क्या किसी को यह हक बनता है कि वो उनके साथ बलात्कार करे। लड़कियों ने शादी की मांग रखी या नहीं, ये बात या तो वो लड़कियां बता सकती थीं, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं, या फिर उनके आरोपी। और जो लोग किसी लड़की की बलात्कार और हत्या का दुस्साहस कर सकते हैं, उनके लिए मनमानी कहानियां बनाना क्या कठिन होगा।
कुल मिलाकर फिलहाल यही नजर आ रहा है कि अतीत की अनेक घटनाओं की तरह इस बार भी पीड़िताओं के परिजनों को इंसाफ की जंग लड़ने की हिम्मत दिखानी होगी, सत्ता और प्रशासन के आगे आवाज़ उठाने का साहस करना होगा, अन्यथा यह मामला भी एक कालिख की तरह भारतीय समाज के इतिहास में दर्ज हो जाएगा। वैसे इस बार बलात्कार की इस जघन्य वारदात को मुख्यधारा के मीडिया में भी पर्याप्त जगह मिल रही है, क्योंकि एकाध को छोड़कर बाकी सभी आरोपी अल्पसंख्यक समुदाय से हैं। बिलकिस बानो या कठुआ की बच्ची का दर्द जिन लोगों ने कभी समझने की कोशिश नहीं की, वो अब इन बच्चियों के लिए अचानक मुखर हो गए हैं। समाज के नैतिक और चारित्रिक पतन का रोज एक नया नमूना पेश हो रहा है। इंसाफ पेड़ पर लटका हुआ है और देश कर्तव्य पथ पर अटक गया है।