विपक्ष की ताकत ने लोकतंत्र को बचा लिया किशके ईशारे लोकतंत्र को कुचलने की बड़ी तैयारी चल रही थी,

बिहार में चुनाव से पहले लोकतंत्र को कुचलने की बड़ी तैयारी चल रही थी, जिसे विपक्ष ने रोक लिया है
बिहार में चुनाव से पहले लोकतंत्र को कुचलने की बड़ी तैयारी चल रही थी, जिसे विपक्ष ने रोक लिया है। अक्टूबर-नवंबर में होने वाले चुनाव से पहले 25 जून से 26 जुलाई तक मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण अभियान चुनाव आयोग ने शुरु किया। लेकिन यह फैसला लगातार विवादों में था और विपक्ष इस पर सवाल उठा रहा था कि बिहार में करोड़ों मतदाता आखिर कहां से उन चुनिंदा दस्तावेज को उपलब्ध करा पाएंगे, जिन्हें दिखाने के बाद ही उनके नाम मतदाता सूची में शामिल करने की शर्त चुनाव आयोग ने रखी थी। अगर ये दस्तावेज नहीं दिखाए जा सके तो फिर आयोग उन्हें अवैध करार देता। यानी एक साथ करोड़ों लोग मतदान के अधिकार से वंचित रह जाते, इस पर विपक्ष ने शुरु से कड़ी आपत्ति दर्ज की थी, चुनाव आयोग से इसकी शिकायत भी की थी। अब विपक्ष की मुहिम रंग लाई है। चुनाव आयोग को अपने इस बड़े फैसले को लगभग पलटना पड़ा है और इसका विज्ञापन बाकायदा अखबारों में दिया गया है।
आयोग ने अब कहा है कि जिन 11 दस्तावेज की सूची दी गई थी उनमें से अगर एक भी कागज किसी के पास नहीं है तब भी उसका गणना प्रपत्र यानी एन्यूमरेशन फॉर्म जमा हो सकता है। इससे साफ़ पता चलता है कि चुनाव आयोग ने जो शुरुआती तेवर दिखाए थे वह अब ढीले पड़ चुके हैं। वैसे भी चुनाव आयोग का यह फैसला अटपटा है, क्योंकि हिंदुस्तान में आजादी के बाद से नागरिक को मतदान का अधिकार मिला और इसके लिए व्यवस्था की गई कि चुनाव आयोग मतदाता के दरवाजे तक जाकर उसे यह अधिकार सौंपेगा। यही असली लोकतंत्र था, लेकिन अब इसमें उल्टी गंगा बहाते हुए चुनाव आयोग ने मतदाता पर ही यह जिम्मेदारी डाल दी कि वह फार्म भरे, दस्तावेज दिखाए और अपने वैध मतदाता होने को साबित करे।
बिहार में मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण का आदेश जिस तरह आया और उस पर काम शुरु भी हुआ तो कई सवाल खड़े हो गए। इसे नोटबंदी और लॉकडाउन यानी देशबंदी के बाद वोटबंदी कहा जा रहा था। हालांकि यह केवल शब्दों की तुकबंदी नहीं थी, बल्कि इसके पीछे लोकतंत्र पर पड़ने वाली चोट को लेकर गहरी चिंता थी। भाजपा की आंखों पर तो इस समय सत्ता की पट्टी बंधी हुई है, इसलिए उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा कि करोड़ों लोग अगर चंद कागजात की वजह से वोट देने का अधिकार खो देते हैं, तो इसका कितना बड़ा नुकसान होगा। भाजपा को यह लगा होगा कि गरीब, अल्पसंख्यक, दलित, पिछड़े वर्ग के वोट बड़ी संख्या में कटेंगे और उसका नुकसान केवल महागठबंधन को होगा, लेकिन हो सकता है कि दूसरे के लिए खोदे जा रहे गड्ढे में खुद भाजपा भी धंस जाए।
