स्वास्थ्य व्यवस्था के ढांचे में मोदीजी अभी भी दीमक
देश में कोरोना संक्रमण के आंकड़े अब भी हर रोज सामने आ रहे हैं और बचाव के तमाम उपायों, टीकाकरण आदि के बावजूद यह बीमारी कब खत्म होगी
देश में कोरोना संक्रमण के आंकड़े अब भी हर रोज सामने आ रहे हैं और बचाव के तमाम उपायों, टीकाकरण आदि के बावजूद यह बीमारी कब खत्म होगी, इस बारे में कोई पुख्ता तौर पर कुछ नहीं कह सकता है। दो टीके लगवाने के बाद अब बूस्टर डोज़ लगाने की मुहिम शुरु हो चुकी है। दुनिया में 60 लाख से अधिक लोग इस बीमारी के कारण मारे गए। भारत भी कोरोना से सर्वाधिक प्रभावित देशों में से एक रहा है। कोरोना की पहली और दूसरी लहर के दौरान जो खौफनाक मंज़र चारों ओर था, उससे उबरने में देश को वक्त लगेगा। बहुत से लोग उसे बुरा सपना मानकर भुला देना चाहते हैं। बुरे दिनों को कोई स्मृति में सहेज कर रखना नहीं चाहता। लेकिन फिर भी उन यादों में स्वास्थ्य सुविधाओं की बदहाली वाला जो हिस्सा है, उससे सबक लेकर देश में हालात को काफी हद तक सुधारा जा सकता है। अभी कोरोना के खत्म होने के आसार नहीं दिख रहे और इस बीच मंकीपॉक्स जैसी दूसरी बीमारियों की खबर आनी शुरु हो गई है।
महामारियों का सिलसिला सदियों से चल रहा है और आगे भी चलता ही रहेगा। इसलिए जरूरी है कि देश की स्वास्थ्य व्यवस्था का ढांचा इतना मजबूत हो जो हर नागरिक को इलाज का कवच मुहैया करा सके। भारत में सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। हाल ही में देश की राजधानी दिल्ली में एम्स के छात्रों ने हाथ में दानपेटी लेकर हॉस्टल बनाने के लिए चंदा इकठ्ठा करना शुरु किया था। छात्रों का कहना है कि एम्स प्रशासन हॉस्टल के लिए फंड न होने की बात करता है। इसलिए हम चंदा इकठ्ठा कर रहे हैं।
दरअसल पिछले दिनों एम्स के एक पैरामेडिकल छात्र की मौत हो गई, जो परिसर में हॉस्टल न मिलने के कारण किराए के कमरे पर रहता था। छात्रों का कहना है कि अगर वह परिसर में होता तो उसकी जान बचाई जा सकती थी। सरकारी अस्पतालों में स्वास्थ्य व्यवस्थाओं के साथ-साथ आंतरिक संरचना में कितनी कमजोरी है, यह इसका एक छोटा सा उदाहरण है।
देश के तमाम सरकारी अस्पतालों में इसी तरह की कई कमियां तलाशी जा सकती हैं। जिन पर अभी से सुधार का काम शुरु किया जाए, तो शायद अगले 10-20 बरसों में व्यवस्था और प्रबंधन दोनों को दुरुस्त किया जा सकता है। लेकिन अफसोस कि देश में जाति-धर्म के तमाम गैरजरूरी मसलों पर संसद से लेकर चैनलों के स्टूडियो तक लंबी बहसें चलती हैं, लेकिन जिस चीज से इंसान की जान की रक्षा की जा सके, उस पर चर्चा ही नहीं होती। बल्कि जो व्यवस्था है, उस पर भी संदेह हो जाए, अभी ऐसा माहौल बनाया जा रहा है।
देश की सर्वोच्च अदालत ने योग गुरु और कारोबारी रामदेव पर एलोपैथी के संबंध में दुष्प्रचार करने के लिए कठोर टिप्पणी की है। दरअसल इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) ने रामदेव के खिलाफ एक याचिका दायर की थी, जिसमें कहा गया था कि कोरोना महामारी के दौरान इसके टीकाकरण अभियान और आधुनिक दवाओं के ख़िला$फ अभियान चलाया गया। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने पूछा, ‘बाबा रामदेव डॉक्टर, एलोपैथी पर आरोप क्यों लगा रहे हैं? उन्होंने योग को प्रचलित किया। अच्छा है।
