चुनाव अब आदर्शों नहीं, चालाकियों से जीता जाता है,?विपक्ष अपनी चूक स्वीकार करे.

2024 के आम चुनावों से पहले सेमीफाइनल माने जाने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों में एक बार फिर भाजपा ही विजेता बनकर निकली है। पंजाब छोड़ शेष सभी चारों राज्यों में उसकी सत्ता बरकरार दिख रही है।
2024 के आम चुनावों से पहले सेमीफाइनल माने जाने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों में एक बार फिर भाजपा ही विजेता बनकर निकली है। पंजाब छोड़ शेष सभी चारों राज्यों में उसकी सत्ता बरकरार दिख रही है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक अंतिम नतीजे घोषित नहीं हुए हैं। लेकिन भाजपा ने इतनी बढ़त उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में हासिल कर ली है कि फिर से सरकार उसी की बनेगी। इससे पहले आए एक्जिट पोल में देश के कई चैनलों ने भाजपा के लिए जितनी सीटों का अनुमान लगाया था, लगभग वही आंकड़ा नतीजों में दिखा। आश्चर्य इस बात का भी है कि चंद रोज पहले ही भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी.नड्डा ने प्रेस कांफ्रेंस में चार राज्यों में भाजपा की सरकार बनाने का दावा कर दिया था। मुमकिन है भाजपा के आंतरिक सर्वे में भी जीत की आश्वस्ति मिली हो। लेकिन इसके बाद जिस तरह पिछले दो दिनों से उप्र में ईवीएम को लेकर गड़बड़ियां सामने आईं, उनसे चुनाव में धांधली के सवाल उठे। उप्र के कम से कम 15 जिलों में ईवीएम से छेड़छाड़, उसे ले जाने में प्रोटोकॉल का उल्लंघन, कूड़े की गाड़ी में ईवीएम का पकड़ाना, खाली बैलेट पेपर मिलना, और वीवीपैट में गड़बड़ी जैसे मामले सामने आए।
इस पर अखिलेश यादव ने प्रेस कांफ्रेंस भी की। स्ट्रांग रूम के बाहर सपा के कार्यकर्ताओं और किसानों ने निगरानी की। और काफी हंगामे के बाद निर्वाचन आयोग ने कुछ लोगों पर कार्रवाइयां की। सपा समेत विपक्ष के कई नेता ईवीएम की रखवाली की चिंता करते रहे, जबकि भाजपा इस मुद्दे पर खामोश ही रही। एक्जिट पोल में भाजपा की जीत के दावे और नतीजे घोषित होने से पहले इस तरह की गड़बड़ी से यह सवाल उठना जायज है कि क्या वाकई ये चुनाव निष्पक्ष हुए हैं और क्या नतीजों में पर्याप्त पारदर्शिता बरती गई है। निर्वाचन आयोग से अपेक्षा है कि वह इस संबंध में अपने संवैधानिक दायित्वों को ध्यान में रखते हुए जनता को जवाब देगी।
बहरहाल, जो जनादेश सामने है, उसे लोकतंत्र में सिर-माथे रखना ही होगा। इन नतीजों से कुछ स्पष्ट संकेत, संदेश और सबक मिले हैं, जिन्हें गैरभाजपाई दलों को अविलंब पढ़ना, समझना और याद कर लेना चाहिए। पहली बात तो ये कि 2024 तक यानी अगले आम चुनावों तक देश में भगवा लहर को चुनौती दे सके, ऐसा सशक्त विपक्ष अब तक नहीं बना है और इस वजह से भाजपा की बादशाहत कायम है। दूसरी बात, रैलियों में जुटने वाली भीड़ वोटों में तब्दील हो जाए, ये कोई जरूरी नहीं है। और तीसरी बात देश की राजनीति में अब हिंदुत्व का कथानक अपना इतना विस्तार कर चुका है कि उसे आसानी से समेटा नहीं जा सकता।
