जांच एजेंसियों की साख का मोदी शाशन में सवाल ?
मोहर्रम के दिन बिहार में बड़ा राजनैतिक उलटफेर हुआ और पांच साल बाद जदयू और राजद एक साथ आ गए
मोहर्रम के दिन बिहार में बड़ा राजनैतिक उलटफेर हुआ और पांच साल बाद जदयू और राजद एक साथ आ गए। बुधवार को महागठबंधन सरकार को सदन में बहुमत परीक्षण देना था और राजनैतिक संयोग ऐसा हुआ कि इसी दिन राजद से जुड़े कुछ लोगों के ठिकानों पर जांच एजेंसियों की छापेमारी हुई। इस कार्रवाई ने राजनैतिक पारे को और चढ़ा दिया। विधानसभा में फ्लोर टेस्ट के दौरान सत्तारुढ़ जदयू और राजद की विपक्ष में बैठी भाजपा से इस पर नोंक-झोंक हुई।
तेजस्वी यादव ने कहा कि भाजपा जहां भी सत्ता में नहीं होती वहां अपने तीन जमाइयों को आगे करती है। इसमें ईडी, सीबीआई और आईटी शामिल हैं। इससे पहले बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने भी कहा था कि सीबीआई की कार्रवाई, हमें डराने के लिए हुई है, लेकिन हम डरने वाले नहीं हैं। इधर राजद सांसद मनोज झा ने भी कहा कि आप इन्हें ईडी, सीबीआई की नहीं आप इन्हें भाजपा की रेड (छापेमारी) कह सकते हैं। भाजपा पर ऐसे ही आरोप इन दिनों दिल्ली की आप सरकार भी लगा रही है। पिछले कुछ दिनों से उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के खिलाफ आबकारी नीति को लेकर जांच चल रही है।
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल बार-बार संदेह जतला रहे हैं कि श्री सिसोदिया कभी भी गिरफ्तार हो सकते हैं। हालांकि उन्हें अब तक हिरासत में नहीं लिया गया है। अलबत्ता मनीष सिसोदिया ने पिछले दिनों एक गंभीर आरोप भाजपा पर लगाया था कि उन्हें एक संदेश भेजा गया था कि वे आप को तोड़ दें तो उनके खिलाफ जांच रुक जाएगी। तब मनीष सिसोदिया ने ट्विटर पर अपना जवाब बताया था कि मैं महाराणा प्रताप का वंशज हूं, राजपूत हूं। सर कटा लूंगा लेकिन भ्रष्टाचारियों-षड्यंत्रकारियों के सामने झुकूंगा नहीं। मेरे ख़िलाफ़ सारे केस झूठे हैं। जो करना है कर लो। मनीष सिसोदिया चाहते तो सीधे-सीधे भी इस तरह के किसी प्रस्ताव पर इंकार कर सकते थे। लेकिन खुद को राजपूत बताने का मकसद शायद गुजरात और उसके बाद राजस्थान और मध्यप्रदेश के चुनाव में पूरा हो सकता है, जहां राजपूत समुदाय के वोट जुटाने में आप को मदद मिल सकती है।
बहरहाल यहां मसला ये नहीं है कि मनीष सिसोदिया किस समुदाय से ताल्लुक रखते हैं और खुद को आम आदमी बता कर कैसे राजनैतिक फायदे के लिए जाति का कार्ड खेल सकते हैं। सवाल ये है कि जिस किसी ने भी मनीष सिसोदिया को अपनी पार्टी तोड़ कर भाजपा के साथ आने का प्रस्ताव दिया है और जो ये दावा कर सकता है कि इसके बदले उनके खिलाफ सारे मामले बंद हो जाएंगे, उसका नाम मनीष सिसोदिया खुल कर क्यों नहीं बताते। क्योंकि यहां बात केवल एक व्यक्ति से नहीं जुड़ी है, बल्कि देश के व्यवस्थागत ढांचे से खिलवाड़ से जुड़ी है।
मनीष सिसोदिया ने ये नहीं बताया कि कौन उनके जरिए आप को तोड़ने की कोशिश कर रहा था और अब आम आदमी पार्टी के चार और विधायकों सोमनाथ भारती, संजीव झा,कुलदीप कुमार और अजय दत्त ने आरोप लगाया कि उन्हें भाजपा के कुछ बड़े लोगों की ओर से 20-20 करोड़ रुपयों का लालच दिया गया है कि वे भाजपा में शामिल हो जाएं। और अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो सीबीआई और ईडी का सामना करने के लिए तैयार रहें। आम आदमी पार्टी इन आरोपों के साथ भाजपा पर हमलावर है और दावा कर रही है कि महाराष्ट्र जैसा खेल यहां भी खेलने की कोशिश हो रही है। अब देखना ये है कि क्या आप के विधायक अपने इन आरोपों के साथ केवल राजनीति करेंगे या कानून के दरवाजे भी जाएंगे। क्योंकि किसी दल को तोड़ने के लिए करोड़ों रुपयों की रिश्वत और जांच एजेंसियों का डर दिखाना लोकतंत्र और संविधान दोनों के खिलाफ है। आप के विधायक कभी खुद को महाराणा प्रताप का वंशज बताते हैं, कभी भगत सिंह की संतान। लेकिन इन महापुरुषों की विरासत संभालने का दावा करने से पहले उन्हें एक भारतीय नागरिक होने का फर्ज अदा करना चाहिए और अपनी शिकायत बाकायदा पुलिस में दर्ज कराना चाहिए, ताकि अगर कुछ गलत हो रहा है तो उसे रोका जा सके।
बिहार और दिल्ली की सत्ता में बैठे दलों ने भाजपा पर जो गंभीर आरोप लगाए हैं, उनके राजनैतिक निहितार्थ हो सकते हैं। भाजपा इन आरोपों का माकूल जवाब देकर जनता के बीच अपनी साफ छवि भी बना सकती है। लेकिन इसमें जांच एजेंसियों की छवि पर जो दाग लग रहा है, इस वक्त सबसे अधिक चिंता देश में उसकी होनी चाहिए। सीबीआई को पहले ही पिंजरे का तोता करार दिया जा चुका है। देश की प्रमुख जांच एजेंसी पर यह एक ऐसी टिप्पणी थी, जिसके बाद सीबीआई की हर कार्रवाई को राजनैतिक चश्मे से देखने का चलन बन चुका है। अब उसमें प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग भी शामिल हो चुके हैं। देश में पुलिस प्रशासन पर पहले ही लोगों का भरोसा उठा हुआ था, बरसों बरस चलने वाले मुकदमों के कारण न्यायपालिका की साख भी दरक रही है और अब जांच एजेंसियों के बारे में अगर ये धारणा बलवती हो रही है कि उनकी उपयोगिता राजनैतिक इस्तेमाल तक रह गई है, तो यह देश की आंतरिक व्यवस्था और प्रबंधन के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं।
बरसों की पढ़ाई, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी और कड़ी मेहनत के बाद चयनित अधिकारी इन एजेंसियों का कार्यभार संभालते हैं, जिनसे यह स्वाभाविक उम्मीद आम जनता की होती है कि वे अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए पूरी ईमानदारी से काम करेंगे, ताकि बेईमानी करने वालों पर नकेल कसी जा सके, देश के साथ धोखाधड़ी करने वालों को रोका जा सके। अगर इतने योग्य अधिकारियों को राजनैतिक दल अपने हित के लिए इस्तेमाल करेंगे या फिर कुछ लोगों के कारण सारी संस्थाओं की छवि पर दाग लगेगा, तो यह न इन संस्थाओं के लिए अच्छा है, न देश के लिए।