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बढ़ती महंगाई से मोदीजी कब तक होगा जरूरतों से समझौता !

कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दैनन्दिन कार्यों की एक सूची बताई है, जिसमें प्रमुख हैं- 1. पेट्रोल-डीज़ल-गैस का रेट कितना बढ़ाऊं, 2. लोगों की ‘खर्चे पे चर्चा’ कैसे रुकवाऊं, 3. युवा को रोज़गार के खोखले सपने कैसे दिखाऊं, 4. आज किस सरकारी कंपनी को बेचंू, 5. किसानों को और लाचार कैसे करूं।

कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दैनन्दिन कार्यों की एक सूची बताई है, जिसमें प्रमुख हैं- 1. पेट्रोल-डीज़ल-गैस का रेट कितना बढ़ाऊं, 2. लोगों की ‘खर्चे पे चर्चा’ कैसे रुकवाऊं, 3. युवा को रोज़गार के खोखले सपने कैसे दिखाऊं, 4. आज किस सरकारी कंपनी को बेचंू, 5. किसानों को और लाचार कैसे करूं। इस सूची को राहुल गांधी ने हैशटैग रोज सुबह की बात के साथ ट्वीट किया है। वे लगभग रोज ही किसी न किसी तरह बढ़ती महंगाई और लोगों की लाचारी को लेकर इसी तरह के ट्वीट करते हैं। उनके साथ-साथ कांग्रेस पार्टी और विपक्ष के कई अन्य नेता भी बढ़ती महंगाई को लेकर चिंता जतलाते हैं। कांग्रेस ने तो अब बाकायदा सड़क पर उतरने का अभियान छेड़ दिया है। मगर सरकार महंगाई को लेकर मचे इस हंगामे की ओर ध्यान ही नहीं दे रही है।

सरकार का घमंड तो देखिए वो इस मामले पर ऐसा कोई बयान भी नहीं देती जिससे लोगों को ये उम्मीद बंधे कि आज नहीं तो कल कीमतें कम होंगी या थोड़ी राहत मिलेगी। उल्टा भाजपा नेता ये दलील दे रहे हैं कि रूस और यूक्रेन के युद्ध के कारण तेल की कीमतें बढ़ रही हैं। हालांकि अभी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल की कीमतों में थोड़ी कमी आई है, मगर देश में पिछले नौ दिनों में आठ बार पेट्रोल और डीजल की कीमत बढ़ गई है। दिखने को ये बढ़ोतरी कभी 70 पैसे, कभी 80 पैसे की होती है। लेकिन रोजाना की ये बढ़ोतरी एक महीने में आम आदमी की जेब पर कितनी भारी पड़ सकती है, यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है।

चुनावी सभाओं में जनता के हमदर्द बनने वाले प्रधानमंत्री मोदी अब महंगाई पर कोई आश्वासन देते नजर नहीं आते। खुद की गरीबी का अंतरराष्ट्रीय मंच पर रोना रो चुके मोदीजी को अब गरीबों और मध्यमवर्गीय लोगों की तकलीफ से कोई सरोकार नहीं दिखता। विभिन्न मंचों से वे अब भी बड़ी बातें करते ही नजर आते हैं। मुमकिन है कि भाजपा के राज में अगले कुछ सालों में भव्य राम मंदिर बनने के साथ हिंदुत्व का बोलबाला हो जाए। अल्पसंख्यक थोड़ा और डर कर रहने पर मजबूर कर दिए जाएं। धर्म की अफीम और राष्ट्रवाद के नशे में मोदी-मोदी के नारे लगाने वाले लोगों की गिनती कुछ और बढ़ जाए। विपक्षी दल आपसी एकता की बात करते-करते अंत में अपने-अपने स्वार्थों के दायरे में कैद रहें और भाजपा को अपनी मर्जी से देश को चलाने का मौका मिल जाए। लेकिन इस सबके बीच हिंदुस्तान का आम आदमी किस दशा में पहुंच चुका होगा, यह कल्पना करके ही डर लगता है। गरीबों को पांच किलो अनाज, किसानों को साल के कुछ हजार रुपए, और इसके साथ कभी एक-दो सिलेंडर, या थोड़ी बहुत कर्जमाफी के टुकड़े जनता के सामने डालकर उससे फिर से वफादारी की मांग की जाएगी। और रोजमर्रा के संघर्षो से टूट चुकी जनता शायद ऐसा करने को तैयार भी हो जाए। आत्मसम्मान खो चुका देश किस तरह की गति प्राप्त होगा, यह समझना कठिन नहीं है।