2022 का चुनाव ऐसे वक्त में हुआ था, जब देश ने कोरोना की दूसरी लहर की भयावह मार झेली, किसानों का साल भर से लंबा चला आंदोलन देखा, प.बंगाल में भाजपा की हार देखी, महंगाई और बेरोजगारी सर्वोच्च स्तर पर चले गए, आम जनता में गरीबों की गिनती बढ़ गई, जबकि देश के कुछ उद्योगपतियों की दौलत में भारी इजाफा हुआ, अमीरी और गरीबी के बीच की खाई बढ़ गई, दुनिया में लोकतंत्र, नागरिक अधिकार और खुशहाली जैसे इंडेक्स में भारत की स्थिति खराब हुई, पेट्रोल-डीजल सौ रुपए के पार चले गए, खाद्य तेल दो सौ रुपए महंगा हुआ, रुपए में ऐतिहासिक गिरावट दर्ज हुई, हजारों करोड़ों के बैंक घोटाले पकड़ाए, अरबों का नशीला पदार्थ पकड़ाया, चीन से सीमा विवाद के कारण तनाव बढ़ा, किसानों को गाड़ी से कुचलने का भयंकर अपराध हुआ, आम नागरिकों को उग्रवादी समझ कर सैन्य बलों ने मार गिराया, परीक्षाओं में धांधलियां हुईं, अपने हक की आवाज उठाने वाले छात्रों पर पुलिस के डंडे चले, महिलाओं, दलितों, अल्पसंख्यकों पर अकल्पनीय अत्याचार हुए। लेकिन बहुसंख्यक मतदाता के लिए देश के इन बुरे हालात के लिए सत्ताधारी भाजपा जिम्मेदार नहीं है।
उसकी नजर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर देश की सामाजिक-आर्थिक दशा सुधारने से भी महती जिम्मेदारी है, देश में हिंदुत्व के कल्पना में गुम हुए गौरव को लौटाने की। वे अभी इस महान कार्य में लगे हुए हैं, इसलिए इस बदहाली के लिए बहुसंख्यक जनता शिकायत नहीं करती है, बल्कि भाजपा को वोट देकर जिताती है। फिर चाहे मुख्यमंत्री का चेहरा कोई भी हो, चुनाव मोदीजी के चेहरे पर ही लड़ा जाता है। इसलिए अब उप्र में योगी भाग दो का शासन स्थापित हो या मणिपुर, गोवा, उत्तराखंड में कोई भी मुख्यमंत्री चेहरा हो, जनता को शायद कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
जनता भाजपा के हिंदुत्व और विकास के तय किए गए कथानक से बाहर निकल सकती थी, बशर्ते कोई मजबूत विकल्प उसके सामने होता। लेकिन उत्तरप्रदेश में बसपा और एआईएमआईएम ने मिलकर भाजपा के लिए राह आसान कर दी। उत्तरप्रदेश में अखिलेश यादव ने कई बार 4 सौ से अधिक सीटें लाने का दावा किया था, उन्हें अपनी सभाओं में उमड़ती भीड़ से आस बंधी थी। मगर उन्हें ये याद नहीं रहा कि चुनाव की तैयारी उन्होंने देर से शुरु की और अगर किसान आंदोलन नहीं होता तो उप्र में भाजपा के खिलाफ जो थोड़ा बहुत माहौल बना, वो भी नहीं बनता। बाकी हार विपक्षी दलों के बंटे हुए वोटों ने तय कर दी। गोवा में भी कांग्रेस के खिलाफ टीएमसी और आप के बीच वोट बंट गए, जिसका फायदा भाजपा को मिला।
कांग्रेस ने उत्तराखंड में आपसी कलह और आधी-अधूरी तैयारियों के कारण सत्ता गंवा दी, जबकि पंजाब में तो अतिआत्मविश्वास कांग्रेस को ले डूबा। आप की झाड़ू जीत की चमक लेकर आएगी, यह अनुमान लगाने में कांग्रेस चूक गई। वहां भी नवजोत सिंह सिद्धू जैसे कप्तानों ने कांग्रेस का बंटाधार किया। पिछले विधानसभा चुनावों की तरह कांग्रेस एक बार फिर बुरी तरह हारी है और फिर से आत्ममंथन की बात कर रही है। लेकिन अब कांग्रेस को सोचना होगा कि मंथन का दौर कब तक चलेगा और उसका असर जमीन पर दिखे, ऐसे कदम कब उठाए जाएंगे। कांग्रेस को विरोधी नहीं उसके अपने ही हराते हैं, यह बात बार-बार साबित हो रही है। इसलिए अगर प्रियंका गांधी और राहुल गांधी को अपनी मेहनत को पार्टी की जीत में तब्दील करना है, तो उन्हें कुछ कड़े कदम उठाने होंगे। चुनाव अब आदर्शों नहीं, चालाकियों से जीता जाता है, इस सच्चाई को स्वीकार करना होगा।