एनडीए में भाजपा के साथी दल भी इस कवायद से होने वाले नुकसान को समझ रहे थे, लेकिन खुल कर कहने की हिम्मत नहीं दिखा रहे थे। खास तौर पर जनता दल यूनाइटेड के कई नेताओं का मानना था कि इस तरह की दस्तावेज की शर्तों से उनके अति पिछड़े और महिला वोटरों पर काफी बुरा असर पड़ेगा। गौरतलब है कि चुनाव आयोग ने सरकारी कर्मचारी/पेंशनर पहचान पत्र, जन्म प्रमाणपत्र, पासपोर्ट, मैट्रिक का सर्टिफिकेट, डोमिसाइल, वन अधिकार और ओबीसी, एससी, एसटी प्रमाणपत्र, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर, पारिवारिक रजिस्टर, और जमीन या मकान आबंटन प्रमाणपत्र इन दस्तावेज के आधार पर वोटर को वैध या अवैध निश्चित करने का फैसला लिया। इसमें कहीं भी आधार कार्ड, पैन कार्ड, मनरेगा या राशनकार्ड का जिक्र नहीं था। जबकि हिंदुस्तान की कम से कम 90 प्रतिशत आबादी अपनी पहचान बताने के लिए इन्हीं में से किसी एक कागज को दिखाती है। कोरोना वैक्सीन लगवाने से लेकर, स्कूल-कॉलेज में दाखिला, बैंक खाता खोलने, पासपोर्ट बनवाने या हवाईजहाज से सफर करने तक हर जगह पहचान के नाम पर आधार कार्ड, पैन कार्ड, राशनकार्ड ही दिखाया जाता है। जिन दस्तावेज को रहने, खाने, काम करने, सफर करने, आजीविका के लिए जरूरी माना गया, उनमें से किसी को भी वोट डालने के लिए जरूरी क्यों नही माना गया, यह सवाल भी उठा। अगर चुनाव आयोग किसी को वोट देने के योग्य नहीं मानेगा, तो इसका मतलब है कि वह इन्हें भारत का नागरिक भी नहीं मानेगा। इसमें एक बड़े चुनावी घोटाले की बू आई, जिसके बाद ही विपक्ष ने बड़ी तेजी से इस मसले पर मोर्चा खोला और अब इसमें उसे जीत भी मिली है।
25 जून से लागू हुए इस आदेश में रोजाना की तब्दीलियां हो रही हैं, जो बता रही हैं कि इस फैसले को हड़बड़ी में लिया गया है। ठीक वैसे ही जैसे आधी रात को संसद लगाकर जीएसटी तो लागू की गई थी, फिर रोजाना नियम बदले जाते थे। जब नोटबंदी लागू की गई, उसके बाद भी यही आलम रहा कि बार-बार नियम बदले गए और अब मतदाता सूची गहन पुनरीक्षण अभियान में भी यही हो रहा है। ताजा बदलाव यही है कि अब दस्तावेज दिखाना ही जरूरी नहीं है। मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण को लेकर चुनाव आयोग के तेवर कई बार ढीले पड़े हैं लेकिन याद रखने की बात यह है कि अब भी इसने इसमें एक पेच लगा रखा है। चुनाव आयोग के विज्ञापन में यह बात बताई गई है कि अगर आप जरूरी दस्तावेज उपलब्ध कराते हैं तो निर्वाचन निबंधन पदाधिकारी यानी ईआरओ को आवेदन को प्रोसेस करने में आसानी रहेगी। इसके ठीक बाद चुनाव आयोग का विज्ञापन कहता है कि अगर आप जरूरी दस्तावेज उपलब्ध नहीं करा पाते हैं तो निर्वाचक निबंधन पदाधिकारी यानी ईआरओ द्वारा स्थानीय जांच या अन्य दस्तावेज के साक्ष्य के आधार पर निर्णय लिया जा सकेगा। यानी अब दस्तावेज देना ज़रूरी तो नहीं रहा लेकिन अगर चुनाव आयोग का अधिकारी यह मान ले कि आपको दस्तावेज की जरूरत है तो उसे देना पड़ेगा। यानी खिलवाड़ की गुंजाइश अब भी है, मगर इस बीच बिहार में 9 जुलाई को मतदाता सूची अपडेशन के खिलाफ चक्काजाम का ऐलान विपक्ष ने किया है। नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव इस मामले में तीखे तेवर दिखा रहे हैं। कांग्रेस, राजद, वामदल समेत सारा विपक्ष ताल ठोंक कर मैदान में आ चुका है। तो अब उम्मीद बंध गई है कि बिहार में चुनाव की वो चोरी नहीं हो पाएगी, जिसके आरोप राहुल गांधी ने महाराष्ट्र और हरियाणा चुनाव में लगाए हैं और बिहार में इसी की आशंका जाहिर की थी।