लेकिन उन्हें बाकी व्यवस्थाओं की आलोचना नहीं करनी चाहिए। इसकी क्या गारंटी है कि वो जिसका पालन कर रहे हैं वो हर बीमारी का इलाज कर देगा? बाबा रामदेव इस तरह से व्यवस्था की बुराई क्यों कर रहे हैं? अदालत की इस कड़ी टिप्पणी के बावजूद रामदेव जैसे कारोबारी भ्रामक बयानबाजी पर रोक लगा देंगे, इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। जब कोरोना का कहर पूरे देश को डरा रहा था, तब रामदेव की कंपनी से कोरोनिल नाम की दवा बाजार में उतारी गई थी। तब भी आईएमए ने हाई कोर्ट में अजीर् दायर कर रामदेव पर ये आरोप लगाया था कि वो पतंजलि कंपनी की बनाई कोरोनिल को कोविड-19 के इलाज की दवा बता रहे हैं।
जैसा कि माननीय अदालत ने कहा है कि योग को उन्होंने प्रचलित किया, ये अच्छी बात है। लेकिन इसके साथ ही उन्होंने एलोपैथी के इलाज को लेकर जो संदेह पैदा किया है, वह सही नहीं है। योग से बीमारियों से बचा जा सकता है, लेकिन अगर बीमारी हो ही गई तो ये कोई जरूरी नहीं कि उसका इलाज केवल योग या आयुर्वेदिक पद्धति से ही हो और एलोपैथी से नुकसान हो। जब आप मशहूर होते हैं और समाज का एक बड़ा तबका आपकी बातों को गौर से सुनता है तो आपकी समाज के प्रति जिम्मेदारियां भी बढ़ जाती हैं और ऐसे में सोच समझकर दावे करने चाहिए।
देश को एलोपैथी, यूनानी या आयुर्वेदिक स्वास्थ्य पद्धतियों में तुलना के फेर में उलझाने से बेहतर है कि उस संगठित लेकिन अघोषित अपराध के खिलाफ आवाज उठाई जाए, जो अस्पतालों, डॉक्टरों, दवा कंपनियों और बिचौलियों की सांठ-गांठ से आम लोगों की जिंदगी से खिलवाड़ कर रहा है। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में फेडरेशन ऑफ मेडिकल एंड सेल्स रिप्रेजेंटेटिव एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने एक जनहित याचिका दायर कर कहा कि डोलो नाम की दवा बनाने वाली कंपनी ने डॉक्टरों को दवाई लिखने के लिए पैसों की पेशकश की है। आपको बता दें कि डोलो एक पैरासिटेमाल है, यानी यह दवा दर्द निवारक और सामान्य तौर पर बुखार के लिए दी जाती है।
याचिका के मुताबिक कोरोना के दौरान कई डाक्टरों ने इस दवा को खाने की सलाह मरीजों को दी और इसके लिए कंपनी ने डॉक्टरों को कई करोड़ के उपहार बतौर रिश्वत दिए। कंपनी इन आरोपों से इंकार कर रही है। अब अदालत इस याचिका पर क्या फैसला लेती है, ये देखना होगा। लेकिन इस प्रकरण से ये जाहिर होता है कि किसी खास कंपनी की दवा को बढ़ाना देने के लिए कैसे डॉक्टरों को अपने पक्ष में किया जाता है। और यह खेल केवल दवा तक ही सीमित नहीं है।
सात सितारा सुविधाओं वाले अस्पताल मरीजों के लिए जो अलग-अलग पैकेज बनाते हैं, जिस तरह बड़े अस्पतालों से लेकर छोटे क्लिनिक तक और इसके साथ विभिन्न किस्म की जांच करने वाली लैब तक सिफारिश की एक पूरी श्रृंखला चलती है, उसके साथ निजी बीमा कंपनियों की सांठ-गांठ होती है, उससे समझा जा सकता है कि देश में स्वास्थ्य व्यवस्था में किस तरह की दीमक लग चुकी है। इसके खिलाफ जब मुहिम शुरु होगी, तब हम किसी भी महामारी का सामना करने के लिए तैयार होंगे।