इन बातों में अतिशयोक्ति लग सकती है, लेकिन फिलहाल हालात इसी ओर इशारा कर रहे हैं। और जिस तरह का हाल पड़ोसी देश श्रीलंका में हो चुका है, कोई आश्चर्य नहीं कि अगले कुछ वक्त में भारत के लोग भी ऐसे ही बदहाल दिखेंगे। श्रीलंका में भी राजपक्षे सरकार ने सत्ता संभालने के वक्त बहुत बड़े-बड़े दावे देशप्रेम, राष्ट्रवाद के नाम पर किए थे। अब उनका खोखलापन नजर आ रहा है। श्रीलंका के लोग बढ़ती महंगाई के कारण अपने घरेलू खर्चों और रोजमर्रा के खानपान में भी कटौती कर रहे हैं।

एक लीटर पेट्रोल की कीमत तीन महीने में दोगुनी से भी ज्यादा हो चुकी है। इस कीमत पर भी पेट्रोल व केरोसिन हासिल करने के लिए इतनी लंबी कतारें लग रही हैं कि श्रीलंका सरकार ने गैस स्टेशनों पर स्थिति को काबू में रखने के लिए सेना की टुकड़ियों को भेजा है। कतारों में लगे वृद्ध लोगों की जानें गई हैं और कुछ जगहों पर हिंसा भी हो गई है। कागज महंगा होने के कारण बच्चों की परीक्षाएं नहीं हो रही हैं, कुछ अखबारों को अपना प्रिंट संस्करण अनिश्चितकाल के लिए स्थगित करना पड़ा है। देश विदेशी मुद्रा की भयंकर कमी से जूझ रहा है, जिस वजह से आयात करना असंभव होता जा रहा है। कर्ज का भुगतान नहीं हो पा रहा है, जिसके कारण श्रीलंका की स्थिति डिफाल्टर जैसी हो रही है और अब वह चीन, भारत और आईएमएफ के सामने हाथ फैला रहा है।

जब आप याचक की मुद्रा में होते हैं तो शोषण होना तय है। श्रीलंका के हाल भी कुछ ऐसे ही हैं। अगर उसे कर्ज देने वाले अपने फायदे की शर्तें रखेंगे तो उसे मजबूरी में उन्हें मानना पड़ेगा। यह सब काम सरकार ही करेगी। लेकिन सरकार असल में अमूर्त होती है। उसमें सामने जो चेहरा होता है, वो सत्ता चलाता है, और उसके पास ये सुविधा होती है कि जब हालात संभालना कठिन हो जाए तो सत्ता से हट सकता है। इससे उसके राजनैतिक जीवन पर असर पड़ सकता है, लेकिन आर्थिक तौर पर वह उन दिक्कतों को नहीं झेलता, जो आम जनता को सहनी होती हैं। सत्ता से हटा व्यक्ति लाचार हो सकता है, गरीब नहीं। श्रीलंका में भी वहां की सरकार के लिए फैसलों का नतीजा जनता ही भुगतेगी। अगर कर्जदाता श्रीलंका का शोषण करने का मन बना लेंगे तो असल में शोषण जनता का ही होगा।

कुछ यही हाल अब भारत में भी हो रहा है। अभी ये नौबत नहीं आई कि तेल के लिए लंबी लाइनें लग रही हैं या मारपीट हो रही है। मगर जिस तरह से महंगाई की चोट पड़ती जा रही है उसमें एक न एक दिन जनता टूट ही जाएगी। जो सत्ता में बैठे हैं, उनके घर, बंगले, रोज का आलीशान खर्च, सुरक्षा का तामझाम सब वैसे ही चलेगा, कटौती और समझौते केवल जनता को करने पड़ेंगे। देखना है कि जनता कब तक और किस हद तक अपनी जरूरतों से समझौता करती है।

 

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